मनोरंजन अखाड़े के पहलवान / जयप्रकाश चौकसे

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महाजन सरकार और लकड़ी की तलवार
प्रकाशन तिथि :02 जनवरी 2017

शांतारामजी की 'नवरंग' का एक गीत 'ये माटी तेरी कहानी कहेगी' याद आ रहा है, क्योंकि विगत वर्ष की दो सफलतम एवं महान फिल्में सलमान अभिनीत 'सुल्तान' और आमिर खान की 'दंगल' दोनों ही माटी से उपजी माटी की कहानियां हैं। अखाड़े की माटी ही पहलवान घढ़ती है और ये दोनों ही फिल्में एक अर्थ में महान गामा पहलवान के जीवन से जुड़ जाती हैं। यह संयोग भी देखिए कि हरियाणा की जमीन से पहलवान उपजे हैं और महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र भी उसी इलाके को बताया जाता है। क्या ये पहलवान कभी अपने पूर्वजन्म में कुरुक्षेत्र में कर्ण और अर्जुन की तरह एक-दूसरे के सामने खड़े थे? सारे पहलवान, योद्धा और कलाकार सर्वप्रथम मंच को नमन करते हैं, माटी को अपने माथे पर लगाते हैं। अभिनेता भी सर्वप्रथम सेट की माटी को नमन करते हैं। यह भी गौरतलब है कि दिन का पहला शॉट ही ओके होने पर सेट या लोकशन पर नारियल फोड़ा जाता है और सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं। फिल्मकार किसी भी धर्म को मानने वाले परिवार में जन्मा हो, वह मंच,सेट और माटी को नमन करता है और प्रतीकात्मक प्रसाद भी ग्रहण करता है।

'सुल्तान' का यह नायक अपने प्रेम को पाने के माध्यम से खुद को ही खोज निकालता है और 'दंगल' का नायक अपनी पुत्रियों के लक्ष्य प्राप्त करने की प्रेरणा बनता है। 'दंगल' के क्लाइमैक्स मंे प्रपंच की ताकतें उस्ताद को कमरे में कैद करती है परंतु उसकी दी गई शिक्षा ही विजयी होती है और इसे सृजन शक्ति की 'धोबी पछाड़' भी माना जा सकता है। उस्ताद और शागिर्द दो जिस्म मगर एक प्राण होते हैं। एकलव्य ने तो गुुरु की माटी की मूरत के सामने अभ्यास किया और अपने बीच उपस्थित पाया। देखिए माटी किस तरह कहां-कहां अभिव्यक्त होती है। इसी तरह सभी कवियों में विद्यमान कबीर की माटी कहती है, 'तू क्या रौंदे मोहे, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे।'

अमीर खुसरो, कबीर और ग़ालिब जाने किस तरह सारे सृजन में समाए हैं। वे कौन हंसोढ़ हुक्मरान हैं, जो इस सृजन परम्परा को ही नेस्तनाबूद करना चाहते हैं? उन्हें नहीं मालूम कि माटी अपने साथ मखौल करने वालों को क्षमा नहीं करती। कोई तीन दशक पूर्व इंदौर मंे एक फ्री स्टाइल कुश्ती का आयोजन तत्कालीन कमिश्नर ने होने ही नहीं दिया, क्योंकि वे स्वयं कभी अखाड़े के पहलवान रहे थे। यह मुमकिन है कि जीवन में कभी भी कोई व्यक्ति अगर अखाड़े में गया है तो उसके मिज़ाज में अख्खड़पन आ जाता है। सीधे सपाट जीवन में यह बांकपन ही जीवन को सभी पूर्व लिखित पटकथाओं से अलग करता है। हम सारे जीवन अपने में छिपे 'बांके बिहारी' को मारने का प्रयास करते हैं और इस मारने को जीवन भी कहते हैं। आदमी के पास अपने को भरमाए रखे की असीम क्षमता है। कई दशक पूर्व की एक घटना है कि वेश्यालय में एक अधेड़ स्त्री स्वयं को षोड़सी की भांति मानती थी और उसके भ्रम को पूरे वेश्यालय ने कायम रखा था परंतु एक दिन एक नए अमीरजादे ने उसे हकीगत से रूबरू करा किया और हेकड़ी यह कि हमेशा सच बोलना चाहिए। उसी रात हृदयघात से वह स्त्री मर गई। इसी तरह डाकुओं के भय से कुछ गांव वाले झाड़ियों के पीछे छिप गए जहां एक स्वयंभू तपस्वी बैठे थे। थोड़ी देर बाद डाकू आए और उस तपस्वी से पूछा कि लोग कहां छिपे हैं। अपने सत्य कहने की जिद में उस कथित तपस्वी ने छिपने की जगह बता दी और सारे लोग मारे गए। उन परिस्थितियों में बोला गया झूठ अनेक लोगों के प्राण बचा सकता था। सारांश यह कि सदैव सच बोलने की हेकड़ी भी संहारक होती है।

यह छद्‌म आधुनिकीकरण ही सबसे बड़ी समस्या है। तर्कसम्मत एवं अंधविश्वासों से मुक्ति ही सच्चा आधुनिकीकरण है। केवल जीन्स व टॉप धारण करने से या लिपिस्टिक पोतने से कोई आधुिनक नहीं होता। सच्ची आधुनिकता तर्क सम्मत वैज्ञानिक विचार प्रणाली है। सलमान खान और आमिर खान नए विचारों को सादर ग्रहण करते हैं और वे भलीभांति जानते हैं कि सफलता की फ्रेम में मौलिकता को किस तरह जड़ना चाहिए। उनकी नज़र बॉक्स ऑफिस से कभी हटती नहीं। समानांतर सिनेमा के हेकड़बाजों ने फॉर्मूला फिल्म का मजाक उड़ाया है परंतु यह अधिकतम दर्शकों की स्थायी खुराक रही है। इसी भोजन में नया तड़का लगाने की गुंजाइश हमेशा रही है। मनोरंजन उदयोग में यही 'बांकपन' आपको लंबी पारी खेलने के अवसर देता है।

ज्ञातव्य है कि मुलायम सिंह कभी अखाड़े के पहलवान रहे हैं परंतु बांकपन तो उनके सुपुत्र के पास है। उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति का पुराना अखाड़ा है और अभी वहां पारीवारिक दंगल जारी है। भारतीय समाज और राजनीति कभी महाभारत से मुक्त नहीं हो सकती।