मन-माटी / असगर वज़ाहत / पृष्ठ 2
कोई बात नहीं। एक दिन बात साहब की समझ में आ गई। वह इमली के पेड़ के नीचे लेटे थे और ऊपर से सूखी इमलियां गिर रही थीं। तक्कू रस्सी बट रहा था। उन्होंने तक्कू से कहा, सुनो तक्कू, चिट्ठीवाली बात समझ में आ गई है।
क्या?
हम तुम्हें चिट्ठी लिखकर दे देंगे। हमारे मरने पर डाल देना।
हमने आज तक चिट्ठी नहीं डाली है चचाजान...पहुंच तो जाएगी न?
हां...यह जो डाकिया आता है...उसे दे देना...चार आने लेगा...चार आने भी मैं देता जाऊंगा।
ठीक है।
साहब खेतों, खलिहानों, तालाबों, नदियों, झीलों और घास के मैदानों में घूमते रहे। न उन्हें गर्मी लगती और न सर्दी। कोई मेला-ठेला ऐसा न होता जिसे साहब छोड़ देते। दस-दस कोस पैदल चले जाते और बरसात के दिनों की नदी तैरकर पार कर लेते। एक रात खाना खाने के बाद साहब ने तक्कू से कहा, पर तक्कू एक बात है। खत में मैं ये कैसे लिख पाऊंगा कि मैं कैसे मरा?
हां, यह तो है। तक्कू ने सोचने का सारा काम साहब पर छोड़ रखा है।
मान लो मैं चिट्ठी में लिखता हूं कि हैजे से मर गया और मरता हूं बुखार आने से, तो?
हां, यह तो है।
तो मैं चिट्ठी जल्दी न लिखूं? यानी जब बीमार पड़ूं तो लिखूं?
हां, यह तो ठीक है।
पर, मान लो मैं सांप काटने से मर गया।
हां, यह तो है।
सांप काटने के बाद मैं चिट्ठी कैसे लिखूंगा?
हां, यह तो है।
तो मैं तुम्हें कई चिट्ठियां लिखकर दे दूंगा...जिस तरह मरूं वैसी चिट्ठी डाल देना।
हौव।
पर, यह तुम्हें याद रहेगा कि कौन-सी चिट्ठी किस बीमारी से मरने पर डाली जाएगी?
यह तो है।
फिर?
हां, क्या किया जाए?
चलो हर चिट्ठी अलग-अलग आदमियों को दे देंगे। एक आदमी को एक बीमारी तो याद रहेगी।
हां, यह ठीक है।
अस्सी से ऊपर के होकर साहब मरे, पर...।
घुटनों के दर्द की वजह से साहब बिस्तर पर पड़े तो पड़े ही रह गये। महीना हो गया, दो महीने हो गये, साहब पड़े ही
रहे, फिर साहब ने दवाएं भी खानी छोड़ दीं...फिर साहब को नींद न आने की शिकायत हो गई। वह न तो दिन में सोते थे, न रात में... फिर अचानक एक दिन अब्बू ने सुना कि साहब नींद में बड़बड़ा रहे हैं। वह उठकर उनकी चारपाई के पास गया। वह जो कुछ बड़बड़ा रहे थे वह अब्बू की समझ में नहीं आया। शायद साहब अंग्रेजी में कुछ कह रहे थे, पर साहब सो भी न रहे थे। अब्बू ने उनसे कुछ पूछा तो देखा साहब जाग रहे हैं, पर उन्होंने यह नहीं माना कि वह अंग्रेजी में कुछ बोल रहे थे।
धीरे-धीरे यह होने लगा कि साहब रात-रातभर अंग्रेजी बोला करते थे। कभी लगता था कि वह किसी पर नाराज हैं, लड़ रहे हैं, गुस्सा कर रहे हैं। कभी लगता था याचना कर रहे हैं। धीरे-धीरे रोनी-सी आवाज में विनती कर रहे हैं। कभी लगता कि साहब बड़े प्यारभरे लहजे में ऐसे बोल रहे हैं-जैसे बच्चों से बोला जाता है। अब्बू और बक्कू ही नहीं घर के सब लोग यही समझते थे कि साहब का दिमाग पलट गया है, लेकिन दिन में साहब की हालत ठीक हो जाती थी। ठीक-ठाक बातचीत करने लगते थे। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि गठिया का रोग मौसम बदलतेे ही ठीक हो जाएगा और वह आराम से चल-फिर सकेंगे, लेकिन गर्मियां आईं, फिर बरसात आई और फिर जाड़ा आया पर साहब चल-फिर न सके। उनका वजन भी तेजी से घटता चला गया और उसी तेजी से रात में उनका अंग्रेजी में बड़बड़ाना भी बढ़ता चला गया।
