मनोज बाजपेयी का रजत जयंती वर्ष / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 17 सितम्बर 2019
मनोज बाजपेयी को फिल्मों अभिनय करते हुए 25 वर्ष हो चुके हैं। उन्हें पहली बार 'द फैमिली मैन' नामक वेब सीरीज में परिवार का उत्तरदायित्व वहन करने वाले व्यक्ति की भूमिका अभिनीत करने का अवसर मिला है। उन्हें प्रायः चरित्र भूमिकाएं मिलती रही हैं। राम गोपाल वर्मा की 'सत्या' अपराधी भीखू म्हात्रे की भूमिका के कारण उनकी यादगार फिल्म बन गई है। उन्होंने 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भी अभिनय किया है। कुछ दिन पहले ही अमेरिका की एक फिल्म संस्था ने अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' को महत्वपूर्ण फिल्म घोषित किया है। अमेरिकन संस्था को संभवतः भारत में जाति-प्रथा और धर्म को लेकर मनुष्य के बंटवारे का ज्ञान नहीं है।
उस फिल्म के काल्पनिक कस्बे वासेपुर के सारे रहवासी इस्लाम के अनुयायी हैं और सारे ही अपराधी भी हैं। आज जिस तरह का इस्लाम विरोध लोकप्रिय है, उसका पूर्वानुमान अनुराग कश्यप ने कर लिया था। उनकी 'ब्लैक फ्राइडे' में भी इस्लाम विरोध की झलक देखी जा सकती है। प्रायः फिल्मकार धार्मिक सद्भावना का संदेश देने वाली फिल्में बनाते रहे हैं परंतु कुछ अपवाद भी रहे हैं।
ऋषि कपूर ग्यारह माह पश्चात अमेरिका से निरोग होकर लौटे हैं और उन्होंने फिल्म 'मुल्क' के फिल्मकार से उसी तरह की फिल्म बनाने का अनुरोध किया है। फिल्म 'मुल्क' किसी भी संप्रदाय विशेष के खिलाफ पूर्वग्रह का विरोध करने वाली फिल्म है। बांटकर राज करना अंग्रेजों की अपनी खोज नहीं थी। उन्होंने बस दुखती रग का लाभ उठाया था। हम तो हमेशा ही विभाजित होते हुए भी जुड़े हुए होने का आभास देते रहे हैं।
उच्च जीवन मूल्यों के ह्रास के कई कारण हो सकते हैं। आज़ादी के बाद कस्बों और छोटे शहरों से रोजी-रोटी की तलाश में पलायन प्रारंभ होने से संयुक्त परिवार नामक संस्था का विघटन हुआ। संयुक्त परिवार व्यवस्था में खोट रही है परंतु उसका एक लाभ यह रहा कि भाइयों के बच्चे आपस में लड़-झगड़कर भी एक-दूसरे के हमदर्द बने रहे। इस तरह संयुक्त परिवार उस स्कूल की तरह था, जहां साथ रहने की कला सिखाई जाती थी। महानगरों में पति-पत्नी व बच्चों के छोटे परिवार में बच्चे सहअस्तित्व का पाठ नहीं पढ़ पाते। एक मार्मिक कथा में अपने माता-पिता से बुरा व्यवहार करने वाले व्यक्ति को उनका बच्चा कहता है कि बड़ा होकर वह भी इसी तरह का आचरण करेगा।
मनोज बाजपेयी का जन्म बिहार के चंपारण में हुआ था, जहां गांधीजी ने अपना पहला सत्याग्रह किया था। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में प्रवेश पाने के तीन प्रयास किए पर नाकाम रहे। मुंबई में उन्होंने लंबे समय तक संघर्ष किया। फिर व्यावसायिक अभिनय के किले में सेंधमारी और विविध भूमिकाएं अभिनीत कीं। 'नाम शबाना' की तरह की फिल्मों में मनोज बाजपेयी गुप्तचर विभाग के अधिकारी हैं । उन्होंने 'अलीगढ़' नामक फिल्म में एक साहसी भूमिका अभिनीत की है। मनोज बाजपेयी मोतीलाल और बलराज साहनी की परम्परा के अभिनेता हैं। यह परम्परा ओम पुरी और नसीरुद्धीन शाह से होते हुए मनोज बाजपेयी तक पहुंची है। वे लंबे समय तक इस उद्योग में टिके रहे, क्योंकि उनकी जीवनशैली में बचत और किफायत के सद्गुण रहे हैं। फिजूलखर्ची से वे बचते रहे हैं। आर्थिक मंदी का दौर दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। बचत और किफायत की जीवनशैली ही हमें बचा सकती है।
फिल्म उद्योग में भी अब किफायत के मूल्य अपनाए जा रहे हैं। कलाकार व्यावसायिक नज़रिया अपना रहे हैं। पूरी तैयारी के साथ समय पर पहुंच रहे हैं। फिल्म निर्माण तेज रफ्तार से हो रहा है। सिनेमाघरों में प्रदर्शन से आय अब एकमात्र स्रोत नहीं है। प्रदर्शन के लिए नए रास्ते खुल रहे हैं। मनोज बाजपेयी की सफलता से यह बात भी उजागर होती है कि अभिनय प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिलने पर भी प्रतिभा अपना रास्ता खोज लेती है। जीवन की पाठशाला में सभी विधाओं की शिक्षा उपलब्ध है। पुरातन समय में राजकुमार को सभी कलाओं का ज्ञान दिया जाता था। उन्हें चोरों की कार्यशैली का अध्ययन भी करना पड़ता था। चोरों को पकड़ने और दंड देने के लिए उनकी ही विचार प्रक्रिया को समझना होता है। अभिनेता एक ही जीवन में जाने कितने अनुभवों से गुजरता है, कितनी भूमिकाएं अभिनीत करता है। भूमिकाओं का थोड़ा बहुत प्रभाव उसकी विचारशैली पर भी पड़ता है।