मनोरंजन की चौसर पर कौडिय़ों का खेल / जयप्रकाश चौकसे

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मनोरंजन की चौसर पर कौडिय़ों का खेल
प्रकाशन तिथि : 29 अप्रैल 2013


पांचवें दशक में बलराज साहनी, नूतन और तलत मेहमूद अभिनीत 'सोने की चिडिय़ा'(१९५८) में नायिका एक शिखर सितारा है और उसका पे्रम वामपंथी कवि के साथ हो जाता है। नूतन बलराज साहनी से आग्रह करती है कि वह फिल्मों के लिए गीत लिखे। वह इनकार करता है। ज्ञातव्य है कि शैलेंद्र जो वामपंथी इप्टा के सक्रिय सदस्य थे, पहले उन्होंने भी इनकार कर दिया था। बाद में आर्थिक मजबूरी उन्हें राज कपूर के पास ले आई और उन्होंने इतिहास रच दिया। यह भी गौरतलब है कि उनकी ५६ गैरफिल्मी रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ था और सारी रचनाएं उपदेशात्मक थीं तथा किसी तरह भी श्रेष्ठ साहित्य में उनका शुमार नहीं हो सकता, परंतु उनके फिल्मी गीत गहरा अर्थ रखते हैं और उनमें से कुछ किसी भी सूची में स्थान पा सकते हैं। गोया कि सिनेमा की प्रयोगशाला में उनकी स्वाभाविक प्रतिभा खूब संवरकर सामने आई।

बहरहाल, फिल्म में वामपंथी कवि कहता है कि सिनेमा तो सपने बेचता है और वह यथार्थ जीवन में क्रांति चाहता है। नायिका पूछती है कि क्या उसकी कला का कोई अर्थ नहीं? कवि कहता है कि वह मात्र मनोरंजन है, लोगों की पलायनवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती है। फिल्म का घटनाक्रम कुछ ऐसा है कि कवि समझौता करता है, परंतु वह जो धनराशि कमाता है वह जूनियर कलाकारों की सहायता के लिए है गोयाकि फिल्म उद्योग के उपेक्षित गरीब वर्ग के लिए। इस तरह वामपंथी आदर्श होम्योपैथी खुराक की तरह अवाम को दिए गए।

वामपंथी विचारधारा से प्रेरित अनेक प्रतिभाशाली लोग फिल्मों से जुड़े जैसे ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी, बलराज साहनी, चेतन आनंद, शैलेंद्र, किशनचंदर, साहिर लुधियानवी इत्यादि। इन्होंने फिल्म माध्यम को अन्य साहित्यकारों की अपेक्षा जल्दी समझ लिया कि अधिकतम की पसंद के आर्थिक आधार पर टिकी इस विधा में राजनीतिक आदर्श शकर की चाशनी में लपेटकर ही परोसा जा सकता है। उन्होंने यह भी समझ लिया था कि मनोरंजन करते हुए ही सार्थक बात कही जा सकती है, क्योंकि आप इस माध्यम से धन कमाना चाहें या राजनीतिक सिद्धांत का प्रचार करना चाहें, सिनेमाघर का दर्शकों से भरा होना आवश्यक है, क्योंकि लगभग खाली सिनेमा हाल में काबिले तारीफ संवाद या गीत पर भी तालियां नहीं बजतीं। भरे हुए सिनेमाघर में दर्शक प्रतिक्रिया अलग हो जाती है। सामूहिक अवचेतन अपने निराले ढंग से ही अभिव्यक्त होता है।

सिनेमा की विधा अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से अलग इस तरह है कि अधिकतम की पसंद और सामूहिक अवचेतन अपरिभाषित हैं और यकीनन वे फॉर्मूलाबद्ध नहीं हो सकते। यही कारण है कि विगत सौ सालों की अधिकतम भव्य सफल फिल्में सोद्देश्य मनोरंजक फिल्में हैं और इनमें केवल एक या दो फॉर्मूला फिल्में हैं। अन्य सभी लीक से हटकर बनी फिल्में हैं। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी धनाढ्य व्यक्ति को महानायक पात्र बनाकर अत्यंत कम फिल्में बनी हैं। यहां तक कि आयन रेंड (रशियन-अमेरिकन उपन्यासकार) के उपन्यास 'द फाउंटनहेड' जो साम्यवाद की जड़ों पर प्रहार करता है, पर भी फिल्म नहीं बनी है।

साम्यवादी सोवियत रूस में सिनेमा शास्त्र पर गंभीर काम हुआ है और महान फिल्में भी रची गई हैं तथा इसके साथ ही साम्यवाद के प्रचार के अनगिनत वृत्तचित्र भी बने हैं परंतु सिनेमा माध्यम के शक्तिशाली उपयोग के बाद भी रूस का विघटन हुआ है। अत: इस माध्यम के गहन प्रभाव के बावजूद इसके द्वारा कोई राजनीतिक सिद्धांत का प्रचार नहीं हो पाया, परंतु जिन फिल्मकारों ने अपने राजनीतिक विश्वास के साथ मानवीय करुणा के स्पर्श वाली फिल्में बनाईं, वे अपनी करुणा के संप्रेषण के कारण यादगार बन गईं। यही भारत में भी हुआ, जिसके सिनेमा में महात्मा गांधी और माक्र्स दोनों ही आदर्शों पर अलग-अलग फिल्में बनाईं और मानवीय करुणा से ओतप्रोत फिल्में यादगार बन गईं। भारत में ओलिवर स्टोन की तरह राजनीतिक फिल्में अभी तक नहीं बन पाई हैं।

यह सब वृतांत का उद्देश्य मात्र इतना है कि मनोरंजन मूल तत्व है और विगत सौ सालों में मनोरंजन की शकर में लपेटकर राजनीतिक आदर्श प्रस्तुत हुए हैं, परंतु जहां पूंजीवादी विचार और साम्यवादी विचारों को वहन करने वाली फिल्में दर्शक पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाईं, वहां विगत दशक में उपभोग करने वाली बाजारी ताकतों ने इस माध्यम का सफल प्रयोग करके लोगों को अनावश्यक चीजें खरीदने की आदत डाल दी है। पहली बार कोई ठोस प्रचार नीति सफल हुई है और सिनेमा न केवल वस्तुएं बेचने में मदद कर रहा है, वरन जीवन-शैली में भी वैचारिक अय्याशी को स्थापित कर रहा है। मनोरंजन की चौसर र बाजार खरीद रहा है मनुष्य को कौडिय़ों के दाम।