एक रात साहब कुछ नाम ले-लेकर आवाज देते रहे, लेकिन वह लोग कौन हैं, कहां हैं, यह किसी को मालूम न था, गांव के बड़े-बुजुर्गों ने सिर्फ अंदाजा लगाया कि साहब अपने बेटे-बेटी और घरवाली को ही आवाजें दे रहे हैं। उनके पुकारने के जवाब में अगर तक्कू या अब्बू बोल देते तो साहब चुप हो जाते थे, फिर अचानक साहब एक रात चीखने-चिल्लाने और रोने लगे। उनकी सांस भी उखड़ने लगी। मुंह से आवाज निकलनी बंद हो गई और साहब इस दुनिया से रुखसत हो गये।
साहब के मरने की चिट्ठी लंदन नहीं भेजी जा सकी, क्योंकि साहब ने जितनी चिट्ठियाँ लिखवाईं थीं और उन चिट्ठियों में मरने की वजहें लिखवाई थी, उनसे साहब न मरे थे। न तो साहब को जूड़ी देकर तेज बुखार आया था, न हैजा हुआ था, न चेचक हुई थी, न सांप के काटे से मरे थे और न कुएं-तालाब में डूबकर मरे थे, न घर में आग लगने से, न डाकुओं ने हत्या की थी।
साहब के नाम विलायत से जो खत आया करते थे। लगातार अपने हिसाब से यानी तीन-चार महीने में एक खत आता रहा। उसको पढ़ता कौन और जवाब कौन देता? इसलिए तक्कू खतों को साहब के काले बक्से में डाल देता था। होते-होते दो साल हो गये। साहब के पांच खत आये थे।
एक दिन गांव में सुनने को मिला कि कलट्टर साहब इलाके के दौरे पर आ रहे हैं और वे गांव भी आएंगे। गांव में आकर वह साहब के बारे में तहक़ीक़ात करेंगे। यह सुनते ही तक्कू और अब्बू को दस्त लग गया था। दोनों के चेहरे पीले पड़ गये थे। गांव में तरह-तरह की बातें फैल गईं थीं। कोई कहता था कि साहब अपनी मौत नहीं मरे हैं। तक्कू और अब्बू ने उनके सामान पर कब्जा जमाने के लिए उनका गला दबाया था। कोई कहता था कि तक्कू और अब्बू ने साहब की आखिरी वसीयत, कि उनकी लाश गांव में ही दफन की जाए, पूरी नहीं की है और इस बात का पता कलट्टर साहब को चल गया है। कोई कहता था कि साहब कलट्टर साहब के सपने में आये थे और उन्होंने तक्कू और अब्बू के बारे में अंग्रेजी में शिकायत की थी। कुछ लोग बताते थे कि साहब की अंग्रेजन ने अंग्रेजी में लिखकर एक शिकायत शहंशाहे इंगलिस्तान को दी थी। यह शिकायत लंदन दरबार से सात समंदर पार हिंदोस्तान आ गई है। उसी पर कार्रवाई करने कलट्टर साहब आ रहे हैं।
बहरहाल, जितने मुंह थे, उतनी ही बातें थीं। तक्कू और अब्बू में मोहर्रम आ गया था। चूल्हा तक न जलता था और औरतें सोग मनाये बैठी थीं। यह भी कहा जा रहा था कि तक्कू और अब्बू की जमीनें कुर्क हो जाएंगी और दोनों को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा। कोई कहता था कि कम-से-कम काला पानी तो भेज ही दिया जाएगा। तक्कू-अब्बू ने खाना-पीना छोड़ दिया था। दिनभर नीम के पेड़ के नीचे पड़े आपस में पता नहीं क्या-क्या बातें किया करते थे। गांव के बड़े-बूढ़े उन्हें समझाते थे कि डरने की कोई बात नहीं है और जार्ज पंचम के दरबार में ऐसी नाइंसाफी नहीं हो सकती। पूरा गांव गवाही देगा कि साहब अपने आप मरे हैं।
