मन्नन राय गजब आदमी हैं / विमल चंद्र पांडेय

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नाम - मन्नन राय

कद - छह फीट एक इंच

वजन - सौ किलो के आस-पास

आयु - पचपन साल के ऊपर

रंग - गेंहुँआ

स्वभाव - शांत व विनोदप्रिय

ये किसी भगोड़े अपराधी का हुलिया नहीं है बल्कि एक गुमशुदा की सूचना है। यह पांडेयपुर के मन्नन राय का परिचय है जिन पर कहानी लिखना भारी अपराध है क्योंकि ये उपन्यास के पात्र थे। फिर भी यह कहानी, यदि इसे कहानी मानें, तो लिखी जा रही है। वास्तव में यह कोई कहानी नहीं, एक समस्या का कहानीकरण है जो कि लेखक मन्नन राय का प्रशंसक होने के नाते कर रहा है। जब लेखक बहुत छोटा था तब भी यह कहानी दुनियावी भँवर में पूरी रौ में बहती जा रही थी भले लेखक उससे अनभिज्ञ था। तो इस समस्या को कहानी का जामा पहनाने के लिए लेखक ने अपने अवचेतन के साथ-साथ बड़े-बुजुर्गों से भी राय मशवरा किया है और भरसक तथ्य जुटाने की कोशिश की है। हो सकता है ब्यौरेवार तफसील से कहानी रिपोर्ताज लगने लगे या फिर संस्मरण का बाना पहने ले। पर लेखक का ध्यान और चिंता इसे लेकर नहीं है क्योंकि उसका ध्यान सिर्फ समस्या की गंभीरता की तरफ है।

पूरे बनारस को पांडेयपुर हिलाए रखता था और पांडेयपुर को मन्नन राय। ये न तो कोई बाहुबली थे न ही पुलिस के आदमी, फिर भी शोहदे उस एरिये से कई-कई दिनों तक नहीं गुजरते थे जिधर किसी दिन वह दिखाई पड़ जाते थे। वह रेलवे के कर्मचारी थे पर उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि यदि सड़क पर झगड़ा हो रहा हो और वह उधर से गुजर जाएँ तो लोग उन्हें पकड़ कर झगड़ा सलटवाने लगते थे। पांडेयपुर के अलावा भी, कभी भी, कोई भी उनकी मदद लेने आ जाय, वह तुरंत उसके साथ जाकर उसकी समस्या का समाधान करते थे। किसी-किसी झगड़े में खुद पड़ जाते और पीड़ित का पक्ष लेकर एक-दो पंक्तियों में ही झगड़ा निबटा देते। झगड़ा फरियाने में उनके एक-दो अतिप्रचलित संवाद सहायक होते -

‘मान जा गुरू, फलाने के परसान मत कराऽऽ।’

‘काहे हाय-हाय मचउले हउवा राजा? खलिए मुट्ठी लेके जइबा ऊपर।’

‘हमें सब सच्चाई मालूम हौऽऽ। छटका मत। समझउले से समझ जा।’

और आश्चर्य की बात, 99.99 प्रतिशत मामले में लोग वाकई समझाने से समझ जाते।

ऐसे साहसी, दबंग और बेफिक्र मन्नन राय अचानक बनारस की धरती को छोड़ कर कहाँ चले गए जिसके बारें में उनका विचार था कि गंगा किनारे मर के कुत्ता भी तर जाता है। उनकी गुमशुदगी पूरे बनारस के लिए चिंता का विषय है। इसके विषय में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले उनके विषय में ठीक से जानना होगा। उनके जीवन के उस मोड़ पर जाना होगा जब वह तड़तड़ जवान थे।

बनारस को उस समय ज्यादातर लोग काशी कहा करते थे। बनारस की गलियाँ उतनी ही पतली थीं जितनी आज हैं पर सड़कें काफी चौड़ी थीं। कदम-कदम पर पान की दुकानें थीं जैसी आज हैं। जगह-जगह लस्सी के ठीये थे। गली-गली में अखाड़े थे जहाँ बच्चे किशोरावस्था से युवावस्था में कदम सेहत बनाते हुए रखते थे। जगह-जगह आज की ही तरह मंदिर थे और बहुत से मंदिरों में वाकई सिर्फ पूजा ही होती थी। विदेशी पर्यटक तब भी बहुत आया करते थे और ‘अतिथि देवो भवः’ की परंपरा के अनुसार उन्हें पलकों पर बिठाया जाता। कुछ नाव वाले और गाइड उनसे पैसे जरूर ठगते पर पर्यटकों की सुरक्षा को लेकर वे भी अपने देश की छवि अच्छी बनाने के लिए चिंतित रहते।

