मनोबल / श्याम सुन्दर अग्रवाल

Gadya Kosh से
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बहुत समय पहले की बात है। सुमेरगढ़ नाम का एक राज्य था। इस राज्य की सेना का सेनापति था– जनरल प्रताप सिंह। प्रताप सिंह ने अपने जीवन में बहुत से युद्ध लड़े। सभी युद्धों में ही उसने विजय प्राप्त की। इसलिए ही वह बहुत प्रसिद्ध था।

जनरल हरि सिंह में एक विशेष गुण था। वह युद्ध से पहले अपने सिपाहियों का मनोबल बहुत बुलंद कर देता था। तब उसकी सेना विपरीत हालात का सामना करते हुए भी विजय प्राप्त कर लेती। एक बार की बात है। जनरल युद्ध के मैदान में था। दुश्मन की सेना सामने डटी खड़ी थी। दुश्मन की सेना उसकी अपनी सेना से चार गुणा थी। ऐसे में विजय प्राप्त करना आसान नहीं था। परंतु जनरल हरि सिंह किसी भी काम को असंभव नहीं मानता था। दुश्मन की सेना का सेनापति कृष्ण राव बहुत खुश था। उसे अपने मुकाबले हरि सिंह की पराजय निश्चित लग रही थी। उसे विश्वास था कि हरि सिंह सेना समेत पीछे हट जायेगा अथवा मैदान छोड़ कर भाग जायेगा। अगर उसने मुकाबला किया तो उसकी सेना बरबाद हो जायेगी।

हरि सिंह भी स्थिति को समझता था। परंतु वह किसी भी तरह हौसला हारने के लिए तैयार न था। उसका मन कह रहा था कि वह लड़ाई जीत सकता है। बस सिपाहियों का मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। बहुत सोच-विचार के पश्चात उसने एक ढ़ंग निकाल ही लिया।

उसने अपनी सेना की एक सभा बुलाई। उसने कहा, “ दुश्मन की सेना संख्या में हमसे चार गुणा है। हमारे लिए उसका सामना करना संभव नहीं है। अगर हम सामना करेंगे तो बुरी तरह से हार जायेंगे। सेना के सभी सिपाही और अफसर चुप थे। वे भी स्थिति की गंभीरता को समझते थे। जनरल हरि सिंह ने आगे कहा, “ऐसी स्थिति में केवल भगवान का सहारा ही काम आ सकता है। क्यों न मंदिर में जा कर भगवान से पूछ लिया जाए? अगर भगवान ने चाहा कि हम दुश्मन का सामना करें, तो वह हमें शक्ति देगा। भगवान शक्ति देगा तो हमें कोई नहीं हरा सकता। अगर भगवान ने ऐसा नहीं चाहा तो हम हथियार डाल देंगे।

सेना ने अपने सेनापति की बात मान ली। उन्हें भी विश्वास था– भगवान का आशीर्वाद मिला तो युद्ध में विजय निश्चित है। सवाल उठा कि भगवान से पूछा कैसे जाए? भगवान मुख से तो कुछ बोलते नहीं। तब जनरल ने ही राह सुझाया–“मेरे पास सोने के तीन सिक्के हैं। इन सिक्कों को हम मंदिर में बारी-बारी से उछालेंगे। अगर हर बार सिक्के का चित वाला पासा ऊपर रहा तो हम समझेंगे कि भगवान की ‘हाँ’ है। तब हम युद्ध लड़ेंगे और विजय प्राप्त करेंगे। अगर एक भी सिक्के का पट वाला पासा ऊपर रहा तो हम दुश्मन के सामने हथियार डाल डेंगे। सिपाहियों को यह तरकीब पसंद आई। तीनों सिक्के सोने की एक डिबिया में रख दिए गए।हरि सिंह स्वयं उस डिबिया को उठा कर मंदिर में ले गया। पुजारी से पवित्र जल लेकर सिक्कों पर छिड़का गया। हरि सिंह ने भगवान के आगे प्रार्थना की और अपनी बात कही।

फिर जनरल ने सिक्कों वाली डिबिया से एक सिक्का निकाला। सभी सिपाहियों के सामने सिक्का ऊपर उछाला। सिक्का नीचे गिरा तो उसका चित वाला पासा ऊपर था। शेष दोनों सिक्के भी उछाले गए। उन दोनों का भी चित वाला पासा ही ऊपर रहा। सिक्के कई बार उछाले गए। हर बार उनका चित वाला पासा ही ऊपर रहा। सभी सिपाहियों और अफसरों को भगवान की इच्छा का पता चल गया। उन्हें युद्ध में अपनी विजय का विश्वास हो गया। वे सब खुशी से नाचने लग पड़े। एक-दूसरे को बधाई देने लगे। जनरल हरि सिंह ने सिक्के वापस सोने की डिबिया में बंद कर रख दिए। अगले दिन उसने दुश्मन की सेना पर हमला कर दिया। दुश्मन सेनापति कृष्ण राव को अपनी जीत का पूरा विश्वास था। इसलिए वह थोड़ा लापरवाह हो गया था। इधर जनरल की सेना का मनोबल बहुत ऊँचा था। पहले ही बड़े हमले में जनरल की सेना ने बहुत बहादुरी दिखाई।

बहुत सूझ-बूझ से बनाई गई दुश्मन की रक्षा-पंक्ति ध्वस्त हो गई। जनरल की सेना का मनोबल और बुलंद हो गया। उन्होंने दुश्मन की शेष सेना पर भी जबरदस्त आक्रमण कर दिया। दुश्मन सेना ने समझा कि जनरल की मदद के लिए और सेना आ गई है। इस लिए वह निराश हो कर भाग ली।दुश्मन सेनापति कृष्ण राव को बंदी बना लिया गया। बची हुई सेना ने हथियार डाल दिए।

कैद के दौरान कृष्ण राव को सिपाहियों से सिक्कों वाली बात का पता चला। तब वह संतुष्ट हो गया। उसने सोचा– भगवान की इच्छा यही थी तो वह क्या कर सकता था। भगवान की इच्छा के विरुद्ध तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। उसे जनरल हरि सिंह ने नहीं, भगवान ने हराया है।

जनरल हरि सिंह बहुत विशाल हृदय का आदमी था। एक दिन उसने सेनापति कृष्ण राव को अपने साथ भोजन करने को आमंत्रित किया।

बातों ही बातों में कृष्ण राव ने कहा, “आपको तो भगवान ने विजय दिलाई है। भगवान की इच्छा के विरुद्ध हम क्या कर सकते थे।”

हरि सिंह उठ कर भीतर गया। वह अपने सामान में से सिक्कों वाली डिबिया ले आया। उसने कहा, “वह तो एक नाटक था। मैं किसी तरह अपनी सेना का मनोबल बढ़ाना चाहता था। उन्हें युद्ध में जीत का विश्वास दिलाना चाहता था।”

कृष्ण राव हैरान रह गया। उसने तीनों सिक्कों को उलट-पलट कर देखा। तीनों सिक्के दोनों तरफ से एक जैसे थे। उनके दोनों तरफ चित ही था, पट तो था ही नहीं। इसीलिए सिक्का उछालने पर हर बार चित वाला पासा ही ऊपर रहता था।

कृष्ण राव सारी बात समझ गया। उसने खड़ा हो कर जनरल हरि सिंह को सलाम किया।