कलट्टर साहब की मोटर के लिए कच्चा रास्ता बनने लगा था और पटवारी ने गांव के खाते में बीस बेगारी लिख दिये थे। तो बीस बेगारी जाया करते थे। एक महीने में रास्ता तैयार हुआ था। नवाब हैदर खां के आम के बाग में बड़ा-सा शामियाना लगा था जहां कलट्टर साब को दरबार करना था। शामियाने के पीछे कलट्टर साब के रहने के लिए फूस का बंगला भी तैयार हो गया था। उसके पीछे डिप्टी कलट्टरों, तहसीलदारों, नायबों और दूसरे अमले के लिए छोटे-बड़े हस्बे-हैसियत बंगले तैयार किये गये थे। पीछे अर्दलियों, गुमाश्तों, नौकरों के लिए झोपडि़यां डाली गई थीं। पुलिस के लिए अलग इंतजाम था। मेरठ से गैस बत्तियां, चोर-बत्तियां, मेज-कुर्सियां मंगवाई गईं थीं। कलट्टर साहब के आने से पहले ही पूरा अमला आ गया था। धोबी, भिश्ती, नाई, बावर्ची, खानसामा सब जमा हो गये थे। पूरे इलाके को सांप सूंघ गया था। किसी की हिम्मत न थी कि जोर से सांस भी ले सके।
कलट्टर साहब ने दरबार किया। आखिरी दिन तक्कू और अब्बू की पेशी हुई। यह दोनों साहब का एक-एक सामान लिए हाजिर थे। यहां तक कि साहब का तकिया, दरी और चादर तक ले गये थे। साहब के कागज पत्तर भी उनके साथ थे। कलक्टर साहब ने उन खतों को खोला जो साहब के मरने के बाद आये थे। उन्हें पढ़ा, तक्कू-अब्बू ने साहब से पहले कोई अंग्रेज न देखा था। वह दोनों साहब का लाल चेहरा और भूरे बाल देखकर खौफजदा हो गये थे। दोनों पत्ते की तरह कांप रहे थे और हाथ जोड़े खड़े थे। उनके हलक और जुबान सूख गईं थीं और कुछ पूछा जाता तो बोल न सकते थे।
कलट्टर साहब को वह खत भी दिये गये जो साहब ने इस बाबत लिखकर दिये थे कि अगर उनकी मौत इस तरह से हो तो 'ये' खत डाला जाए और उस तरह से हो तो 'वह' खत डाला जाए। कलट्टर साहब ने उन खतों को भी पढ़ा। डिप्टी साहब से अंग्रेजी में बातचीत की और हुक्म दिया कि तक्कू-अब्बू जा सकते हैं। दोनों किस तरह घर आये थे, ये इन्हें मालूम नहीं, पर दोनों को तेज बुखार आ गया था और औरतें रात-दिन इनके जिस्म पर पीपल के पत्ते फेरा करती थीं। हकीम शफीउल्ला की दो खुराकें रोज दी जाती थीं। अल्लाह-अल्लाह करके पंद्रह दिन में बुखार उतरा था। साहब का सामान इन्हीं लोगों को दे दिया गया था, पर ये दोनों उसे निगाह उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करते थे। किस्मत का करना कुछ ऐसा हुआ कि साहब का भतीजा तक्कू का लड़का जावेद पढ़ाई-लिखाई में तेज निकला और गांव, कस्बे और शहर की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज में दाखिल हो गया। तक्कू और अब्बू ही नहीं बल्कि पूरे गांव को यह यकीन था कि जावेद बैरिस्टर बनेगा और फिर किस्मत ने जोर मारा। जावेद कालेज में अव्वल आया और उसे विलायत जाकर पढ़ाई करने का वजीफा मिल गया। विलायत जाने से पहले वह गांव आया। उसने साहब का वह बड़ा-सा बक्सा खोला जिसमें वह अपने खत रखते थे। साहब को मरे बीस साल हो चुके थे, लेकिन बक्से में उनकी एक-एक चीज करीने से रखी थी। जावेद ने साहब के पास लंदन से आये खतों को पढ़ा और कई पते नोट किये।