कुछ गुंडे भी हुआ करते थे पर वे अच्छे खासे सेठों को ही लूटते थे और भरसक उन्हें जान से नहीं मारते थे। लड़कियों को पूरा मुहल्ला बहन और बेटी मानता था और कोई ऐसी-वैसी बात सबके लिए बराबर चिंता का विषय होती। लोगों की सुबह जलेबी-दूध के नाश्ते से शुरू होती और रात का खाना खाने के बाद मीठा पान खाने से। बड़े से बड़े धनिक भी रात का खाना खाने के बाद सपरिवार बाहर आकर मीठा पान खाते और टहलते। ऐसे ही माहौल में मनन राय का पटना से काशी आगमन हुआ। उन्हें बनारस इसलिए आना पड़ा क्योंकि यहाँ रेलवे में उनकी नौकरी लग गई थी पर जब एक बार उन्होंने नौकरी और बनारस को पकड़ा तो दोनों ने उलटे उन्हें ऐसा पकड़ लिया कि वह वहीं के होकर रह गए। वह राँड़, साँड़, सीढ़ी और संन्यासी से बचते हुए काशी का सेवन करने लगे और ऐसा रमे कि मित्रों ने चाचा का चच्चा, मामा का मम्मा की परंपरा के अनुसर मनन का मन्नन कर दिया। उनका रंग वहाँ जल्दी ही जम गया। पांडेयपुर का वह कमरा जिसमें वह रहते थे, एक नाटकीय घटनाक्रम में पूरे घर समेत उनके नाम लिख दिया गया।

घर एक पंडित का था जिसके परिवार में सिर्फ वह और उसकी पत्नी ही बचे थे। उसके सब बच्चे बचपन में ही एक-एक करके स्वर्ग सिधार गए थे और पंडित पंडिताइन काफी हद तक विरक्त हो चुके थे। इस विरक्ति पर थोड़ी आसक्ति तब हावी हुई जब पंडित का भतीजा घर अपने नाम लिखवाने के लिए दबाव डालने लगा। पहले उसने चाचा-चाची को प्यार से समझाया। जब वह नहीं माने तो डराने धमकाने पर उतर आया। एक दिन वह अपने साथ तीन-चार मुस्टंडों को लेकर आया और घर के सामान निकाल कर फेंकने लगा। मन्नन राय बहुत दिनों से यह तमाशा देखकर तंग आ चुके थे। वह बाहर निकले और उन सभी को बुरी तरह से पीटने लगे। उनका गुस्सा और आवेग बदमाशों के लालच पर भारी पड़ा और वह मुहल्ले के हीरो बन गए। पंडित-पंडिताइन उसके बाद से उन्हें बेटा मानने लगे और और मरते समय घर उनके नाम लिख गए।

मन्नन राय ने जिस बहादुरी से चारो पाँचों को लथार-लथार कर मारा, वह सबको चकित कर गया था। पूरे मुहल्ले में यही कहा सुना जा रहा था, ‘मन्नन राय गजब आदमी हैं।’ जो उम्र में उनसे छोटे थे, वे बातें कर रहे थे, ‘मन्नन भइया गजब आदमी हैं।’ जो बड़े थे, वे बतिया रहे थे, ‘मन्नन रयवा गजब आदमी है यार।’ इस बात पर पूरा क्षेत्र एकमत हो गया था कि मन्नन राय गजब के हिम्मती और ताकतवर इनसान हैं। वह चलते तो लोग उनकी गरिमापूर्ण चाल को मुग्ध होकर देखते रहते। लोगों ने साफ देखा था कि उनके सिर पर एक आभामंडल दिखाई देता है। बहुत से लोग उनके चेले बन गए जिनमें से कुछ उनकी भक्ति भी करने लगे। वह सुबह सेर भर जलेबी और आधा लीटर दूध का सेवन करके स्टेशन जाते। शाम को मोछू हलवाई के यहाँ पाव भर रबड़ी खाते और फिर सभी मित्रों के साथ अखाड़े में भाँग घोटने बैठ जाते।

बनारस को जमाने की हवा बहुत धीरे-धीरे लग रही थी। ऐसे कि असर न दिखाई दे न पता चले पर परिवर्तन हो रहे थे। टीवी का प्रादुर्भाव हो रहा था और शहर चमत्कृत था। कुछ अति संपन्न लोगों के घरों में वह रंगीन चेहरा लिए आया था और कुछ संपन्नों के घर श्वेत-श्याम। जिसने श्वेत-श्याम भी टीवी खरीद लिया था वह अचानक ऊँची नजरों से देखा जाने लगा था। जिनके घरों में टीवी नहीं थे उनके बच्चे अपने टीवी वाले पड़ोसियों के यहाँ छिछियाए फिरते। मन्नन राय को कियी ने समाचार सुनने के लिए टीवी खरीदने की सलाह दी तो वह हँस पड़े -

‘चलऽला हऽऽ चूतिया बनावे, हम देखले हई टीवी पर समाचार। एक ठे मेहरारू बोलऽऽले। हम तऽऽ ओनकर मुँहवे देखत रह गइली, समाचार कइसे सुनाई देईऽऽ?’

