मनोरंजन जगत में तूफानी दौर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 16 सितम्बर 2013
बड़े परदे पर छद्म वयस्कता की फिल्में दिखाई जा रही हैं, जिनमें विवाह पूर्व शारीरिक संबंध और सेक्स को लेकर फूहड़ हास्य प्रस्तुत किया जा रहा है तथा यह सब आधुनिकता के नाम पर परोसा जा रहा है तो दूसरी ओर छोटे परदे पर छद्म धार्मिकता के सीरियलों की भरमार है। साथ ही महात्मा बुद्ध पर भी कार्यक्रम प्रसारित किया जा रहा है और दो न्यूज चैनलों पर राजनीतिक इतिहास दिखाया जा रहा है। एक चैनल पर 'प्रधानमंत्री' तो दूसरे पर 'वंदे मातरम' के विवरण एक-दूसरे पर ओवरलेप हो रहे हैं। छोटे परदे पर हमेशा की तरह अमिताभ बच्चन अत्यंत कुशलता से 'केबीसी' प्रस्तुत कर रहे हैं, तो हरफनमौला सलमान 'बिग बॉस' को अपने एकल व्यक्ति मनोरंजन की तरह साधे हैं। आधुनिकता के आग्रह वाली फिल्मों के साथ धार्मिक आख्यानों पर काल्पनिक प्रसंग दिखाए जा रहे हैं, जिनकी तकनीक 'लॉड्र्स ऑफ रिंग्स' और हैरी पॉटर से प्रभावित है। भांति-भांति के कौतुक रचे जा रहे हैं। धार्मिक कथानक चमत्कार के बिना सफल नहीं होते। गुलजार ने दशकों पूर्व 'मीरा' को मनुष्य रूप में प्रस्तुत किया तो हेमामालिनी और विनोद खन्ना जैसे सितारों की मौजूदगी भी विश्वसनीय फिल्म को बचा नहीं पाई। हमारा सामूहिक अवचेतन चमत्कार और कौतुक के प्रति सदैव ही लालायित रहा है। आज से सिद्धार्थ तिवारी के 'महाभारत' का प्रसारण हो रहा है। वेदव्यास की कथा को कुछ लोग उस कालखंड का इतिहास भी मानते हैं। वर्तमान में एकता कपूर का 'जोधा अकबर' तथा 'महाराणा प्रताप' भी दिखाए जा रहे हैं। छोटे परदे पर धार्मिक सीरियलों के साथ विगत 66 वर्षों का राजनीतिक इतिहास भी परोसा जा रहा है। धर्म क्षेत्र और राजनीतिक कुरुक्षेत्र के संकेत मनोरंजन जगत में प्रस्तुत किए जा रहे हैं, शेखर कपूर के 'प्रधानमंत्री' में इंदिरा गांधी की भूमिका में नवनी परिहार ने अत्यंत विश्वसनीय भूमिका का निर्वाह किया है। इस सबके साथ ही शेखर सुमन 'मेरा नाम जोकर' में कुछ फिल्म कलाकारों के जीवन और काम की झलक दिखा रहे हैं। सभी क्षेत्रों में आधी हकीकत और आधे फसाने का खेल चल रहा है। मनोरंजन जगत तो हमेशा ही आधी हकीकत आधा फसाना रहा है, परंतु इस समय राजनीति में भी हकीकत और अफसाने गलबहियां करते नजर आ रहे हैं। यह कालखंड लेनी रोजन्था के 1936 और 1940 के बीच के वृत्तचित्रों की याद ताजा करते हैं।
आधुनिकता हो, वैदिककाल हो अथवा मध्यकाल हो कल्पना के रेशे यथार्थ के रेशों से अधिक होते हैं। यहां तक कि प्रचारित इतिहास भी कल्पना से अछूता नहीं होता और आज की कल्पना कल का यथार्थ हो जाती है। बायोपिक फिल्मों के लिए शोध भी किया जाता है, परंतु जानकर लोकप्रियता की खातिर कल्पना का इस्तेमाल किया जाता है, मसलन राकेश ओमप्रकाश मेहरा और प्रसून जोशी की महान कोशिश 'भाग मिल्खा भाग' में भी क्लाइमैक्स को रोचक बनाने के लिए पाकिस्तान के एक धावक को मिल्खा सिंह की टक्कर का बताया गया है, जबकि उस समय पाकिस्तान में कोई भी धावक मिल्खा के आसपास की क्षमता का भी नहीं था। मनोरंजन जगत का शाश्वत नियम है कि नायक को लार्जर दैन लाइफ बताने के लिए खलनायक को शक्तिशाली गढ़ा जाता है। फिल्म 'शोले' में अगर गब्बर इतना मजबूत और निर्मम नहीं होता तो वीरू और जय का पराक्रम सामने ही नहीं आता।
सारा खेल मनोरंजन हो या राजनीति, छवियां रचने और 'छवियों' के प्रचार तथा उनके बेचने का है, जिसे बाजार की ताकत विज्ञापन के माध्यम से संभव करती है। हम सभी खरीदार हैं, परंतु कुछ विरले लोग बाजार से गुजरते हैं, परंतु खरीदार नहीं होते।