मन्देलश्ताम का जीवन / अनिल जनविजय
दोस्तो, आपने रूस के लेनिनग्राद यानी पितेरबुर्ग नगर की सफ़ेद रातों के बारे में अवश्य पढ़ा या सुना होगा। जिन्हें रूसी साहित्य से लगाव है, उन्होंने फ़्योदर दस्तायेवस्की की उपन्यासिका ’सफ़ेद रातें’ भी पढ़ी होगी। भारत में हम लोग इस बात पर केवल अचरज ही कर सकते हैं कि रूस के पितेरबुर्ग नगर में वर्ष भर में क़रीब एक माह का समय ऐसा होता है जब दिन कभी नहीं छिपता। सूरज कुछ समय के लिए डूबता ज़रूर है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। दिन का इतना प्रकाश गगन में छाया रहता है कि आप आराम से खुले आकाश के नीचे कहीं भी बैठकर पुस्तक पढ़ सकते हैं। पितेरबुर्ग में ये रातें अद्भुत्त होती हैं। दुनिया भर से लोग इन ’सफ़ेद रातों’ को देखने के लिए जून माह में पितेरबुर्ग आते हैं। कवियों-लेखकों व कलावन्तों के लिए भी ये दिन रचनात्मक सक्रियता के, आन्तरिक उत्साह और ऊर्जा के, दुस्साहस के तथा जोश और जोख़िम उठाकर अपने सम्वेदी मन को पुख़्ता बनाने के दिन होते हैं। 1921 में वे सफ़ेद रातों के ही दिन थे, जब साहित्यकारों के बीच यह अफ़वाह फैल गई कि कवि ओसिप मन्देलश्ताम अचानक न जाने कहाँ ग़ायब हो गए।
मन्देलश्ताम जैसा चपल, चुलबुला और मिलनसार व्यक्ति, जो दिन-भर यहाँ से वहाँ भाग-दौड़ करता रहता था और पूरे पितेरबुर्ग में लोग उसे ख़ूब अच्छी तरह जानते-पहचानते थे, एक शाम अचानक ही दिखना बन्द हो गया। उन दिनों मन्देलश्ताम अक्सर सुबह-सवेरे अपना चुरुट दाँतों में दबाए क़िताबों की किसी दुकान पर खड़े दिखाई दे जाते थे। तब वे अपने साथ खड़े लोगों पर अपने चुरुट की राख उड़ाते हुए हाल ही में प्रकाशित किसी नए कविता-संग्रह पर बहस कर रहे होते। इसके क़रीब डेढ़-दो घण्टे बाद वे किसी पत्रिका के सम्पादकीय कार्यालय में लेखकों के बीच बैठे अपना सिर ऊपर को उठाए अपनी कविताएँ सुनाते नज़र आते। दोपहर में वे सरकारी कैण्टीन में लेखकों के साथ बैठे वह दलिया खा रहे होते, जो 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद के उन अकालग्रस्त वर्षों में नई मज़दूर सरकार द्वारा लेखकों को विशेष रूप से जारी कूपनों के बदले ही मिलता था। दोपहर के बाद मन्देलश्ताम कभी लाइब्रेरी में बैठे नज़र आते, कभी विश्वविद्यालय में कोई लैक्चर सुनते हुए तो कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी में भाग लेते हुए। उनकी शामें अक्सर कॉफ़ी हाउस में बीता करतीं, जहाँ वे अपने हम-उम्र युवा लेखकों से घिरे साहित्य-सम्बन्धी नई से नई योजनाएँ बनाया करते।
और अचानक ही पूरे शहर में मन्देलश्ताम दिखाई देने बन्द हो गए। एक दिन गुज़र गया, फिर दूसरा दिन, फिर तीसरा...फिर एक हफ़्ता, दूसरा हफ़्ता...। और फिर लेखकों के बीच अचानक यह ख़बर फैली कि मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया है।
ओसिप मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया? यह एक ऐसी बेहूदी और बेतुकी ख़बर थी, जिस पर किसी को भी तुरन्त विश्वास नहीं हुआ। आन्ना अख़्मातवा अपने संस्मरणों में लिखती हैं -- ’उस समय कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि मन्देलश्ताम जैसा आदमी शादी भी कर सकता है...’
