मन्ना डे अस्पताल में रिश्तेदार अदालत में / जयप्रकाश चौकसे

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मन्ना डे अस्पताल में रिश्तेदार अदालत में
प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2013


महान पाश्र्व गायक मन्ना डे बेंगलुरू के अस्पताल में भर्ती हैं। दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त करने वाले मन्ना डे ९४ वर्ष के हैं। आयु के साथ आने वाली बीमारियों से अधिक कष्ट उन्हें इस बात का हो सकता है कि उनकी बेटी और दामाद ने उनके रिश्तेदार पर आरोप लगाया है कि इलाज के नाम पर उसने बैंक से पैसा निकालकर अपनी पत्नी के नाम कर दिया है। मन्ना डे के पास कोलकाता में कुछ जमीन है और इस समय मात्र 12 लाख उनके बैंक में जमा हैं। इस तरह के विवाद प्राय: मृत्यु के बाद होते हैं। दुर्भाग्यवश यह उनके जीवनकाल में हो रहा है। एक महान गायक को इस तरह का दु:ख भी झेलना पड़ रहा है।

मन्ना डे ने किशोर अवस्था में अखाड़े में रियाज किया है और दंड-बैठक लगाने वाले मन्ना डे को गायन प्रतिभा जन्म से मिली है, परंतु उन्हें पाश्र्व गायन क्षेत्र में अपना स्थान बनाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। हिंदुस्तानी सिनेमा के गीत-संगीत क्षेत्र के स्वर्ण युग(१९४७ से १९६४ तक) में विलक्षण प्रतिभा का जमघट था। मोहम्मद रफी, मन्ना डे, मुकेश, हेमंत कुमार, किशोर कुमार, तलत महमूद इत्यादि अनेक लोग सक्रिय थे। उन दिनों हर लोकप्रिय सितारे का एक अपना प्रिय गायक हुआ करता था, जैसे दिलीप कुमार के लिए मोहम्मद रफी, राज कपूर के लिए मुकेश और देव आनंद के लिए किशोर कुमार, परंतु यह विभाजन बहुत सख्त नहीं था। मसलन, राज कपूर के प्रिय मुकेश ने मेहबूब खान की 'अंदाज' में दिलीप कुमार के लिए गीत गाए, जो अत्यंत लोकप्रिय हुए। इतना ही नहीं, मुकेश कुछ समय के लिए संगीत बाजार से बाहर थे और उनकी वापसी भी दिलीप कुमार के लिए 'यहूदी' में गाए गीत से हुई - 'ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने तो ये है तेरी नजरों का कसूर'। इसी तरह 'मधुमती' का 'सुहाना सफर और ये मौसम हसीं' भी मुकेश ने गाया था। दूसरी तरफ राज कपूर और नरगिस के लिए गाए गए तीन सर्वकालिक महान रोमांटिक युगल गीत लता मंगेशकर और मन्ना डे ने गाए हैं - 'प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल' फिल्म 'श्री ४२०' का है और दो अन्य मधुरतम गीत फिल्म 'चोरी चोरी' के हैं - 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम...' और 'ये रात भीगी-भीगी'। मुकेश राज कपूर के घनिष्ट मित्र और संगीत में गुरुभाई भी थे, परंतु राज कपूर मन्ना डे की आवाज के कायल थे और उन्हें अवसर देने में कभी झिझके नहीं। मसलन, 'दिल ही तो है' का 'लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे...' मन्ना डे ने गाया है। मन्ना डे ने एक बार यह कहा था कि राज कपूर की 'बूट पॉलिश' में जेल में गंजे कैदियों का गीत 'लपक-झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूख रही है...' का पूरा आकलन राज कपूर ने किया था और शंकर-जयकिशन के साथ कई दिनों तक इस गीत पर काम भी किया।

इसी तरह देव आनंद के शिखर दिनों में मोहम्मद रफी ने उनके लिए गीत गाए हैं और 'काला बाजार' तथा 'हम दोनों' में रफी साहब और सचिन देव बर्मन ने कमाल किया है। 'काला बाजार' का 'खोया, खोया चांद' में रफी साहब ने माधुर्य रचा तथा 'हम दोनों' का 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया' भी हमेशा गूंजने वाला गीत है। इसी तरह पाश्र्व गायन के क्षेत्र में किशोर कुमार की दूसरी पारी राजेश खन्ना की 'आराधना' से शुरू हुई, परंतु इस फिल्म में भी रफी साहब ने श्रेष्ठ गीत गाया 'गुनगुना रहे हैं भौंरे खिल रही है कली, कली'। इतना ही नहीं, एक समय में किशोर कुमार के लिए रफी साहब ने पाश्र्व गायन किया है।

जब भी शास्त्रीय संगीत के आधार वाले गीत बने हैं या तो मोहम्मद रफी को बुलाया गया है या मन्ना डे को, क्योंकि दोनों के पास ही यह पुख्ता जमीन थी। अशोक कुमार के लिए 'मेरी सूरत तेरी आंखें' में मन्ना डे ने इतना महान गीत गाया है कि जब भी, जितनी भी बार सुनो, आंखें नम हो जाती हैं -'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई', दरअसल खेमों में गायकों के बंटने की बात सच तो है, परंतु इसके परे जाकर भी बहुत काम हुआ। यह हमारे फिल्म संगीत का दुर्भाग्य है कि मन्ना डे जैसी िलक्षण प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हुआ और उन्हें उतने अवसर नहीं मिले, जिसके वे हकदार हैं। जिंदगी अनेक लोगों के साथ अन्याय करती है, कुछ अनुदार रहती है। प्रतिभा का सच्चा आकलन नहीं हो पाता। मन्ना डे इतने साधु स्वभाव के सरल व्यक्ति रहे हैं कि उन्हें जिंदगी से कभी शिकायत भी नहीं रही। किशोर वय में अखाड़ा और स्वभाव में यह धीरज ही उन्हें इतनी लंबी उम्र दे रहा है। इस तरह की परिस्थितियों में अनेक लोग कड़वाहट के शिकार हो जाते हैं। मन्ना डे समझते रहे हैं कि 'ऐ भाई जरा देखके चलो, ये सर्कस है शो तीन घंटे का' मन्ना डे जैसे भलेमानुस को उम्र के इस पड़ाव पर पारिवारिक वैमनस्य देखना पड़े, यह मन को कचोटता है। मन्ना डे कभी दुनियादार नहीं रहे, इसीलिए इतने गुणवान होकर भी उन्होंने बहुत धन जमा नहीं किया और कर लेते तो शायद और कलह होता। धन का अपना महत्व है, परंतु उसके पीछे पागलों की तरह दौड़कर उसका संचय करना कभी जीवन का ध्येय नहीं हो सकता। अगर जीवन इजाजत दे कि मृत्यु के समय कौन-सा गीत सुनना पसंद करेंगे तो मैं सचिन दा और मन्ना डे का 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' चुनूंगा।