जावेद को पानी के जहाज पर बैठाने बंबई तक कई लोग गये थे। वह क्ऽफ्क् का साल था और सितंबर का महीना था। जावेद को लंदन भेजने के लिए उसकी मां तैयार नहीं थी और कहती थी कि जावेद को लंदन भेजा तो मैं सांप के बिल में हाथ डाल दूंगी या संखिया खाके सो जाऊंगी, लेकिन जावेद जानता था कि उसका लंदन जाना कितना जरूरी है। उसने मां को समझा लिया था पर मां को यह मालूम था कि लंदन में गोरी औरतें मर्दों को फंसा लेती हैं, इसलिए मां के जोर डालने पर लंदन जाने से पहले जावेद का निकाह भी कर दिया गया था।
जावेद के लंदन जाने के कोई दो महीने बाद उसका एक खत आया था जिसमें लिखा था कि वह साहब के घर गया था। साहब के लड़के राबर्ट से मिला था और साहब की लड़की विक्टोरिया ने भी उसकी अच्छी खातिर-मदारात की थी। वह दोनों अपने बाप यानी साहब को याद करके बहुत दुःखी हो गये थे कि पता नहीं हिंदुस्तान के गांव में साहब की जिंदगी कैसे कटी होगी? लेकिन जावेद ने जब सब-कुछ उन्हें तफसील से बताया तो उनको कुछ चैन आया था। जावेद ने यह भी लिखा था कि ये लोग साहब का सामान, उनके कागज-पत्तर मांग रहे हैं और चाहते थे कि पार्सल के जरिये साहब का पूरा बक्सा लंदन भेज दिया जाए। तक्कू मियां ने साहब का बक्सा सहारनपुर के मुख्तारे-आम बाबू जानकी प्रसाद मिसरा के जरिये लंदन भिजवा दिया था, जजिस पर इक्कीस रुपये तेरह आने खर्च आया था। यह भी बड़ी बात थी कि तक्कू मियां ने बक्सा भिजवाने पर इतना ज्यादा पैसा खर्च कर दिया था।
यह तो हुई जगबीती। अब मैं आपको आपबीती सुनाता हूं। ऊपरवाले वाकये में, अगर कोई लाग-लपेट है तो उसकी जिम्मेदारी सुनानेवाले पर है। अब जो मैं आपको बताने जा रहा हूं वह मेरे अपने साथ हुआ है और जो हुआ है वह सब सच-सच आपके सामने रख रहा हूं।
जब हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ तो मेरी उम्र चौदह साल थी। मेरा परिवार बुलंदशहर जिले के डिबाई कस्बे में रहता था। इस कस्बे की एक गली को सैयदवाड़ा कहा जाता है। वहीं हम लोग रहते थे। चारों तरफ मारकाट मची थी। हमारे कस्बे और शहर में कुछ न था, लेकिन लोगों के दिमागों के अंदर उथल-पुथल चल रही थी। अचानक एक दिन मेरठ से मेरे मामू आये और बताया कि पूरा खानदान पाकिस्तान जा रहा है। दिल्ली से स्पेशल ट्रेन चल रही है जिसे मिलेट्रीवालों की हिफाजत में भेजा जा रहा है। इससे पहले गई ट्रेनों में बड़ी मारकाट हुई थी, लेकिन इस ट्रेन के साथ ऐसा नहीं होगा। मामू ने कहा कि बड़ी मुश्किल से मैंने इस ट्रेन के दस टिकट हासिल कर लिये हैं, अगर तुम लोग चलना चाहो तो चलो। हमारे अब्बा और अश्मा ने सोचा कि पूरा खानदान ही जा रहा है तो हम लोग यहां रहकर क्या करेंगे? हमने भी बिस्तर बांध लिया। डिबाई में हम लोगों के साथ ही रिश्ते के एक चचा रहते थे। उनके हवाले घर किया और हम लोग जरूरी समान लेकर तड़के दो इक्कों पर सवार होकर इस तरह निकले कि हमारे जाने की किसी को खबर न हो।
इक्कों से हम अलीगढ़ आये। वहां से दिल्ली पहुंचे। दिल्ली के पास फरीदाबाद रेलवे स्टेशन से स्पेशल छूटनी थी। हम वहां गये। मेरी मां ने मेरी बनियान में पांच हजार रुपये सी दिये थे। छोटे भाई के कपड़ों के साथ भी पैसे सिये थे। अब्बा की शेरवानी के अस्तर में पैसे सिये गये थे।