कियेव की बीस वर्षीया चित्रकार नाद्या हाज़िना और कवि ओसिप मन्देलश्ताम की मुलाक़ात 1919 में यानी उनके विवाह से क़रीब डेढ़-पौने दो वर्ष पहले कियेव नगर की सबसे बड़ी सराय के तहख़ाने में बने उस रात्रि-क्लब में हुई थी, जहाँ तब कियेव के लेखक-कलाकार इकट्ठे हुआ करते थे। इस क्लब का नाम था — ’काठ-कबाड़’। बाहर से कियेव आने वाला हर लेखक-कलाकार ’काठ-कबाड़’ में ज़रूर आता था। कियेव की हर हस्ती से वहाँ मुलाक़ात हो जाती थी।
1919 की उन गर्मियों में एक दिन ओसिप मन्देलश्ताम ख़ारकफ़ से कियेव पहुँचे तो सराय के प्रबन्धक ने उनके लिए सराय का सबसे शानदार कमरा खुलवा दिया। मन्देलश्ताम ख़ुद दंग हो रहे थे कि उन्हें ठहरने के लिए इतना अच्छा कमरा दे दिया गया है। शायद सराय के मैनेजर ने उन्हें कोई और व्यक्ति समझ लिया था। ख़ैर...। शाम को ’काठ-कबाड़’ क्लब के हॉल में घुसते ही मन्देलश्ताम की नज़र सबसे पहले छोटे-छोटे बालों वाली, पतली-दुबली-सी एक बेहद शर्मीली लड़की पर पड़ी जो युवक-युवतियों के एक झुण्ड में चुपचाप बैठी हुई थी और बस कभी-कभी किसी बात पर मुस्कराने लगती थी। मन्देलश्ताम उस झुण्ड के पास पहुँचे ही थे कि वहाँ बैठे एक नवयुवक ने उन्हें पहचान लिया। अब उस मेज़ पर बैठे सभी लोग उनसे वहीं पर बैठ जाने और नई कविताएँ सुनाने का आग्रह करने लगे। जैसाकि बाद में मन्देलश्ताम ने नाद्या हाज़िना को बताया कि वे उनके साथ वहाँ नहीं बैठना चाहते थे, लेकिन नाद्या के आकर्षण के कारण वे उनके बीच बैठ गए और थोड़ी-सी ना-नुकर के बाद अपनी कविताएँ सुनाने लगे। उनके बारे में अपने संस्मरणों में कवि आन्ना अख़्मातवा लिखती हैं —
"मन्देलश्ताम लोगों को अपनी कविताएँ सुनाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। यहाँ तक कि कभी-कभी वे लोगों के अनुरोध पर सड़क पर खड़े-खड़े ही अपनी कविताओं का पाठ शुरू कर देते। कविता-पाठ करते हुए वे कविता में इतना डूब जाते कि अपने आसपास के वातावरण तक को भूल जाते और अधमुन्दी आँखों से स्वयं अपने कविता-पाठ का आनन्द उठाते हुए देर तक कविताएँ पढ़ते रहते।"
उस दिन उस मेज़ पर मन्देलश्ताम की कविताओं ने नाद्या हाज़िना को जैसा मोहित कर लिया था। वह उनसे इतना प्रभावित हुई कि मन्देलश्ताम के आग्रह पर वह उनके उस शानदार कमरे में भी चली गई जो उन्हें ग़लती से दे दिया गया था। मन्देलश्ताम ने जैसे अपनी कविताओं के वशीकरण से उसे बाँध लिया था। बाद में अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा — "तब कौन सोच सकता था कि हम सारी ज़िन्दगी के लिए एक-दूसरे के हो जाएँगे?... हाँलाकि शायद ओसिप जानबूझकर मुझे उस झुण्ड से उठाकर अपने साथ ले गए थे क्योंकि वे किसी के भी साथ होने वाली पहली मुलाक़ात में ही यह अन्दाज़ लगा लेते थे कि इस व्यक्ति की उनके जीवन में आगे क्या भूमिका होने वाली है...।"
लेकिन नाद्या मन्देलश्ताम की तरह दूरदर्शी नहीं थी। तब वह नहीं जानती थी कि उसे आख़िरकार मन्देलश्ताम की पत्नी बनना है। अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा है — "पहले दिन ही हम दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। लेकिन मुझे लग रहा था कि हमारी यह दोस्ती दो हफ़्ते से ज़्यादा चलने वाली नहीं। मैं बस इतना चाहती थी कि जब हम एक-दूसरे से अलग हों तो मैं बहुत अधिक भावुक न हो जाऊँ और अपने भावावेगों के कारण मुझे बेहद पीड़ा और कष्ट न उठाने पड़ें।"