पर काफी सालों बाद टीवी का थोड़ा बहुत प्रभाव मन्नन राय पर भी पड़ा था। रविवार की सुबह जलेबी-दूध का सेवन करके वह सरबजीत सरदार के घर जरूर जाते और रामायण नाम का वह चमत्कार पूरे एक घंटे तक देखते और नतमस्तक होकर लौट आते। उन्हें टीवी का यही एक प्रयोग सही लगता।

मगर टीवी का यही एक प्रयोग नहीं था। उस पर फिल्में भी आ रही थीं। फिल्मी गाने भी आ रहे थे। जो गाने पति-पत्नी बच्चों के बिना हॉल में जाकर देखते सुनते थे, अब बच्चे घर में बैठे-बैठे देख सुन रहे थे। बच्चे जल्दी-जल्दी किशोर, किशोर बड़ी तेजी से युवा और युवा बड़ी तेजी से अवसादग्रस्त हो रहे थे। बनारस पूरे देश में हो रहे बदलावों को अपने में दिखा रहा था। पर ऊपर से कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। सब पहले के जैसा शांत था। बच्चे गाना सुनते और गुनगुनाते फिरते -

‘एक आँख मारूँ तो लड़की पट जाए...।’

‘दे दे प्यार दे...।’

‘सात सहेलियाँ खड़ी-खड़ी...।’

‘सुन साहिबा सुन...।’

माँ-बाप बच्चों के मुँह से ऐसे गाने सुनकर कभी गौरवान्वित महसूस करते और कभी ऐसे गंदे गाने न गाने की चेतावनी देते। जो इन्हें गंदा गाना कहते, वे खुद एक-दो साल बाद इन्हें गुनगुनाते क्योंकि गंदगी की परिभाषा बड़ी तेजी से हर पल बदल रही थी।

दिल, प्यार, आशिकी आदि रोजमर्रा की बातचीत के शब्द बन रहे थे। युवा लड़के दिल टूटने पर गीत गाने लगे थे। लड़कियाँ अपनी तारीफ गाने में सुनना पसंद करने लगी थीं पर ऊपर से सब शांत दिखाई पड़ता था।

वी.सी.आर. नाम के उपकरण ने वर्षों हल्ला मचाए रखा। पति-पत्नी रात को बच्चों के सो जाने के बाद प्रायः इसका उपयोग करते। बच्चे कभी-भी आधी नींद से जागते तो सोने का बहाना किए पूरा तमाशा देख जाते। उनके सामने उत्सुकताओं के कई द्वार खुल रहे थे।

मन्नन राय की उम्र शादी के बार्डर को पार कर रही थी। घर से पड़ता दबाव भी उनकी उदासीनता को देखकर कम होता जा रहा था। वह हनुमान जी के परम भक्त थे और आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले चुके थे। हर शनिवार और मंगलवार को संकटमोचन जाने पर यह व्रत और दृढ़ होता जाता। पर स्त्रियों की वह बहुत इज्जत करते थे और उनसे की गई बदसलूकी अपने सामने नहीं देख सकते थे।

उधर बीच वह रात को पान खाकर अक्सर सरबजीत सरदार के चबूतरे पर देर तक बैठा करते थे। मोछू भी दुकान बंद करने के बाद वहीं आ जाते और तीनों देर तक दुनिया जहान की बातें करते रहते।

एक रात अब वह सरबजीत को राम-राम कह कर उठने ही वाले थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे उन्हें अँधेरे में कुछ परछाइयाँ दिखीं। वह कुछ देर वहीं से भाँपते रहे फिर लपक कर उस ओर बढ़ चले।

वहाँ का नजारा उनके तन-बदन में आग लगाने के लिए काफी था। जनार्दन तिवारी का लड़का चून्नू त्रिलोकी ओझा की लड़की सविता को बाँहों में भींचे खड़ा था और बार-बार उसे चूमने की कोशिश कर रहा था। लड़की शर्म के मारे चिल्ला नहीं पा रही थी पर छूटने की भरसक कोशिश कर रही थी। उन्होंने चून्नू को एक हाथ दिया और वह दूर जा गिरा। उठा तो सामने मन्नन राय को देखकर उसकी रूह फना हो गई।

