मन और प्राण / बालकृष्ण भट्ट
मनुष्य के शरीर में ये दोनों बड़े काम के हैं। ऐं हमने क्या कहा मनुष्य के शरीर में हैं? और हैं तो कहाँ पर हैं? आप कहेंगे यह प्राण वायु गिनती में पाँच हैं और संपूर्ण शरीर भर में व्याप्त हैं।
हृदि प्राणों गदेSपान: समानो नाभि मण्डले।
उदान: कण्ठ देशस्थो व्यान: सर्व शरीरग:।।
हृदय में प्राण वायु है, गुर्दा से जो हवा निकलती है उसका नाम अपान है, समान नामक वायु का स्थान नाभि मण्डल है कण्ठ देश में जो वायु है जिससे डकार होती है वह उदान वायु है और व्यान नामक वायु है सो संपूर्ण शरीर में व्याप्त रह रक्त संचालन करता है। अस्तु, प्राण की व्यवस्था तो हो चुकी अब बतलाइये आप का मन कहाँ है हृदय में या मस्तिष्क में या सर्वेन्द्रिय में फैला हुआ होकर जुदी-जुदी इन्द्रियों के जुदे-जुदे कामों का ज्ञान मन स्वयं अनुभव करता है। लोग कहते हैं जो कोई किसी का प्राण ले उसके बदले में जब तक उसका प्राण भी न लिया जाय तब तक बदला नहीं चुकता किन्तु मन जब कोई किसी का ले लेता है वह उसी का हो जाता है। ईश्वर न करे हमारा मन किसी पर आ जाय तब हमको उसका दास बन जाना पड़ेगा। न विश्वास हो तो किसी नवयुवा, नवयुवती से पूछ लो जिसका मन बहुत जल्द छिन जाता है। संसार में यही एक ऐसी वस्तु है कि हर जाने पर फिर नहीं लौटायी जा सकती है। सच पूछिये तो कवियों को, प्रणयिनी-प्रणयी यही दोनों के आवप में मन हर लेने के किस्सों का, कविता के लिये बड़ा सहारा है। भवभूंति के 'मालतीमाधव' में कोकिल-कण्ठ जगदेव के 'गीत-गोविन्द' में, महाकवि श्रीहर्ष के 'नैषध' में, सम्पूर्ण ग्रन्थ भर में यही है और अनेक अनूठी उक्ति, युक्ति की नई-नई छटायें दी गई हैं, सिवाय इसके लैला-मजनूँ और यूसुफ-जुलेखा के किस्सों की भी यही बुनियाद है। वास्तव में हरा तो जाता है मन पर प्रणयिनी या प्रणयी की वियोग-जनित यातना प्राण ही को भोगना पड़ता है। 'विक्रमोर्वशीय' नामक में पुरूरवा का मन उर्वशी से छिन जाने पर पुरूरवा को जो-जो यातना भोगनी पड़ी केवल उतना ही उस नाटक का एकमात्र विषय है। किसी कवि ने किसी नायिका के अंग की कोमलता के वर्णन में बड़ी अनूठी उक्ति-युक्ति का यह श्लोक दिया है-
"तव विरहविधुरबाला सद्य: प्राणान्विमुक्तवती।
दुर्लभमीदृशमंगं मत्वा न ते तामजहु:।"
किसी वियोगिनी का वृत्तांत कोई उसके प्रणयी से कहता है। उस बाला ने तुम्हारे वियोग में विधुरा हो तत्काल प्राण त्याग कर दिया, किन्तु ऐसे कोमल अंग अपने रहने के लिये अब और कहाँ मिलने वाले हैं यह समझ प्राणों ने उसे न छोड़ा। और भी-
अपसारय घनसारं कुरू हारं दूर एवं किं कमलै
अलमालमालि मृडालैरिति रुदति दिवानिशं बाला।।
किंकरोमि क्वगच्छामि रामो नास्ति महीतले।
कान्ता विरहजं दु:खमेको जानाति राघव:।।
मन और प्राण दोनों एक वस्तु हैं कि दो और ये दोनों क्या वस्तु हैं और कैसे इन दोनों की आप विवेचना करेंगे? यह रोशनी है। हवा है विद्युत शक्ति है। या कोई दूसरी वस्तु है। दोनों मिल के काम करते हैं कि अलग-अलग? जो मिल के काम करते हैं तो जब प्राण निकल जाता है तब मन कहाँ रहता है? प्राण के अधीन मन है कि मन के अधीन प्राण? जिसमें प्राण रहता है उसे प्राणी कहते हैं जिसमें मन है वह मनई है। वह क्या है जिसके अधीन ये दोनों हैं अर्थात जो यह कह रहा है हम बड़े हैं, हम छोटे हैं, हमारा प्राण निकल गया, हमारा मन हर गया, हमारा मन नहीं चाहता, मन नहीं लगता, यह सब कहने वाला कोई तीसरा व्यक्ति है या इन्हीं दोनों का मेल है, और ये दोनों घटते-बढ़ते हैं या जैसे के तैसे बने रहते हैं? सुना है योगी-जन प्राण ब्रह्माण्ड में चढ़ा वर्षों तक उसे अलग रख लेते हैं। हिन्दु मुसलमान तथा अँगरेजों में ऐसे विद्वान हुए हैं जिन्होंने मन की बड़ी-बड़ी ताकतें प्रगट की है। मिसमेरेजिम इत्यादि। थियोसोफिस्ट लोगों के लिये मन बड़ी भारी चीज है जिसके संबंध में वे लोग अब तक नई-नई बातें निकालते जाते हैं। मुसलमानों में रोशन-जमीन किसे कहते हैं? योग-शास्त्र में जैसा इसका विस्तार है, उसका वर्णन करने लगें तो न जानिये कि बड़े-बड़े ग्रन्थ इसके बारे में लिखे जा सकते हैं। हमारे प्राचीन आर्यों ने मन के संबंध में जहाँ तक तलाश किया है वैसा अब तक किसी कौम के लोगों ने नहीं किया।
मन: कृतं कृतं लोके न शरीरकृतं कृतम्।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:।।
जो कुछ काम हम करते हैं वह मन का किया होता है। हाथ-पाँव से हम काम करते हैं सही पर मनोयोग जब तक उस काम पर न हो तब तक वह काम, काम न समझा जायेगा। बंधन में पड़ जाने को या बंधन से मुक्त होने का हेतु केवल मन है। योग-वाशिष्ट और भगवद्गीता में मन के संबंध में अनेक बातें लिखी हैं पर प्राण मिश्रित मन के बारे में जो हमारे अनेक तर्क-वितर्क हैं, उनका उत्तर कहीं से नहीं मिलता और यह पहेली बिना हल हुए जैसी की तैसी रही जाती है।
अगस्त, 1897 ई.