मन्नू भंडारीः जैसा मैने पाया / अजित कुमार / पृष्ठ 1

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मन्नू भंडारी : शालीनता और सौजन्य का एक आख्यान -1

श्रीमती मन्नू भंडारी – जिन्हें हम सभी ‘मन्नूजी’ कहते आए हैं- मेरे लिये एक विश्वसनीय और आदरणीय मित्र होने के अलावा लेखिका के रूप में ‘प्रतापी’ और बन्धुवर राजेन्द्र यादव की पत्नी के रूप में ‘पीड़ित’ रही हैं । लेकिन पहले कौर में ही मक्खी निगलने की भूल से बचने के लिए इस बात का थोड़ा खुलासा कर दूँ – ‘प्रतापी’ लेखिका इसलिये क्योंकि उन्होंने जो भी लिखा--खयाल है कि साथी धुरन्धर लिक्खाड़ों की तुलना में काफ़ी कम-- उसकी ओर आम और खास- सबका ध्यान गया और वह लोगों के मन में अटका रहा । इस लिहाज से वे मेरी निगाह में कुछ-कुछ गुलेरीजी की कोटि में हैं, जिनके यश के लिये एक ‘उसने कहा था’ ही काफ़ी थी जबकि मन्नूजी की तो ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’-जैसी कई अविस्मरणीय कृतियाँ हैं, जो मुझ-जैसे खासे अनपढ आदमी की भी याद का हिस्सा बनी हुई हैं ।

उनके लेखन की सहजता,सरलता, आडम्बरहीनता ने जहाँ उन्हें सामान्य पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाया, वहीं सुधीजन भी उसकी ओर आकर्षित हुए और मात्र इसलिये नहीं कि उनके लेखन में नारी की वेदना या प्रतिहिंसा साकार हुई हो । कम से कम मेरे मन पर तो उनकी उन्हीं कृतियों की छाप है, जिनमें तथाकथित ‘नारी लेखन’ का विलाप और विद्रोह नगण्य है- बल्कि औरत की उलझनों का तटस्थ, वस्तुपरक निरूपण हुआ, जैसे उस कहानी में जिसपर बनी फ़िल्म ‘रजनीगन्धा’ की शूटिंग देखते समय बार-बार मेरा ध्यान इस ओर गया कि यहाँ अपनी उधेड़बुन के लिये समूची दुनिया को ज़िम्मेवार नहीं ठहराया गया है । यह निरीक्षण मेरे मन में ‘पीड़ित पत्नी’ वाली टिप्पणी से यों जुड़ा कि मैंने गौर किया कि वे सोच-विचारकर चाहे नहीं, पर जानते-बूझते हुए भी उस तरह की दुखी-आहत बनी हैं, जैसीकि वे रही हैं । पर अपनी इस राय का भी थोड़ा खुलासा करना ज़रूरी होगा ।

यों तो संसार में बिरली ही पत्नियाँ होंगी -भोलीभाली-भली-अबूझ,--कुछ लोगों की निगाह में शायद ‘सिम्पिलटन’ (बुद्धू), किन्हीं अन्य की निगाह में शायद ‘फ़ारचुनेट’ (भाग्यशाली)-- जो अपने को परम सुखी-संतुष्ट मानें और जिन्हें अपने दाम्पत्य जीवन से कोई बड़ी शिकायत न हो, पर मन्नूजी को मैंने उस विशेष कोटि में पाया जो अतिशय जागरूक होने के बावजूद, पति से अवश-असहाय रूप में निरन्तर प्रेम करती रहीं, किन्तु उन्हें अपनी सहज भावना का मनोवांछित प्रतिदान नहीं मिला । फिर भी मन्नूजी उस सम्बन्ध की भीतरी ज़रूरत महसूस करती हुई, चाहकर भी उसे तोड़ न सकीं - अपनी तमाम खीझ, परेशानी और उधेड़बुन के बावजूद उसे लगातार निभाती गईं । मानवीय विवशता की यह ऐसी स्थिति होती है, जिसमें कोई अनुभव करे कि वह न तो एक व्यक्तिविशेष के साथ रह सकता है, न उसके बिना रह सकता है । इसे आप चाहें तो मध्ययुगीन भारतीय नारी का ‘टिपिकल माइंड सेट’ कह खारिज कर सकते हैं, मेरी निगाह में यह किसी सम्बन्धविशेष से जुड़ी बिलकुल निजी परिस्थिति या मन:स्थिति है, जिसको पारम्परिक- मध्ययुगीन-आधुनिक-अत्याधुनिक जैसे ढाँचों से अलग रखकर ही देखा-समझा जाना चाहिये । यह व्यक्ति का निजी—कदाचित अस्तित्वजन्य-- निर्णय समझा जा सकता है ,जैसा ऐंटिगनी से लेकर कोई भी ‘कखग करे--और यह बात मेरे खयाल से अकेली स्त्रियों पर ही नहीं, कुछेक पुरुषों पर भी लागू होगी ।

