मनोरंजन क्षेत्र के घमासान / जयप्रकाश चौकसे

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मनोरंजन क्षेत्र के घमासान
प्रकाशन तिथि :26 अप्रैल 2017


फिल्मकार शंकर और रजनीकांत की टीम लंबे समय तक शिखर पर रही परंतु 'बाहुबली' ने उनका किला ध्वस्त कर दिया हालांकि, रजनीकांत की लोकप्रियता आज भी कायम है। अब शंकर-रजनीकांत की टीम अपनी सफल फिल्म 'रोबो' का भाग दो '0.2' के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें अक्षय कुमार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इस फिल्म के साथ ही रोहित शेट्‌टी व अजय देवगन की 'गोलमाल 4' भी प्रदर्शित होने जा रही है। 'गोलमाल' का एक प्रतिनिधि शंकर से मिला और टक्कर से बचने की बात शंकर ने स्वीकार कर ली। अपना प्रदर्शन आगे बढ़ाने का यह कारण भी हो सकता है कि विशेष प्रभाव वाले दृश्य अभी पूरी तरह तैयार नहीं हैं। अाजकल अनेक ऐसे दृश्य कम्प्यूटर जनित छवियों से बनते हैं। कैमरे की जगह कम्प्यूटर ले रहा है। बहरहाल, रजनीकांत की फिल्में अपने अतिरेक के बावजूद आम आदमी से जुड़ी रहती हैं परंतु बाहुबली तो पूरी तरह फंतासी है, जिसमें लेशमात्र भी यथार्थ नहीं है। यह कमोबेश सामंतवाद की यशोगाथा का बखान ही करता है। एक दुष्ट मंत्री सिंहासन हड़पने के षड्यंत्र रचता है और राजवंश के सदस्यों का जीना मुश्किल कर देता है। रजनीकांत की 'लार्जर देन लाइफ' छवि भी यथार्थ से दूर है परंतु उनमें कुछ आदर्श जीवन मूल्य के संरक्षण का प्रयास भी दिखाया जाता है। 'बाहुबली' सामाजिक सोद्‌देश्यता का सिनेमा नहीं है। 1968 में अमेरिका में विज्ञान फंतासी के अभ्युदय के समय भी आम आदमी का सिनेमा ध्वस्त हो गया था। सिनेमा माध्यम के पहले कवि चार्ली चैपलिन का सिनेमा भी खत्म हो गया। चार्ली चैपलिन की कब्र से उनके ताबूत के चोरी चले जाने की घटना प्रतीकात्मक ढंग से उनके सिनेमाई दर्शन का भी अंत मानी जा सकती है। क्या इन धाराओं के लोप को दुनियाभर से समाजवाद के लोप के साथ जोड़ा जा सकता है? इसे आरके लक्ष्मण के कार्टून के आम आदमी के अदृश्य हो जाने से भी जोड़ा जा सकता है।

अब अवाम पूरी तरह से फंतासी में स्वयं को खो देना चाहता है। बाजार ने आम आदमी को गुमराह कर दिया है परंतु यह भी संभव है कि आम आदमी असमान युद्ध लड़ते-लड़ते थक गया हो और फंतासी की अफीम चाटने से ही उसे दर्द के कम हो जाने का मनोरम भ्रम होता हो। मामला हमें राजशेखर के लिखे गीत की याद दिलाता है,'खाकर अफीम रंगरेज पूछे ये रंग का कारोबार क्या है,' इस तरह से हम मायाजाल में उलझते चले जा रहे हैं। अब टेक्नोलॉजी और बाजार जीवन से सरलता व छोटी-मोटी चीजों से प्रसन्न हो जाने की परम्परा को ही समाप्त कर रहा है। आजकल तो बच्चों को भी टेक्नोलॉजी के खिलौनों की चाहत है। अब कोई बच्चा गुड्‌डे-गुड़िया से भरमाया नहीं जाता। छुपाछाई के खेल वाली सरलता जाने कहां छुप गई है। इस गुमशुदा सरलता व सहजता की खोज का विज्ञापन देना होगा। अब जीवन एक दुरुह व्यूह का हिस्सा हो गया है। महज दो वक्त का सादा भोजन व सिर छिपाने की साधारण-सी जगह अब किसी का सपना नहीं है। भव्य और भव्यतर महत्वाकांक्षाएं और जरूरतें हमें दिनों दिन लघु बनाती जा रही हैं और बौनेपन का शुभागमन हो चुका है।

इस कालखंड को अगर हम एक फिल्म मान लें तो आम आदमी को इसका आइटम गीत बनाया जा रहा है और वह इस भूमिका में खूब रम गया है और खुश भी नज़र आ रहा है। जिस देश में करोड़ों लोगों को दो वक्त का भोजन नसीब नहीं है उसे इस बात पर गर्व करने को कहा जा रहा है कि हम नंबर वन हथियार आयात करने वाले देश बन गए हैं। यह किस युद्ध की तैयारी हो रही है। अमेरिका ने तो अपनी जमीन पर विश्व युद्ध नहीं लड़ा परंतु धन और साधन जुटाए। यूरोप दो बार युद्ध में झुलसा है। ऐसा लगता है कि अमेरिका और चीन भारत को रणक्षेत्र बनाकर अपनी बाजी खेलने वाले हैं। रणक्षेत्र की खुद की कोई जुबां नहीं होती परंतु उसकी पीड़ा किसी से छिपी नहीं है।

सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि पृथ्वी के संरक्षण के प्रति हम संवेदनशील नहीं रहे। कुछ वर्ष पूर्व मात्र दो सौ फीट पर पानी मिल जाता था परंतु अब 400-500 फीट तक बोरिंग करना पड़ती है। धरती के गर्भ में लावा है, वह अपनी निचली सतह पर धधकती रहती है। हमारे विलास ने उसकी ऊर्जा हर ली है। हमारा वृक्षारोपण भ्रष्टाचार ने लील लिया और ट्री गार्ड की चोरी होने लगी है। नागपुर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने रोपे हुए पौधों की रक्षा नहीं कर पाने पर भारी आर्थिक दंड रखा है। शायद इसी कारण विदर्भ से अधिक मालवा झुलसा जा रहा है।