‘तू घरे जोऽऽऽ।’ मन्नन राय ने लड़की को डपट कर कहा और चून्नू पर पिल पड़े। चून्नू ने गिड़गिड़ाते हुए उनके पैर पकड़ लिए। मोछू और सरबजीत भी आ गए और पूरा मामला जानकर उन्होंने भी चून्नू का कान पकड़ कर दो करारे हाथ रखे। उसने कसम खाई कि वह मुहल्ले की सभी लड़कियों को बहन मानेगा, उसके बाद उसे छोड़ा गया। उस घटना के बाद चून्नू दो महीने तक दिखा नहीं। वह अपनी नानी के यहाँ छुट्टियाँ बिताने चला गया था, शायद शर्मिंदा होकर।

समय धीरे-धीरे बीतते हुए कठिन और गाढ़ा होता गया। परिवर्तन ऐसे मोड़ पर पहुँच गए थे कि उन्हें देखा जा सकता था। किशोर और युवा टीवी के गुलाम नहीं रह गए थे। उनके लिए इंटरनेट पर उच्छृंखलताओं का अथाह समुद्र था जिसमें वे जितनी चाहे डुबकी मार सकते थे। वी.सी.आर. जा चुका था। वी.सी.डी. प्लेयर पर पति-पत्नी रात को अपनी पसंद देखते तो बच्चे दरवाजा बंद कर दिन में देखते। हमारा देश अचानक दुनिया के सबसे खूबसूरत चेहरे पैदा कर रहा था। हर बात के लिए औसत आयु कम हो रही थी, चाहे बूढ़ों के मरने की बात हो या लड़कियों के रितुचक्र के शुरुआत की। किशोर खुलेआम सिगरेट पीने लगे थे और कुछ किशोर दशाश्वमेध पर घूमने वाले दलालों से हेरोइन लेकर भी स्वाद लेने लगे थे। बाप न जाने क्यों ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने में लगे जा रहे थे और माँएँ टीवी सीरियलों में जीवन जीने लगी थीं। औसत लड़कियाँ किसी खास साबुन या क्रीम की कल्पना कर खुद को जीवनपर्यंत चलने वाले भ्रम में डाल रही थीं तो लड़के अनाप शनाप पाउडर खाकर सुडौल शरीर बनाने के सपने देख रहे थे। अखाड़े सभ्यता की निशानियों की तरह जीवित थे। गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह कंप्यूटर इंस्टीट्यूट और जिम खुल गए थे। एक नई सदी शुरू हो गई थी और यह सदी सच्चाई की नहीं, झूठ, आतंक और दिखावे की थी।

सांस्कृतिक नगरी काशी में एक और परिवर्तन हुआ था। आजमगढ़, मऊ, गोरखपुर और आसपास के अपराधी अपनी गतिविधियों का केंद्र काशी को भी बना रहे थे। काशी बड़ी तेजी से सांस्कृतिक राजधानी से आपराधिक राजधानी बनती जा रही थी। इन शातिरों ने अपना ध्यान शिक्षित लोगों को अपराधी बनाने में लगाया। पढ़े-लिखे बेराजगार नौजवान गैंग बना रहे थे। चोरी, छिनैती की घटनाओं में सिर्फ नौजवान ही मोर्चा सँभाल रहे थे। इन पढ़े लिखे अपराधियों ने कई प्रशिक्षित अपराधियों और मँजे हुए गुंडों का बोरिया बिस्तर बँधवा दिया था। इन्हीं शिक्षित अपराधियों ने रंगदारी यानी गुंडा टैक्स वसूलने का नियम आम किया था। रंगदारी यानी हमें पैसा इसलिए दीजिए क्योंकि हम आपकी जान नहीं ले रहे हैं। पैसा दीजिए और हमारी गोलियों से सुरक्षित रहिए। इन्होंने बड़े-बड़े रसूखवाले व्यापारियों को निशाना बनाया। इसमें खतरा था जो ये उठा रहे थे और सफल भी हो रहे थे।

बनारस में बहुस्तरीय परिवर्तनों से मन्नन राय जैसे लोग बहुत परेशान थे। लस्सी और ठंडई की दुकानें कम हो गई थीं। शराब की दुकानों के लाइसेंस दोनों हाथों से बाँटे जा रहे थे। गाइड पर्यटकों को घुमाते-घुमाते उनका पर्स, कैमरा आदि पार कर देते और महिला पर्यटकों से बदसलूकी करने में उन्हें कोई डर नहीं था। कुछ गाइड महिला पर्यटकों से बलात्कार भी कर रहे थे तो कुछ ने एकाध विदेशियों का कत्ल भी कर डाला था। सबको पुलिस का संरक्षण प्राप्त था जो पूरी तरह से हरे और सफेद रंग की गुलाम बन गई थी।