इस विशेष अर्थ में मन्नूजी या राजेन्द्र ने अपने जीवन से सम्बद्ध जो भी निर्णय लिये, वे उनके अपने जाने-बूझे, स्वतन्त्र निर्णय थे क्योंकि संयोगवश ऐसी कोई बाध्यता न थी- न समाज और परिस्थिति की, न ही शायद नियति की- कि वे कोई अन्य निर्णय कर ही नहीं सकते थे ।

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राजेन्द्र से मेरी मित्रता पछपन-छप्पन साल पुरानी सन 51-52 की है, जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में, मेरे होस्टल के कमरे में पहली बार मिले थे । मन्नूजी को भी मैं उनकी आरम्भिक कहानियों से ही जानने लगा था और सन 59 में मेरा विवाह होने पर, दिल्ली में जब राजेन्द्र ने मन्नूजी की खबर दी तो स्वभावत: लेखकीय बिरादरी की इस बढोतरी से खुशी हुई लेकिन मैं उनसे पहली बार मिला- लगभग सन 64 में, जब वे कलकत्ता छोड़ यहाँ मिरांडा हाउस में पढाने आईं । मुझ-जैसे लेखकों-अध्यापकों के लिये यह आश्चर्य और अभिमान का विषय बना कि जहाँ हममें से अधिकांश सौ-डेढ सौ से अधिक प्रतिमास किराया दे सकने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, वहाँ मन्नूजी ने विश्वविद्यालय के निकट शक्तिनगर में खासे मँहगे किराये का मकान धड़ल्ले से ले लिया था । घरेलू काम-काज के लिए उन्होंने सेवक भी रखा था, जबकि तब हम सभी की ‘कैरी होम’ तनख्वाह पाँच-छह सौ से अधिक न हुआ करती थी और हममें से अधिकांश बसों में धक्के खाते और हमारी पत्नियाँ चौके-चूल्हे में खटती रहती थीं…

अनुमान है कि तब तक लेखन से राजेन्द्र भी शायद जेबखर्च ही निकाल पाते होंगे । ऐसे में उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ शुरूकर हिन्दी युवा लेखन के लिये सम्भावनाओं का द्वार खोला था, इसलिये उनकी पहल और मन्नूजी के आगमन से औसत हिन्दी लेखक- अध्यापक का स्वाभिमान और मनोबल कुछ बढ सा गया था । अंसारी रोड, दरियागंज-स्थित अक्षर प्रकाशन तो लेखकों का मिलन-स्थल बन ही चला, तमाम माडल टाउन, विश्वविद्यालय परिसर,माल रोड, शक्तिनगर आदि में रहनेवाले युवा लेखकों के लिये मन्नूजी-राजेन्द्र का घर मनपसन्द अड्डा हो गया था । वहाँ की आत्मीयता, अतिथिवत्सलता, सुघरता और विशेष प्रकार की अनौपचारिकता हमें वहाँ बार-बार घसीट ले जाती थी और यह समझने में मुझे कभी कठिनाई नहीं हुई कि इसके मूल में ‘गृहिणी’ ही थी, राजेन्द्र की भूमिका ‘शोभालाल’ की बेशक रही ।