स्टेशन पर ट्रेन आई तो अजीब-सी लगी। हर चार-पांच डिब्बों के बीच एक खुली हुई बोगी लगी थी जिसमें आर्मीवाले रेत के बोरे लगाये, छोटी-छोटी बैरकों में तैनात थे। गार्ड के डिब्बे के पीछे भी एक आर्मी का मोर्चा-जैसा डिब्बा था और इंजन के आगे भी एक इसी तरह का डिब्बा लगाया गया था। सवारी डिब्बों की खिड़कियों पर लकड़ी के तख्ते जड़े हुए थे।
डिब्बे में छप्पन लोगों के बैठने की जगह थी लेकिन उसमें एक सौ छप्पन लोग बैठे थे। यह बता दिया गया था कि गाड़ी पाकिस्तान आने से पहले नहीं रुकेगी, इसलिए जितना जो इंतजाम कर सकता है, करके बैठे। बेहिसाब सामान ले जाने की इजाजत नहीं थी। जो लोग फालतू सामान ले जाना चाहते थे, उन्हें छोड़ दिये जाने की धमकी दी जाती थी।
ट्रेन रवाना हुई। कब रात हो गई पता ही नहीं चला। जो लोग खिड़कियों के पास बैठे थे, वे झिर्रियों से आंखें लगाये कुछ देखकर बता देते थे। अक्सर स्टेशनों के नाम सुनने में आ जाते थे लेकिन गाड़ी वहां रुकती नहीं थी। कुछ देर बाद, आधी रात के आसपास गाड़ी रुक गई। मिलेट्रीवालों ने ट्रेन के दोनों तरफ मोर्चे लगा लिये। आसपास में अचानक तेज रोशनी दिखाई पड़ी और गोलियां चलने की आवाजें आने लगीं। लोगों ने बताया कि आर्मीवाले फसादियों को भगा रहे हैं। पांच-छह घंटे गाड़ी वहीं खड़ी रही। उजाला हो गया तो पता चला कि इंजन यह देखने के लिए आगे चला गया है कि रेल की पटरियां तो उखड़ी हुई नहीं हैं? इंजन वापस आया। ट्रेन में फिर लगा और ट्रेन चली, लेकिन रफ्तार बहुत ही धीमी थी। जैसे फूंक-फूंककर कदम रख रही हो।
डिब्बे के अंदर उठने की तो छोडि़ए, पहलू बदलने की भी जगह न थी। शुरू-शुरू में तो काफी चीख-पुकार थी लेकिन फिर इस तरह सन्नाटा छा गया जैसे कोई जिंदा ही न हो। दिल्ली से लाहौर तक का सफर अड़तालीस घंटे में तय हुआ था।
अब जो कुछ मेरी जिंदगी में हो रहा था, सपना था। रात में मुझे डिबाई के सपने आते थे। मैं लाख चाहता था कि रात में डिबाई के सपने न आएं, लेकिन यह नामुमकिन था। सालों गुजर चुके थे लाहौर आये। शादी हो गई थी। बच्चे हो गये थे लेकिन डिबाई के सपने आना बंद नहीं हुए। मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता था। मैंने बीवी को समझा दिया था कि घबराने की कोई बात नहीं है, मुझे डरावने ख्वाब दिखाई देते हैं। वह बिचारी मेरी बात को सच समझी थी और मुझसे हमदर्दी रखने लगी थी।
साल-पर-साल गुजरते रहे। यहां तक कि मैं बूढ़ा होने लगा। मतलब साठ के ऊपर का हो गया, लेकिन मुझे यही लगता था कि मैं डिबाई में रह रहा हूं। यह वही गली है। इसी गली में शियों की मस्जिद है। आगे चलकर पंडित राम आसरे का घर है। लाहौर की किसी गली से गुजरते हुए मुझे पंडित राम आसरे की आवाज सुनाई पड़ जाती।
मैं कांपने लगता हूं। यार, ये क्या है? मुझे चामुंडा के मंदिर के ऊपर पीपल के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज सुनाई देती है और फिर किसी डगाल से कोई बंदर धम्म से मंदिर की छत पर कूदता है और मेरा कलेजा दहल जाता है। या अल्लाह, मैं क्या करूं?
