मन आनंदोमुखी है / ओशो
प्रवचनमाला
एक साधु कल आये थे। ध्यान की साधना पर उनसे बातें हुई हैं। यह जानकार बहुत आश्चर्य होता है कि मन के स्वरूप के संबंध में कितनी भ्रांत और मिथ्या धारणाएं प्रचलित हैं। उसे शत्रु मानकर साधना प्रारंभ करने से सब साधना गलत हो जाती हैं। न मन शत्रु है, न शरीर शत्रु है। वे तो यंत्र हैं और सहयोगी हैं। चेतना उनका जैसा उपयोग करना चाहे, कर सकती है। प्रारंभ से ही शत्रुता और संघर्ष की वृत्ति-दमन करती है। और परिणाम स्वरूप सारा जीवन विषाक्त हो जाता है।
मनुष्य का मन स्वभावत: आनंदोमुखी है। इससे कुछ बुरा भी नहीं है। यह तो उसका स्वरूप के प्रति आकर्षण है। यह न हो, तो व्यक्ति कभी आत्मिक जीवन की ओर नहीं जा सकता। यह मन आनंद की खोज संसार में करता है और फिर जब उसे वहां नहीं पाता है, तो भीतर की ओर मुड़ता है।
आनंद केंद्र है-संसार का भी, मोक्ष का भी। उसकी धुरी पर ही सारा लौकिक-पारलौकिक जीवन घूमता है।
इस आनंद की झलक बाहर दिखती है, इससे बाहर दौड़ होती है। ध्यान से इस आनंद का वास्तविक स्रोत दिखने लगता है, इससे दिशा वहां मुड़ जाती है। मन को जबरदस्ती भीतर नहीं मोड़ना है। इस दमन से ही वह शत्रु मालूम होने लगता है। आनंद का नया आयाम खोलना है। इस आयाम के खुलते ही मन अपने आप भीतर जाता पाया जाता है। वह तो आनंदोमुखी है। जहां आनंद है, वहां उसकी सहज गति है।
आनंद जीवन का लक्ष्य है। आनंद-अखंड आनंद, जीवन का उद्देश्य है। संसार में उसकी झलक है- प्रतिफलन है। मोक्ष में उसका मूलस्रोत है। बाहर उसका प्रक्षेप है, भीतर उसका मूल है। परिधि पर छाया है, केंद्र उसके प्राण हैं।
इससे संसार-मोक्ष का विरोधी नहीं है। बाहर-भीतर का शत्रु नहीं है। समस्त सत्ता एक संगीत है। इस सत्य के दर्शन होते ही व्यक्ति बंधन के बाहर हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)