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हिन्दी में मन्नूजी और राजेन्द्र के आपसी सम्बंधों को लेकर पर्याप्त चर्चा हुई है जो शायद होती ही रहेगी- इसलिये भी कि दोनों ने उसे जान-बूझकर बढावा दिया है । यही कारण है कि जिसे ‘भंडा-दव’ या ‘दव-भंडा’ नाम दिया जा सके, वैसा ढेर-सा लेखन हिन्दी में तैयार हो गया है और क्या पता, यह टिप्पणी भी उसीका एक हिस्सा समझ ली जाय जबकि न मेरा वह इरादा है, न उसके बारे में कोई खास जानकारी मुझे है । मैं अपने ही पेंचों-फँसावों में इतना उलझा रहा कि ऐसे ब्योरों को सहेजकर कभी न रख सका । यहाँ तक कि हाल में ही एक रोज़ जब किसीने फ़ोन पर बताया कि मन्नूजी ने अपनी नयी पुस्तक में आप दोनों का विस्तार से उल्लेख किया है तो भी मैं उत्सुकता के बावजूद वह किताब खोजकर पढ नहीं सका । फिर यह बात भी उसी तरह आयी-गयी हो गयी जैसे राजेन्द्र की वह पुरानी धमकी कि जब वे मेरी बखिया उधेड़ेंगे, तब जाकर मुझे अपनी असलियत मालूम होगी ।

कारण यह कि उनके लिखे बिना भी अपनी इस असलियत को मैं जानता हूँ कि मेरे मन में उन दोनों के और अपने तमाम प्रियजनों के लिये जितनी उमड़न और जगह रही और है, उसका अर्धांश भी- एकांश नहीं कह रहा- उनके मन में मेरे लिये नहीं । पर इस स्थिति को पगुराकर दुखी होने-रहने की जगह मैं गुरुवर बच्चनजी का यह कथन याद रखता हूँ ‘तुम भोगो, तुम जो भावभरा मन लाये’।

तो भी पारस्परिकता तथा उसके प्रति मन में भरोसे का होना सचमुच दिव्य मानवीय अनुभव हैं, और मैं खुले मन से स्वीकारता हूँ कि कई और नातों की तरह, मन्नूजी और राजेन्द्र के माध्यम से भी मैंने यह सुख बहुत अधिक पाया है । इस कारण उनके प्रति मुझमें गहरी ममता रही है और मैं उन्हें अलग-अलग करके नहीं देख पाता । सच तो यह है कि वे दोनों अपनेआप में और साथ मिलाकर भी बेहद प्यारे लोग हैं जिनके साथ हमारे पारिवारिक जीवन के बहुतेरे अन्तरंग पल-छिन ही नहीं, दिन-हफ़्ते और लम्बे-लम्बे वक़्त गुज़रे हैं ।

हमने साथ-साथ सैर-सपाटे किये, लम्बी यात्राओं पर गये, एक ही छत के नीचे रहे …और यह बताते मुझे बड़ा संतोष होता है कि इसके बावजूद हमारे बीच कभी कोई बदमज़गी नहीं हुई- उलटे हमने अपने और भी मित्रों को संग-साथ ले अपनी खुशियाँ बाँटीं-बढाईं । उन सब का ब्यौरा देने लगूँ तो यह संस्मरण एक लम्बा पँवारा बन जायेगा ।

अपने कुछ सफ़रनामों में ज़रूर मैंने धरमसाला, नैनीताल, रामगढ आदि का थोड़ा ज़िक्र किया है , जहाँ हम मित्र मंडलियों सहित गये, घूमे-फिरे, रहे; लेकिन बहुतेरी अनलिखी यात्राएं जैसे- धुर दक्षिण भारत के नगरों की… आगरे में राजेन्द्र के अभिनन्दन की… हमारे पुत्र बेटुल और उनकी पुत्री टिंकू के साथ-साथ पलने-बढने-बड़े होने की… मन्नूजी के घर खाई अनगिनत दावतों की, मायके के सम्बन्धों से मन्नूजी को मिले सहारों की, अक्षर प्रकाशन के आरंभ-विकास-ह्रास की, वहाँ से मेरी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन की, ‘हंस’ के उदय और विस्तार की, अन्तरंग मडलियों में परस्पर बखिया उधेड़े जाने की, असंख्य साहित्यिक गोष्ठियों की, मन्नू जी की पहली मोटर गाड़ी के साथ मेरे प्रयोगों की, उनका वित्तीय सलाह्कार होने के सिलसिले में मेरी हास्यास्पद भूमिका की, विह्वल-व्याकुल क्षणों में भी मन्नूजी के धीर-शान्त आचरण की, मेरी वैवाहिक समस्याएं सुलझाने में उनकी दक्षता की, अपने यशस्वी लेखन की विस्तृत गाथा न सुनाते हुए भी मुझपर भरोसाकर थोड़ा-बहुत जता देनेवाली उनकी मधुरता की … आज भी मन में कुलबुलाती हैं ।