परन्तु बाद में जो स्थिति बनी, वह नाद्या की इस इच्छा के एकदम विपरीत थी। नाद्या को मन्देलश्ताम के साथ सारा जीवन न केवल कष्ट झेलने पड़े, बल्कि भारी पीड़ा भी उठानी पड़ी। यह अलग बात है कि उन्हें यह कष्ट मन्देलश्ताम के साथ अपने प्रेम-सम्बन्ध और भावुकता के कारण नहीं, बल्कि जीवन की उन वास्तविक परिस्थितियों के कारण झेलने पड़े, जिनसे उस समय का सारा रूसी समाज और जनजीवन ही भयानक रूप से प्रभावित रहा। लेकिन यह सब बाद की बात है। उस समय तो नाद्या को सब कुछ बेहद रोमाण्टिक और आकर्षक लग रहा था। नाद्या के लिए वे दिन सुखद प्रेम के दिन थे और वह उस सुख में पूरी तरह से डूबी हुई थी। उन दिनों की अपनी मनःस्थिति का ज़िक्र करते हुए बाद में नाद्या हाज़िना ने लिखा — "मैं तब तक इतनी उजड्ड थी कि मैं यह समझती ही नहीं थी कि पति और प्रेमी में क्या फ़र्क होता है। हम लोगों ने एक-दूसरे से वफ़ादारी बरतने का भी कोई वायदा नहीं किया। हम किसी भी क्षण अपना यह सम्बन्ध तोड़ने के लिए तैयार थे क्योंकि हमारे लिए हमारा यह संयोग महज एक इत्तफ़ाक के अलावा और कुछ नहीं था।"
लेकिन फिर भी उन दोनों ने खेल-खेल में विवाहनुमा एक रस्म तो की ही थी। मिख़ाइलफ़ मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया। मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था — लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कंघी, जिस पर लिखा हुआ था — ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने इस तथाकथित विवाह की सुहागरात मनाई।
उजड्ड नाद्या को यह सब एक खेल ही लग रहा था और वह बड़े मज़े के साथ सहज ही इस खेल में हिस्सा ले रही थी। वे किसी धार्मिक त्यौहार के दिन थे। कुपेचिस्की बाग़ में मेला लगा हुआ था जो दिन-रात जारी रहता था। सब त्यौहार की मस्ती में डूबे हुए थे और इस तरह के खेलों को कोई भी उन दिनों गम्भीरता से नहीं लेता था। घूमते-घुमाते मन्देलश्ताम नाद्या को कुपेचिस्की बग़ीचे से उस प्रसिद्ध व्लदीमिर पहाड़ी पर ले गए, जिसके लिए जनता के बीच आज भी यह मान्यता बनी हुई है कि यदि स्त्री-पुरुष का जोड़ा यहाँ आता है, तो वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं। पहाड़ी पर पहुँचकर मन्देलश्ताम ने नाद्या को बताया कि उनका यह सम्बन्ध कोई आकस्मिक संयोग नहीं है बल्कि उन्हें नाद्या से बहुत गहरा प्रेम हो गया है और वे उसे स्थाई रूप देने का निर्णय ले चुके हैं।
इसके उत्तर में नाद्या खिलखिलाने लगी। वह मन्देलश्ताम के साथ अपने इस प्रेम-सम्बन्ध को अस्थाई माने हुए थी। तब भी, जब मन्देलश्ताम को कुछ ही दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद सराय के उस शानदार कमरे से निकाल दिया गया और वे अपना सामान उठाकर उसके घर पर रहने के लिए पहुँच गए। तब भी, जब दोनों एक साथ मास्को की यात्रा पर रवाना हुए और फिर वहाँ से जार्जिया पहुँच गए। इस बीच जब कभी कोई किसी को नाद्या का परिचय ’मन्देलश्ताम की पत्नी’ के रूप में देता तो वह बुरी तरह से नाराज़ हो जाती — "तुम्हें इससे क्या लेना-देना है कि मैं किसके साथ रहती-सोती हूँ, यह मेरा अपना निजी मामला है... तुम मुझे उसकी पत्नी क्यों कहते हो?" नाद्या को तब भी यह लगता था कि उनका यह सम्बन्ध अस्थाई है। 1919 के अन्त में दोनों अलग हो गए। वे क्रान्ति के तुरन्त बाद रूस में शुरू हुए गृह-युद्ध के दिन थे। लोगों के पास न कोई काम-धन्धा था, न नौकरी। जीवन रोज़ नए रंग दिखाता था और लोगों को एक जगह से दूसरी जगह खदेड़ देता था। क्रान्ति-समर्थक लाल सेना और क्रान्ति-विरोधी श्वेत सेना के बीच भारी लड़ाई जारी थी। शहरों, गाँवों, बस्तियों पर कभी क्रान्ति-समर्थकों का अधिकार हो जाता तो कभी क्रान्ति-विरोधियों का। लोग मिलते थे, लोग बिछुड़ जाते थे। उन्हें आदत पड़ गई थी कि अन्ततः अलग होना ही है। नाद्या ने भी यह सोच लिया था कि अब ओसिप मन्देलश्ताम से उसकी मुलाक़ात शायद ही होगी।