दिन में तो मैं फिर भी किसी तरह अपने को काबू में रखता, लेकिन रात होते ही, और सोते ही, मैं कुछ नहीं कर सकता। एक पुरानी फिल्म चलने लगती है, जिसमें रोज नया होता है। आज सुइया के पुल पर हम लोग आम खा रहे हैं। महेश गुठलियां पानी में फेंक रहा है। पता नहीं कैसे वह नाले में गिर पड़ा। हम सबने उसे नाले से निकाला। चामुंडा से बाहर निकले तो तेज लू चल रही है और ऐसी गर्मी थी जिसमें चील तक अंडा छोड़ देती है। हम चार दोस्त कर्बला तक आये और गेट के नीचे बैठकर गोटियां खेलने लगे। आज महेश बहुत हारा। वह रोने लगा तो मैंने उसे गुड़ दे दिया, जो मैं अम्मा से छिपाकर अपनी जेब में रखकर लाया था।
रोज रात को एक पुराना सपना नये तरह से दिखाई देता है।
सत्तर साल पार कर जाने के बाद भी सब-कुछ ऐसा ही रहा तो मुझे ख्याल आया-यह पूरा जनम तो 'इस' संसार में बिता लिया। अब दूसरा जनम जाने कहां होगा तो क्यों न वह जगह देखी जाए जहां जीवनभर रहा हूं। लाहौर में तो मैं रहा ही नहीं।
हिसाब-खिताब देखा, पैसा-वैसा तो ठीक ही है। दोनों बच्चे पढ़-लिख गये हैं। शादियां हो गई हैं, बच्चे हो गये हैं। पूरी तरह सेटल हैं, लेकिन मैं 'सेटल' नहीं हूं। तो मैं अपने को 'सेटल' करने का काम शुरू कर सकता हूं।
भारत के वीजा के लिए अप्लाई किया। वजह बतानेवाले कालम में लिखा 'अपने को सेटेल' करना। इस पर वीजा आफिसर बहुत हँसा। बोला, जनाब...कोई समझ में आनेवाली वजह लिखिए। बिजनेस करना, शादी में जाना है, कोई गमी हो गई है। वगैरा...वगैरा...?
मैंने लिखा, 'क्या गमी हो सकती है?' वह फिर चिढ़ गया और मुझसे पूछे बगैर लिख दिया 'गमी हो गई है।'
रात अपने बेडरूम में लेटकर मैं देर तक भारत के वीजे को देखता रहा और डरता रहा। एक अजीब तरह का डर जिसे बताया नहीं जा सकता। भारत के साथ लड़ाइयां, भारत के खिलाफ नफरतभरा 'प्रोपेगेंडा'। भारत में हिंदू-मुस्लिम फसादात...सब-कुछ आंखों के सामने घूमने लगा, लेकिन फिर खयाल आया मैं भारत कहां जा रहा हूं, मैं तो डिबाई जा रहा हूं जिसे मैं सोते में अब भी देखता रहता हूं, जहां की आवाजें मुझे चाहे-अनचाहे सुनाई देती रहती हैं। चामुंडा के मंदिर के बराबर पीपल के पेड़ पर बंदरों की कें..कें..कें.. मेरे कानों में कहीं भी गूंज जाती है, लेकिन डिबाई जाने के लिए भारत जाना पड़ेगा। भारत में मुझे कोई पकड़ न ले? मुझ पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम तो लगाया ही जा सकता है। मुझे मुसलमान समझकर भी नुकसान पहुंचाया जा सकता है। हिंदू-मुस्लिम फसाद हो गया तो मैं भाग भी न पाऊंगा। जिस-जिस हिंदू को पता चलेगा कि मैं पाकिस्तानी हूं वह नफरत से मेरी तरफ देखेगा। मैं बुढ़ापे में यह सब बर्दाश्त कर पाऊंगा? अगर नहीं तो फिर मैं क्यों जा रहा हूं? तो क्या न जाऊं?...लगा किसी ने सिर पर एक भारी पत्थर मार दिया हो। चामुंडा के मंदिर की छत पर बंदर कूदने लगे...आम के बाग में कुंजड़ों का खटहरा चीखने लगा...मैं जाऊंगा...जरूर जाऊंगा...क्यों कोई मुझे मारेगा? क्या मेरे चेहरे पर लिखा है कि मैं मुसलमान हूं? मैं दाढ़ी नहीं रखता, मेरे माथे पर गट्टस्न नहीं है। मैं कट्टर मुसलमानोंवाले कपड़े नहीं पहनता...कोई मुझे क्यों पहचानेगा कि मैं मुसलमान हूं।