अधेड़ से वृद्ध हो चुके मन्नन राय सुबह-सुबह जलेबी दूध का नाश्ता करने के बाद मुहल्ले में टहल रहे थे। उस दिन रविवार था। उनका विचार था कि झुनझुन के यहाँ दाढ़ी बनवा लेते। वहाँ गए तो कुछ लड़के पहले से नंबर लगाए हुए थे। वह कुछ भुनभुनाते हुए बाहर निकल आए और डॉक्टर साहब के चबूतरे पर बैठकर अखबार पढ़ने लगे। डॉक्टर साहब भी आवाज सुनकर बाहर आए और मन्नन राय को प्रणाम कर वहीं बैठ गए।

‘क्या भुनभुना रहे हैं बाऊ साहब?’

‘अरे आजकल के लौंडे डॉक्टर साहब। का बताएँ? दाढ़ी के साथ-साथ मोछ भी साफ करा देते हैं और झोंटा अइसा रखते हैं कि पते न चले कि जनाना है कि आदमी। अउर त अउर सरीर अइसा कि फूँक दो तो...।’

मन्नन राय ने बात खत्म भी नहीं की थी कि दो मोटरसाइकिलों पर सवार चार हथियारबंद नौजवान तेज रफ्तार में गाड़ी धड़धड़ाते हुए उनके सामने से निकल गए और कन्हैया सुनार के घर के सामने गाड़ी लगा दी। तीन नौजवान बाहर टहलने लगे और एक अंदर चला गया। बाहर के तीनों नौजवान आगे बढ़ने वाले को तमंचा दिखकर पीछे रख रहे थे। तभी अंदर वाला नौजवान कन्हैया सुनार को लगभग घसीटते हुए बाहर लाया और चारों उनकी लात घूँसों से पिटाई करने लगे। कन्हैया हलाल होते सूअर की तरह डकर रहे थे। कन्हैया की पत्नी और बारह वर्षीय बेटा दरवाजे पर खड़े होकर रो रहे थे और मदद की गुहार कर रहे थे। मगर चार तमंचों के आगे हिम्मत कौन करे। चारों लात-घूँसों के साथ गालियों की भी बौछार कर रहे थे।

‘पहचान नहीं रहे थे हम लोगों को मादर...।’

‘दो पहले ही दे दिए होते तो ये नौबत क्यों आती हरामजादे?’

‘हमारी बात न मानने का अंजाम बता दो साले को...।’

मन्नन राय मामला भाँप चुके थे। कन्हैया सुनार बड़ा अच्छा आदमी था। उनके सामने इतना अंधेर। वह लपक कर उन सबके पास पहुँच गए और पूरे मुहल्ले की धड़कनें रुक गईं।

‘छोड़ दे एनके...।’

‘तू कौन है बे मादर...।’

एक चिकने दिखते लड़के का तमंचा लहराकर यह कहना ही था कि मन्नन राय का माथा घूम गया। उनके सामने पैदा हुए लौंडों की ये हिम्मत? उनकी एक भरपूर लात लड़के की जाँघों के बीच पड़ी। दोनों हाथों से उन्होंने बाकी दोनों के सिर पकड़ कर लड़ा दिए और फिल्मी स्टाइल में चौथे के एक लात मारी। वह नीचे गिर पड़ा। अब चारों निहत्थे ही मन्नन राय पर टूट पड़े। पहले तो चारों भारी पड़े पर जब एक चिकने लड़के ने मन्नन राय के मुँह पर मार कर खून निकाल दिया तो मन्नन राय अचानक सुन्न हो गए। क्षण भर उसके चिकने चेहरे को देखते रहे और अगले ही पल ‘जय बजरंग बली’ का उद्घोष करते हुए चारों को पलक झपकते ही धराशायी कर डाला। लड़ाई को अंतिम घूँसे से फाइनल टच देते हुए बोले, ‘लोहा उठावल सरीर ना हौ बेटा अखाड़े कऽऽ मट्टी हौऽऽऽ।’ उनके सिर का आभामंडल चमक रहा था।

तभी गेट के बाहर खड़े कुछ अतिउत्साही नवयुवक अंदर घुस आए और चारों को पीटने लगे। काफी भीड़ जमा हो गई और वे इस अफरातफरी का लाभ उठा कर फरार हो गए।