लेकिन क़रीब डेढ़ वर्ष के बाद मन्देलश्ताम फिर से कियेव में दिखाई दिए। यही वह समय था जब पितेरबुर्ग में लोगों के बीच मन्देलश्ताम के अचानक रहस्यात्मक रूप से ग़ायब होने की चर्चा शुरू हो गई थी। तब तक नाद्या का परिवार अपने पुराने घर को छोड़कर नए घर में शिफ़्ट हो चुका था। तब नई क्रान्तिकारी मज़दूर सरकार किसी से कभी भी उसका घर ख़ाली करा लेती थी और उसे उससे बड़े या छोटे घर में शिफ़्ट कर देती थी। अमीरों से उनके घर छीनकर ग़रीबों और बेघरबार लोगों के बीच बाँटे जा रहे थे। डेढ़ वर्ष के इस छोटे से काल में दो बार ऐसा हुआ कि हाज़िन परिवार से उनका फ़्लैट लेकर उन्हें पहले से छोटा फ़्लैट दिया गया। तीसरे नए फ़्लैट में हाज़िन परिवार अभी पहुँचा ही था, अभी उन्होंने अपना सामान खोला भी नहीं था कि उनका फ़्लैट देखने के लिए फिर से नई सरकार का कोई अफ़सर वहाँ पहुँच गया और उसने उन्हें बताया कि उन्हें यह फ़्लैट भी ख़ाली करना पड़ेगा। वह अफ़सर अपने साथ फ़्लैट की सफ़ाई करवाने के लिए मज़दूरों को भी लाया था। हाज़िन परिवार बड़े ऊहापोह की स्थिति में था। क्या करें और क्या नहीं। उसी समय मन्देलश्ताम उनके इस नए फ़्लैट में नमूदार हुए।
नाद्या उन्हें वहाँ देखकर दंग रह गई। लेकिन मन्देलश्ताम वहाँ उपस्थित मज़दूरों, वहाँ फैले सामान और परिवार के बीच अफ़रा-तफ़री की हालत देखकर भी वैसे ही सहज बने रहे। और थोड़ी ही देर बाद मन्देलश्ताम वहाँ सबको अपनी कविताएँ सुना रहे थे। अचानक उन्होंने कविता पढ़ना बन्द कर दिया और अपने सुनहरी दाँत चमकाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे और फिर नाद्या से बोले — "अबकी बार मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।" इसके तीन सप्ताह बाद ही वे दोनों मास्को के लिए रवाना हो गए। फ़रवरी 1922 में उन दोनों ने पितेरबुर्ग में अधिकृत रूप से विवाह कर लिया। और फिर एक-दूसरे से वे कभी नहीं बिछुड़े। ’फिर कभी नहीं बिछुड़े’ से हमारा तात्पर्य है कि वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे के हो गए। बिछुड़ना तो उन्हें कई बार पड़ा। पहली बार तब जब नाद्या को अस्थमा हो गया। मन्देलश्ताम ने ज़बरदस्ती नाद्या को कुछ महीनों के इलाज के लिए याल्ता सेनेटोरियम में भेज दिया। लेकिन वह उन दोनों का शारीरिक बिछोह था। मन से, आत्मा से दोनों एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। मन्देलश्ताम हर रोज़ नाद्या को एक पत्र लिखते। नाद्या भी उनके हर ख़त का जवाब ज़रूर देती। अब वे सभी पत्र प्रकाशित हो चुके है। उन्हें पढ़कर पता लगता है कि उनके बीच कितना गहरा लगाव और आत्मीयता थी, उनका पारिवारिक जीवन कितना सफल था। लेकिन फिर भी नाद्या ने अपने संस्मरणों में लिखा है — "पत्नी की भूमिका मेरे लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती थी। समय भी ऐसा नहीं था कि मैं सही अर्थों में उनकी पत्नी बन पाती। पत्नी तब होती है, जब घर हो, घरबार हो, बच्चे हों, आय का कोई स्थाई साधन हो... और हमारे जीवन में यह सब कुछ कभी नहीं रहा... अपना घर तो हमें कभी मिला ही नहीं रहने के लिए। हमारे क़दमों के नीचे धरती हमेशा डोलती रहती थी।"
