मन्ना डे-सांस्कृतिक विविधता के गायक / जयप्रकाश चौकसे

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मन्ना डे-सांस्कृतिक विविधता के गायक
प्रकाशन तिथि : 25 अक्तूबर 2013


हिंदुस्तानी सिनेमा से कहीं अधिक प्रभाव सिनेमा संगीत का रहा है और सिनेमा संगीत ने अनगिनत लोगों के जीवन के सफर को आसान बनाया है, उनका एकांत में साथ दिया, दु:ख में साथ दिया। फिल्म का एक भी दृश्य याद नहीं रहे परंतु उसका कोई मधुर गीत ताउम्र किसी आदमी के साथ रहता है। इसी तरह मन्ना डे का 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, इक पल जैसे इक जुग बीता...' अनगिनत बार सुनने के बाद भी आंखें नम हो जाती हैं और यह सिलसिला पचास वर्ष से जारी है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मन्ना डे का सचिन देव बर्मन रचित ये गीत बजा हो और आंसू न आए हों। सच तो यह है कि जब भी रोने का मन हो, मैंने यह गीत सुन लिया है। आज के प्रचारित हैप्पी-हैप्पी कालखंड में रोने का मन होने को बुढ़ापे से जोड़े जाने की गलती संभव है परंतु आज मन्ना डे के निधन पर रोने के लिए किसी भी गीत को सुनने की आवश्यकता नहीं है। कोई ग्लिसरीन या प्याज की आवश्यकता नहीं है क्योंकि 'दसों दिशाएं दोहरा रही हैं उनकी कहानियां!'

94 वर्ष तक जीवन संग्राम में अडिग अपराजेय मन्ना डे ने अपनी कमसिन उम्र में अखाड़े की लाल मिट्टी में कसरत की थी और कुश्तियां लड़ी थीं तथा 'पहलवानी' के तेवर उन्होंने हर संघर्ष में कायम रखे। सचाई तो यह है कि अपार प्रतिभाशाली एवं परिश्रमी मन्ना डे के साथ कभी पूरा न्याय नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने जब पाश्र्व गायन में कदम रखा तब जाने कैसे यह स्थापित हो गया था कि दिलीप कुमार को रफी साहब, राज कपूर को मुकेश, देव आनंद को किशोर कुमार की आवाज बहुत सूट करती है या यह पाश्र्वगायक स्वाभाविक लगता है। यह सितारा छवियों का घातक प्रभाव है कि मधुरता एवं विविधता के धनी मन्ना डे को उतने अवसर नहीं मिले। फिल्मी दुनिया औघड़ दुनिया है और उसकी सारी रीतियां भी सनक से भरी हैं क्योंकि पाश्र्वगायन विधा ही अस्वाभाविक है। फिर उसमें स्वाभाविकता खोजने के नाम पर जब जिससे चाहो अन्याय कर लो!

हमारे जीवन में भी यही होता है कि लोकप्रिय स्थापित बातों को नियम बनाकर हमें उन पर चलने के लिए कहा जाता है और भारी भरकम 'संस्कार' भी उससे जोड़ दिए जाते हैं। राजकपूर-मुकेश की जोड़ी की परंपरा से बाहर जाकर शंकर-जयकिशन ने मन्ना डे और लता से गवाया 'प्यार हुआ इकरार हुआ' और इसी गीत की पंक्ति है 'दसों दिशाएं दोहराएंगी हमारी कहानियां'। उन्हीं दिनों 'चोरी चोरी' के गाने भी मन्ना डे-लता ने ही गाए। 'ये रात भीगी-भीगी...' और 'श्री 420' का ही 'दिल का हाल सुने दिलवाला' भी अमर गीत है। मुकेश से जुड़े राजकपूर के लिए मन्ना डे ने सर्वकालिक लोकप्रिय गीत गाए हैं और यह सिलसिला 1970 में प्रदर्शित 'जोकर' तक चला - 'ऐ भाई, जरा देखकर चलो'। रोशन साहब ने भी मन्ना डे से ही राजकपूर के लिए गवाया 'लागा चुनरी में दाग...'।

बहरहाल, मन्ना डे विविधता के ऐसे धनी थे कि उन्होंने 'लपक-झपक तू आ रे बदरवा' भी गाया और वर्षों बाद प्राण साहब पर फिल्माया 'कस्मेवादे प्यार वफा' भी गाया। मनोज कुमार की 'उपकार' का यह श्रेष्ठ गीत हर कालखंड के खोखलेपन को उजागर करता है वरन् आज तो यह अघोषित राष्ट्रगीत मान लिया जाना चाहिए। 'कस्मे वादे प्यार वफा, बातें हैं, बातों का क्या' और इस बातूनी कालखंड को बखूबी प्रस्तुत करता है। उनकी विविधता का आकलन इन दो गीतों से करें जो बलराज साहनी पर फिल्माए गए - शंकर-जयकिशन की 'सीमा' के लिए तू प्यार का सागर है, पंख हैं कोमल, आंख है धुंधली, घायल मन का पंछी उडऩे को बेकरार...। यह गांधीजी के निधन के बाद के शून्य का गीत है तो एक दशक बाद बलराज साहनी के लिए ही 'मेरी जौहराज़बीं' गाया है - उम्र को ठेंगा दिखाकर इश्क करने का गीत।

मेरी फिल्म 'शायद' के लिए मानस मुखर्जी की रचना मन्ना डे ने क्या कशिश से गाई है - 'दिन भर धूप का पर्बत कारा, शाम को पीने निकले हम, जिन गलियों में मौत बिछी थी, उनमें जीने निकले हम' (निदा फाज़ली)। इस गीत की रिकॉर्डिंग के बाद उन्हें दिया गया पारि्रमिक उन्होंने संघर्षरत मानस मुखर्जी को दिया और संभवत: उस धन से खरीदा दूध उनके पुत्र शान ने पिया। शान आज गायक हैं। मन्ना डे ने ताउम्र लोगों को दिया है, लिया कुछ नहीं।