इस घटना के बाद पूरे मुहल्ले ने मन्नन राय को जबरदस्ती अपने-अपने घर बुलाकर उनका पसंदीदा खाद्य पदार्थ जैसे दही बड़ा, मालपुआ, गुलाब जामुन वगैरह खिलाया। मूल्यक्षरण के इस युग में भी खुले मन से यह स्वीकार किया गया कि, ‘मन्नन राय गजब आदमी हैं।’

मन्नन राय की गजबनेस तब तक पूरे रौ में बरकरार थी। वह पूरे मुहल्ले के सरपरस्त, रखवाले और अब बुजुर्ग थे। हर घर पर उनके कुछ न कुछ अहसान थे। किसी की जमीन का झगड़ा सुलझाया था, किसी के पैसों का लेन-देन निपटाया था तो किसी को धमका रहे बदमाशों से छुटकारा दिलाया था। पांडेयपुर से कैंट और मलदहिया से लंका तक लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते थे।

पहले के नौजवान जिन्होंने मन्नन राय की परम शौर्यता का दौर देखा था, उन्हें बड़ा भाई मानते थे। उनके समौरिया जो लंका जैसे दूर क्षेत्रों में रहते थे, अपने घरों में खुद को उनका करीबी दोस्त घोषित करते थे भले ही उनकी आपस में एकाध मुलाकातें ही हुई हों।

हालाँकि जो वर्तमान पीढ़ी थी, वह मन्नन राय के बारे में क्या सोचती थी, यह मन्नन राय को पता नहीं था। यह वह पीढ़ी थी जो अपने बाप को इसलिए सम्मान देती थी क्योंकि वह पैसे देता था। यह पीढ़ी बड़ी तार्किक थी। इसके पास ईश्वर को न मानने के तर्क थे, पोर्नोग्राफी को वैधानिक कर देने के तर्क थे, शराब को जायज मानने के तर्क थे और आश्चर्य कि सभी तर्क दमदार थे।

मन्नन राय इस पीढ़ी की इस ताकत से अनभिज्ञ थे। शायद इसलिए कि उनका वास्ता शुरू से ही इसके पहले वाली पीढ़ी और उसके पहले वाली पीढ़ी से पड़ा था। वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने सड़कों पर नंगा खेलते-भागते देखा था और वह इसी रूप में उनके दिमाग में दर्ज थी। मगर यह पीढ़ी अपना शिशु रूप पैदा होते ही छोड़ चुकी थी। यह पीढ़ी, जैसा कि होता है, अपनी सभी पिछली पीढ़ियों से तेज और बहुत आगे थी।

रात का समय था। बिल्कुल वही दृश्य था जिसे बीते दो दशक से भी ज्यादा का समय हो गया था। मन्नन राय सरबजीत सरदार के चबूतरे पर मोछू, लल्लन, बजरंगी और एकाध स्थानीय लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे अँधेरे में उन्हें कुछ परछाइयाँ दिखीं। उनके सामने दशकों पहले का दृश्य घूम गया और वह लपक कर उस ओर बढ़ चले। उन्हें उठता देख सरबजीत भी उठ कर पीछे लग गए और उन्हें देख उपस्थित सभी पाँचों छहों उनके पीछे चल दिए। सभी को अच्छी तरह पता था कि मन्न्न राय गजब आदमी हैं, क्या पता कोई गजबनेस दिखा ही दें।

गजबनेस (मुहल्ले के मनचलों द्वारा दिया गया शब्द) दिखी भी। मन्नन राय ने देखा कि रामजीत पांडेय का लड़का सुनील परमेश्वर सिंह की बेटी अंशु को भींच कर खड़ा है और उसके नाजुक अंगों पर हाथ फेरने के साथ उसे चूम भी रहा है। लड़की के मुँह को उसने हाथ के पंजे से बंद कर रखा है और लड़की आजाद होने के लिए छटपटा रही है। मन्नन राय ने एक जोरदार थप्पड़ सुनील को मारा और वह छिटक कर दूर जा गिरा। लोग खुश हो गए। उन्हें मुँहमाँगी मुराद मिल गई। मन्नन राय इस लड़के को अभी ठीक कर देंगे। ये आजकल के लौंडे...। मन्न्न राय गुस्से से लाल हो रहे थे। लड़की छूटते ही घर की ओर भागी।

‘काहे बे, पढ़े लिखे वाली उमर में हरामीपना करत हउवे, वहू खुलेआम...?’