और इसका कारण उन पर लगातार गिरने वाली राजनीतिक विपत्तियों की गाज़ ही नहीं थी बल्कि पारस्परिक दाम्पत्य-सम्बन्धों में लगातार बना रहने वाला उलझाव भी था। नाद्या के लिए ’विवाह’ एक ऐसा बेकार शब्द था, जिसका वह जीवन में कोई महत्त्व नहीं समझती थी, लेकिन मन्देलश्ताम के लिए नाद्या के साथ यह सम्बन्ध जैसे उनके जीवन का मुख्य-आधार था। नाद्या हाज़िना ने अपने संस्मरणों में लिखा है — "सच-सच कहूँ तो वे जैसे मुझे अपनी काँटेदार हथेलियों के बीच बन्द करके रखते थे। मैं मन ही मन उनसे बेहद डरती थी, लेकिन ऊपर से सहज दिखाई देती थी और बराबर इस कोशिश में लगी रहती थी कि किसी तरह इन भयानक हथेलियों के बीच से फिसल कर बाहर निकल सकूँ, हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम कुछ देर के लिए ही सही।"
और कभी-कभी नाद्या अपने इस उद्देश्य की पूर्त्ति में सफल हो भी जाती थी। एक बार वह मन्देलश्ताम के पिंजरे से ऐसे उड़ी कि ख़ुद मन्देलश्ताम भी दंग हो गए। दो सीटों वाले हवाई जहाज़ के एक पायलट ने नाद्या को आकाश में उड़ने का निमन्त्रण दिया। उन दिनों हवाई जहाज़ों की उड़ान ऐसी आम नहीं थी, जैसी कि आज है। वायुयान का आविष्कार हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। नाद्या ने पायलट का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उसके साथ उसके हवाई जहाज़ में उड़ चली। लेकिन पायलट ने कुछ देर की उड़ान के बाद, आकाश में अपनी उड़ान के कुछ साहसी करतब उसे दिखाने के बाद अपने यान को वापिस नीचे उतार लिया और बड़ी शिष्टता से नाद्या के लिए यान से बाहर निकलने का दरवाज़ा खोल दिया।
निश्चय ही नाद्या की इस बहादुरी के लिए मन्देलश्ताम ने उसे मालाओं से नहीं लाद दिया। मदेलश्ताम से उसे भयानक डाँट-फटकार सुननी पड़ी। क्यों गई थी वहाँ? क्या ज़रूरत थी ख़तरा उठाने की? कोई दुर्घटना हो जाती तो? मदेलश्ताम किसी भी तरह यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनकी पत्नी, जो उनके अपने ’स्व’ का ही एक हिस्सा है, के जीवन-मूल्य उनके अपने जीवन-मूल्यों से अलग कैसे हो सकते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि नाद्या कोई भी बात मन्देलश्ताम से अलग सोचे? ऐसा कैसे हो सकता है कि जब वे उसे अभी-अभी लिखी गई या सिर्फ़ सोची गई कोई कविता पढ़कर सुनाएँ तो वह उसे याद न रह जाए? उनका ख़याल था कि उनके मन की बात उसके दिमाग़ में भी ज्यों की त्यों उतर जानी चाहिए। नाद्या लिखती है — "मन्देलश्ताम हमेशा इस बात को लेकर दुखी रहते कि मुझे उनकी कविताएँ याद क्यों नहीं रह जातीं। कभी वे अपनी कोई कविता सुनाते, मैं उसे ज्यों का त्यों लिख लेती। और जब बाद में उन्हें उनकी वे कविता-पँक्तियाँ पढ़कर सुनाती तो उन्हें वे पसन्द नहीं आतीं तो वे यह नहीं समझ पाते थे कि मैंने क्यों यह सब बकवास लिख डाली है। पर जब कभी-कभी मैं उनकी मिज़ाजपुर्सी करते-करते बेहद तंग आ जाती और उनकी कही हुई बातें लिखना नहीं चाहती तो वे बड़े अधिकार से मुझसे कहते — ’अरे, तुम यह क्या कर रही हो। यहाँ आओ, मेरे पास बैठो। और जो कुछ भी मैं बोल रहा हूँ, चुपचाप लिखती जाओ।’ "
लेकिन मन्देलश्ताम का एक दूसरा रूप भी था। एक बार गर्मियों के दिनों में जब मन्देलश्ताम नाद्या के साथ जार्जिया के बातूमी नगर में किसी के यहाँ रुके हुए थे तो भयानक गर्मी की वजह से उन दोनों को रात में खुली छत पर सोना पड़ गया। छत पर मच्छर बहुत थे। रात को अचानक नाद्या की आँख खुली तो उसने देखा की मन्देलश्ताम — "वहाँ पलंग के पास ही कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनके हाथ में एक अख़बार था" जिससे वे पंखा-सा बनाकर नाद्या के ऊपर हवा कर रहे थे और मच्छरों को उड़ा रहे थे। नाद्या लिखती है — "एक-दूसरे के साथ हम दोनों का जीवन कितना सुखद था। पता नहीं क्यों, दुनिया वालों ने हमें एक साथ वह जीवन जीने नहीं दिया?"
