मन उदासी से भर गया / निर्मल भुराडिया
आज सुबह जब दैनिक भास्कर खोला और पाया कि आदरणीय जयप्रकाश चौकसेजी अपने नियमित स्तंभ से विदा ले रहे हैं, तो मन उदासी से भर गया। चौकसे सर के असंख्य प्रशंसकों का भी यही हाल हुआ होगा। वर्षों से आदत रही है कि भास्कर उठाते ही सर का कॉलम पहले पढ़ती हूं। समाचार, आलेख, विश्लेषण आदि सब बाद में। चौकसे जी का कॉलम हमेशा श्री गणेश ही रहा है। सिनेमा संबंधी लेखन को बहुत से लोग सस्ता लेखन मानते हैं, हालांकि यह गलत है और चौकसेजी ने अपने लेखन से इस गलत को गलत साबित कर भी दिया। उन्होंने सिनेमा के जरिए लिखे जाने वाले इस कॉलम में साहित्य, समाज, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति जैसे जीवन के असंख्य आयामों को जिस तरह पिरोया है वह अनुपम और अद्वितीय है। सिनेमा की आंख से देखते हुए समाज के हर पहलू के लिए इस तरह का गहरा, साहसिक और क्रांतिकारी लेखन भी किया जा सकता है यह उन्होंने साबित कर दिखाया है। चौकसे सर की कलम ने हमेशा एक कैटेलिस्ट का काम किया है, एक ऐसा उत्प्रेरक जो आपकी विचार प्रक्रिया को जगाता है, आंदोलित करता है और दिशा भी देता है। मैं हमेशा मित्रों से कहती आई हूं कि यदि चौकसे सर का कोई फैन क्लब है तो उसकी पहली सदस्य मैं हूं। फिलहाल तो उम्मीद की डोर उनके लिखे इस वाक्य पर बांध रही हूं,"यह विदा है, अलविदा नहीं, विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूं।"