सुनील उठा, एक नजर मन्नन राय की ओर देखा, एक नजर भाग कर जाती अंशु की तरफ और जमीन पर पड़ा अपना बैग उठाने लगा। उसकी आँखों में शर्म, पछतावा, संकोच जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था। उसने बैग उठाया और चलने से पहले जली आँखों से मन्नन राय को घूरा। कल के लौंडे को अपनी ओर इस तरह घूरते देखकर मन्नन राय का पारा गरम हो गया। उन्होंने उसे हड़काते हुए थप्पड़ उठाया -

‘अइसे का देखत हउवे। तोर तरे माइ बाप कऽ पइसा बरबाद करे वालन कऽ इलाज हम बढ़िया से जनिलाऽऽऽ...।’

उनकी बात बीच में अधूरी रह गई क्योंकि सुनील ने उनका तना हुआ थप्पड़ बीच में पकड़ लिया और झटक दिया। वहाँ उपस्थित सबकी साँसे रुक गईं। मन्नन राय आपे से बाहर हो गए और दूसरे हाथ से एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। वह सँभल भी नहीं पाया था कि दूसरा थप्पड़। फिर उस सत्रह साल के लड़के ने ऐसी हरकत की कि वहाँ सबको साँप सूँघ गया।

उसने तेजी से अपना बैग निकाला और बिजली की फुर्ती से किताबों के बीच से एक तमंचा निकाल कर मन्नन राय की कनपटी पर सटा दिया। वह बुरी तरह से हाँफ रहा था। गुर्राता हुआ बोला -

‘नेता बनने की आदत छोड़ दे बुड्ढे वरना यहीं ठोक दूँगा। जब देखो दूसरों के काम में टाँग अड़ाना...। राम राम करो मादरचोद नहीं तो ऊपर पहुँचा दूँगा...।’

सभी लोग अवाक खड़े थे। मन्नन राय की आँखें जैसे अचानक भावशून्य हो गई थीं। लोगों ने मन्नन राय के चेहरे की ओर देखा। वहाँ क्रोध का नामोनिशान नहीं था। फिर भी उन्हें लग रहा था कि वह फुर्ती से सुनील के हाथ से तमंचा छीन लेंगे और उसे पीटते हुए घर ले जाएँगे। जो व्यक्ति चार-चार तमंचों को काबू कर सकता हो, उसके लिए एक सत्रह साल का दुबला-पतला लड़का और तमंचा क्या मायने रखते हैं। पर मन्नन राय जैसे शून्य में कहीं खो गए थे। उनके चेहरे पर पता नहीं कैसे अनजान भाव थे जिसे मुहल्लेवाले पहचान नहीं पा रहे थे।

सुनील बैग लेकर चल पड़ा तब भी मन्नन राय वैसे ही खड़े थे। लोगों ने स्पष्ट देखा था कि सुनील ने जब उनके ऊपर तमंचा ताना था तो तमंचे की नली उनकी कनपटी की तरफ सीधी नहीं थी बल्कि उनके सिर के इर्द-गिर्द रहने वाला आभामंडल उसकी जद में था। अब वह आभामंडल बिल्कुल विलुप्त हो गया था और वह लुटे-पिटे बड़े निरीह बुड्ढे लग रहे थे। रात अचानक और काली हो गई थी और मन्नन राय के चेहरे पर उतर आई थी। वह भौंचक खड़े उस रास्ते को देख रहे थे जिस पर सुनील गया था। कुछ लोग उनके कंधे पर हाथ रखकर सहला रहे थे कुछ पीठ। उन्हें पकड़ कर लोग चबूतरे पर वापस ले आए। वह कुछ बोल नहीं रहे थे। कुछ लोगों को उम्मीद थी कि अभी वह नीम गुस्से में हैं इसलिए कुछ बोल नहीं रहे हैं। गुस्सा सँभलने के बाद जबरदस्त बनारसी गालियाँ देंगे और उस बदतमीज लड़के के घर जाएँगे और...।

अचानक मन्नन राय उठ खड़े हुए। उनका रुख अपने घर की ओर था। लोग समझाने लगे।

‘आप झूठे परेसान हो रहे हैं बाऊ साहब...।’

‘कल सबेरे सुनीलवा के घर सब लोग चला जाएगा। रामजीत से बात किया जाएगा...।’

‘बइठिए मन्नन भइया...।’

‘बइठा यार मन्नन...।’

मगर वह न बैठे न रुके। धीमी चाल से वह अपने घर में घुसे और दरवाजा बंद कर लिया। लोग उनका यह रुख देखकर दुखी हुए। सबने चर्चा की कि मन्नन राय को बहुत दुख पहुँचा है और इसका निवारण यही है कि सुनील उनसे माफी माँगे।