नाद्या ने मन्देलश्ताम के साथ अपने जीवन के संस्मरणों की मोटी-मोटी तीन किताबें लिखी हैं, जिनमें उसने विस्तार से तत्कालीन सोवियत समाज का चित्रण किया है कि कौन लोग उन दिनों सुखपूर्वक सहज जीवन बिता रहे थे, कौन लोग किसी तरह जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे और वे कौन लोग थे जो लोगों का जीवन जीना दूभर बना रहे थे।
किसी भी अन्य सच्चे कवि की तरह मन्देलश्ताम कभी घुन्ने नहीं हो सकते थे। स्तालिन-विरोधी जो कविताएँ उन्होंने लिख ली थीं, अगर वे उन्हें छिपाए रहते या अपना नाम गुप्त रखकर जनता के बीच फैला देते तो उन्हें वे कष्ट नहीं झेलने पड़ते जो सत्ता ने उन्हें दिए। लेकिन मन्देलश्ताम तो उन दिनों सबको अपनी वे स्तालिन-विरोधी कविताएँ ही सुनाते नज़र आते। जब मई 1934 में उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया तब भी उन्होंने अपनी कविताओं से किनारा नहीं किया और एकदम यह बात मान ली कि वे कविताएँ उन्हीं की लिखी हुई हैं। बाद में पुलिस-हिरासत में ही उन्होंने अपनी कलाई की नस काट कर आत्महत्या करने की कोशिश की। पर मन्देलश्ताम को बचा लिया गया और तीन वर्ष के लिए मास्को से साइबेरियाई नगर चेरदिन के लिए निर्वासित कर दिया गया। लेकिन आन्ना अख़्मातवा और पस्तेरनाक जैसे कवियों तथा बुख़ारिन जैसे राजनेता ने जब मन्देलश्ताम की पैरवी की और गारण्टी दी तो उनकी सज़ा कम करके उनका निर्वासन वरोनिझ नगर के लिए कर दिया गया जो चेरदिन के मुक़ाबले कहीं बेहतर शहर माना जाता था। नाद्या को निर्वासन की सज़ा नहीं दी गई थी। नाद्या चाहती तो मास्को में ही रह सकती थी। लेकिन नाद्या ने भी अपने पति ओसिप मन्देलश्ताम के साथ स्वैच्छिक-निर्वासन की राह चुनी। शायद नाद्या द्वारा की गई सेवा-सुश्रुषा के कारण ही उस वर्ष मन्देलश्ताम की जान बच गई और उनका जीवन कुछ और लम्बा हो गया। स्तालिन की सरकार द्वारा बुरी तरह से तिरस्कृत और प्रताड़ित किए जा रहे महाकवि मन्देलश्ताम ने अप्रैल 1936 में वरोनिझ से महाकवि पस्तेरनाक को लिखे एक पत्र में सूचित किया — "मैं वास्तव में बहुत बीमार चल रहा हूँ। मेरे बचने की आशा कम ही है। अब शायद ही कोई ताक़त मुझे बचा पाए। पिछले दिसम्बर से ही मेरी हालत लगातार ख़राब होती जा रही है। अब तो कमरे से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है। मैं यह जो अपना नया जीवन आज थोड़ा-बहुत जी पा रहा हूँ, इसका सारा श्रेय मेरी जीवन-संगिनी को जाता है। वह नहीं होती तो मैं न जाने कब का ख़ुदा को प्यारा हो चुका होता।"
1937 में सज़ा पूरी होने के बाद मन्देलश्ताम दम्पत्ति मास्को वापिस लौट आए। लेकिन कुछ समय बाद ही 2 मई 1938 को मन्देलश्ताम को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। मन्देलश्ताम दम्पत्ति इस दिन हमेशा अपने विवाह की वर्षगाँठ मनाते थे। लेकिन तब मन्देलश्ताम की हालत बहुत ख़राब थी और वे मास्को के निकट स्थित समातीख़ा सेनेटोरियम में इलाज के लिए भरती हुए थे। सेनेटोरियम में उस दिन सवेरे उन्हें लाइब्रेरी के निकट वाले कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया। थोड़ी देर बाद दो फ़ौजी अधिकारी उस कमरे