अगली सुबह जब सुनील के माँ-बाप को यह घटना बतायी गई तो वे आगबबूला हो उठे। लड़के की बेशर्मी से ज्यादा दुख उन्हें मन्नन राय के अपमान का था। सुनील की बहुत लानत मलानत हुई और मुहल्ले के सभी बुजुर्ग लोग दोनों को लेकर माफी मँगवाने मन्नन राय के घर पहुँचे। मुहल्ले में अफरा तफरी मच गई थी। जो सुनता, जमाने को दोष देता।

मन्नन राय की दिनचर्या के अनुसार यह समय उनके नाश्ता कर चुकने के बाद डॉक्टर साहब के यहाँ अखबार पढ़ने का था पर वह अभी तक दिखाई नहीं दिए थे। लोगों ने दरवाजा खटखटाया तो वह अपने आप खुल गया। लोग एक अनजानी आशंका से भर उठे। हर कमरे की तलाशी ली गई। मन्नन राय नहीं थे। हर सामान पहले की तरह व्यवस्थित था। मन्नन राय कहाँ चले गए? किसी रिश्तेदार के यहाँ जाते तो कपड़े वगैरह ले कर जाते। सारे कपड़े, यहाँ तक कि उनका धारीदार जाँघिया भी वहीं टँगा था। बिना कुछ लिए वह कहाँ जा सकते हैं... खाली हाथ? कुछ के दिमाग में आशंकाएँ उभर रही थीं पर बोला कोई कुछ नहीं। सबको पता था कि बोलते ही बाकी सब काँवकाँव करने लगेंगे, ‘मन्नन राय कोई कायर कमजोर थोड़े ही हैं।’

फिर वह गए कहाँ? उनके जो थोड़े बहुत रिश्तेदार थे उनके यहाँ पता किया गया। वह वहाँ भी नहीं थे। उनके घर पर ताला लगा दिया गया है और पूरा मुहल्ला आँखें बिछाए इंतजार कर रहा है कि वह कब आते हैं। कुछ छँटइल बदमाश हैं जो खाली मकान को हड़पने की फिराक में हैं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्हें डर है कि मन्नन राय आ गए तो हड्डी पसली ढूँढ़े नहीं मिलेगी। उन्हें अभी भी याद है कि ’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’ है किसी की मजाल जो ‘थे’ का प्रयोग कर दे।

लेखक मन्नन राय का बहुत बड़ा भक्त रहा है और उनकी बहुत सी आदतें न पसंद होने के बावजूद उनकी गुमशुदगी पर चिंतित है। आप उनकी आदतों और उनके व्यक्तित्व की चीरफाड़ में तो नहीं उलझ गए? उनका जबरदस्ती हर किसी के काम में नेता बनने की आदत और दकियानूसी और पिछड़ी सोच...? आप किसी दूसरे रास्ते तो नहीं जा रहे? इसीलिए लेखक ने शुरू में ही कहा था कि सबसे बड़ी समस्या मन्नन राय की गुमशुदगी है, यह वक्त उनके आग्रहों पर सोचने का नहीं है। लेखक ने भले उनकी जवानी न देखी हो, उनका गर्व से भरा माथा और तनी हुई रोबीली चाल देखी है। हालाँकि उस दिन से लेखक को यह अनुभव हुआ है कि हर मन्नन राय बुढ़ापे में ज्यादा दिनों तक तना नहीं रहने दिया जाता। लेखक सड़कों पर घूमते समय सिर झुकाए किसी हताश और निरीह बूढ़े को देखता है तो दौड़ कर पास जाकर देखता है कि कहीं यह मन्नन राय तो नहीं। पर वह मन्नन राय अब तक नहीं मिले, हालाँकि दूर से ज्यादातर बूढ़े मन्नन राय ही लगते हैं, उस रात के बादवाले मन्नन राय। लेखक ने पहचान के लिए कहानी के साथ मन्नन राय की तस्वीर भी संलग्न की है। इसके साथ ही व्यक्तिगत रूप से संपादक से निवेदन भी किया है कि यदि इस समस्या को खालिस कहानी के रूप में छापें और चित्र छापना संभव न हो, तो उनका एक रेखाचित्र जरूर छापें। वैसे आपकी सुविधा के लिए मैंने पूरा हुलिया दे ही दिया है और अब तक तो आप मन्नन राय को पहचान ही गए होंगे। यदि किसी को भी मन्नन राय के विषय में कोई भी सूचना मिले तो कृपया लेखक के पते पर अविलंब संपर्क करें। उचित पारिश्रमिक भी दिया जाएगा।