में आए। उन्होंने मन्देलश्ताम को उनकी गिरफ़्तारी का वारण्ट दिखाया और अपने साथ चलने के लिए कहा। मन्देलश्ताम के पास एक छोटी-सी अटैची थी, जिसमें उनकी कुछ पुस्तकें, डायरियाँ और कुछ अन्य छोटा-मोटा निजी सामान था। यह सारा सामान फ़ौजी अफ़सरों ने अटैची से निकालकर एक काले से थैले में डाल दिया। नाद्या भी उनके साथ जाना चाहती थी। परन्तु फ़ौजियों ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। दो अगस्त को उन्हें फिर से क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पाँच वर्ष की सज़ा सुना दी गई और साइबेरिया के यातना-शिविर में भेज दिया गया।
मन्देलश्ताम के जीवन के अन्तिम दिनों के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों के बहुत से संस्मरण और कथाएँ सुनने में आती हैं। इन संस्मरणों के अनुसार मन्देलश्ताम अपने अन्तिम दिनों में अर्ध-विक्षिप्त से हो गए थे — "फटे हुए कपड़े पहने छोटे क़द का वह पाग़ल अपने कोटे की तम्बाकू के बदले यातना-शिविर के अन्य क़ैदियों से चीनी लेने की कोशिश करता था और जब उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं होता था तो वह उन्हें चीनी के बदले अपनी कविताएँ सुनाने लगता था। कभी-कभी वह किसी क़ैदी की रोटी चुराकर खा लेता, जिस पर उसकी बुरी तरह से पिटाई होती। लेकिन वह पाग़ल अपने कोटे की रोटी कभी नहीं खाता था क्योंकि वह डरता था कि उसमें ज़हर मिला हुआ है।"
यातना-शिविर में हुई उनकी मृत्यु के बारे में भी बहुत-से क़िस्से सुनने में आते हैं। लेकिन लेखक वरलाम शलामफ़ ने, जो मन्देलश्ताम के साथ ही उस यातना-शिविर में बन्द थे, मन्देलश्ताम के देहान्त की कथा अपनी कहानी ’चेरी की ब्राण्डी’ (मन्देलश्ताम की एक कविता का शीर्षक है यह) में लिखी है। ’कवि मर रहा था’ — इन शब्दों से यह कहानी शुरू होती है —
"कवि मर रहा था। भूख और ठण्ड के कारण उसकी हथेलियाँ और कलाइयाँ सूज कर ख़ूब मोटी हो गई थीं। रक्तविहीन सफ़ेद उँगलियों और गन्दगी के कारण काले पड़ चुके लम्बे-लम्बे नाख़ूनों वाले उसके हाथ उसकी छाती पर पड़े हुए थे। वह उन्हें ठण्ड से बचाने की कोई कोशिश नहीं कर रहा था। जबकि पहले वह उन्हें अपनी दोनों बगलों में दबा लेता था। लेकिन अब उसके नंगे शरीर में इतनी गरमी ही बाक़ी नहीं रह गई थी कि वह उसके हाथों को गरमा सके।"
नाद्या भी बिना यह जाने ही कि किस दिन उसके पति ने आँखें मूँदीं, दूसरी दुनिया में चली गई। उनकी मृत्यु के बहुत दिनों बाद सोवियत सरकार ने वे गुप्त दस्तावेज़ आम जानकारी के लिए खोले, जिनसे यह पता लगता था कि मन्देलश्ताम की मृत्यु 27 दिसम्बर 1938 को हुई। मन्देलश्ताम की मृत्यु से क़रीब दो माह पहले ही यह सोचकर कि शायद वह मन्देलश्ताम से पहले ही मर जाएगी, नाद्या ने मन्देलश्ताम के नाम अपना अन्तिम पत्र लिखा था — "ओस्या, मेरे प्रियतम, मेरे दोस्त, मेरे जीवन, इस पत्र में तुमसे कुछ कहने के लिए मेरे पास अब शब्द ही नहीं बचे हैं। हो सकता है कि तुम यह पत्र कभी नहीं पढ़ पाओ। मैं यह पत्र जैसे अन्तरिक्ष में लिख रही हूँ। हो सकता है, तुम लौट आओ, लेकिन मैं तब तक शेष नहीं रहूँगी। तब यह तुम्हारे लिए मेरा अन्तिम स्मृति-चिह्न होगा।"
अन्तरिक्ष में भेजे जाने के लिए लिखा गया यह पत्र विश्व पत्र-साहित्य सम्पदा का एक सबसे मर्मभेदी पत्र है — "मेरा हर विचार तुम्हारे बारे में है। मेरा हर आँसू, मेरी हर मुस्कान तुम्हें ही समर्पित। मेरे दोस्त, मेरे हमदम, मेरे रहबर, मैं अपने कड़वे जीवन के हर दिन, उसके हर घण्टे को असीस देती हूँ..." इसके बाद अपने पत्र में नाद्या ने अपने एक सपने का ज़िक्र किया है कि कैसे वह किसी छोटे से शहर के होटल की कैण्टीन में खड़ी है। उसने मन्देलश्ताम के लिए खाने-पीने का सामान ख़रीदा है। लेकिन यह सामान लेकर उसे कहाँ जाना है, वह यह नहीं समझ पा रही है। जब अचानक उसकी आँख खुलती है तो वह पाती है कि उसका सारा माथा ठण्डे पसीने से तर है। नाद्या ने अपने पत्र में आगे लिखा है — " ...मैं यह नहीं जानती कि तुम जीवित भी हो या नहीं। तुम्हारा अता-पता मैं खो चुकी हूँ। तुम्हारे साथ मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि तुम कहाँ हो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं। तुम यह कभी जान भी पाओगे या नहीं कि मैं तुम्हें अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक बेहद-बेहद प्यार करती रही हूँ। मैं उस दिन तुम्हें विदा करते हुए यह बात न कह पाई।
आज भी किसी और व्यक्ति के सामने मैं यह बात नहीं कह रही, सिर्फ़ तुम्हें बता रही हूँ कि मैं तुम्हें, केवल तुम्हें बहुत-बहुत प्रेम करती हूँ... तुम हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे मन में, मेरे हृदय की गहराइयों में और मैं जंगली व उजड्ड तुम्हारे सामने कभी रो तक न पाई... आज रो रही हूँ, सिर्फ़ रो ही रही हूँ, और तुम्हें याद कर रही हूँ.." और पत्र के अन्त में नाद्या ने लिखा था — "यह मैं हूँ — तुम्हारी नाद्या। तुम कहाँ हो?"
इस सवाल का उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है। व्लदीवस्तोक के उस यातना-शिविर में उन वर्षों में मारे गए बन्दियों की तीन विशाल सामूहिक-क़ब्रें पाई गई हैं, लेकिन उन तीनों में से किस सामूहिक-क़ब्र में मन्देलश्ताम को दफ़्न किया गया था, यह पूरी तरह से अज्ञात है। उन दिनों क़ैदियों को सामूहिक-क़ब्र में फेंकते हुए उनके पैर में एक टैग बाँध दिया जाता था, जिस पर हर क़ैदी का नाम लिखा होता था। वे टैग कब के गलकर मिट्टी में मिल चुके हैं।
लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी आत्मा अभी भी इस धरती पर भटक रही है। रूसी आर्थोडॉक्स ईसाई धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जब तक मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करके मृतक व्यक्ति के शरीर को उसके प्रिय व्यक्ति के निकट नहीं दफ़नाया जाता, तब तक उसकी आत्मा हमारी इस दुनिया में भटकती रहती है। और मन्देलश्ताम की आत्मा को 1980 में उनकी प्रिया नाद्या ने शरण दी और अब वे दोनों बलूत की लकड़ी के एक साधारण से सलीब के नीचे मास्को के स्तारो-कून्त्सेव्स्की क़ब्रिस्तान में चैन की नींद सो रहे हैं। उनकी उस क़ब्र पर एक छोटा-सा पत्थर रखा हुआ है, जिस पर लिखा है — ’कवि ओसिप ऐमिल्येविच मन्देलश्ताम की पावन स्मृति को समर्पित’।