मन की पाँखें / सुरंगमा यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रकृति और जीवन के विविध रंग-मन की पाँखें

डॉ0 राजीव कुमार पाण्डेय हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में सृजनरत हैं। 'मन की पाँखें' आपकी प्रथम हाइकु कृति है। जैसा नाम से ही प्रकट होता मन पंख लगाकर धरा से आकाश तक उड़ान भरता है और अनेकानेक भावों को समेट कर बड़ी कुशलता से सबसे छोटी कविता हाइकु के माध्यम से सहृदय तक संप्रेषित कर देता है। 'मन की पाँखें' आकर्षक आवरण वाली सजिल्द पुस्तक है। इसकी भूमिका सुप्रसिद्ध हाइकुकार परम आदरणीया डॉ0 मिथिलेश दीक्षित जी ने लिखी है। जो इस कृति की विशेष उपलब्धि है। इसमें संग्रहीत लगभग सभी हाइकु एक विशेष प्रभाव छोड़ते हैं। इनमें सांस्कृतिक परंपराएँ, प्रकृति सौंदर्य, प्रेम निरूपण, प्रतीक योजना, मानवीय संवेदनाएँ, लोकतत्त्व, दार्शनिकता, समाजपरक चिंतन आदि की छटा बिखरी पड़ी है।

हमारी भारतीय संस्कृति में ये परंपरा रही है कि किसी भी शुभ काम का प्रारंभ पूजा-अर्चना और वंदना से करते हैं। कवि ने अपनी उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए हाइकु कविताओं का शुभारंभ माँ शारदे की स्तुति से किया है-

वरद हस्त / नव सर्जन हित / मातु दीजिए

मैं अकिंचन / अम्ब विमल मति / मेरी कर दो

हंसवाहिनी / माँ धवल धारिणी / कृपा रस दो

प्रकृति के अनुपम सौंदर्य और उसके संकेतों को कवि ने बहुत तन्मयता से महसूस किया है। उनकी हाइकु कविताओं में प्रकृति अपने कोमल और कठोर दोनों रूपों में प्रकट हुई है। मेघों की स्नेहसिक्त फुहारें पाकर धरा की कोख से नव अंकुर फूट पड़ना, मेघ गर्जन पर मयूर नर्तन, कलियों को देखकर पगडंडियों का महकना, पलाश का खिलना, कोयल का मीठे स्वर में कुहुकना, मलय पर्वत से आने वाली त्रविध समीर का बहना, बूँदों का स्पर्श पाकर सुगंध लुटाती धरा, बसंत ऋतु में पीली चुनरी ओढ़े इठलाती पूरी प्रकृति मन को आह्लादित कर देती है। प्रकृति के विविध वर्णी रूप की एक बानगी प्रस्तुत है-

धरा के बीज / रिमझिम फुहार / पा मुसकाये

मेघ गर्जन / मयूरों का नर्तन / ग्रीष्म मर्दन

खिला पलाश / ले के अंगड़ाइयाँ / हँसा आकाश

गंध बिखेरे / मलय पवन भी / साँझ सवेरे

प्रकृति मनुष्य की चिर सहचरी है। लेकिन कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ भारी विनाश का कारण बन जाती हैं। प्रकृति जब अपने उग्र रूप में प्रकट होती है तो मानव का उस पर कोई वश नहीं चलता। कितनी सभ्यताएँ प्रकृति के कोप का भाजन बन चुकी हैं-

आंधी के झोंके / प्रकृति का कहर / किसने रोके

जहाँ भी आया / धरती का कंपन / सभ्यता नष्ट

शब्द हमेशा / निरूत्तरित होता / प्रलय देख

एक सहृदय साहित्यकार अपनी प्रणय भावना को बड़े संयत ढंग से अभिव्यक्त करता है-

अमर प्रेम / समर्पण पाकर / श्री वृद्धि पाता

प्रेम बढ़े तो / महके उपवन / बिना बहाने

तिरछी दृष्टि / नयनों का काजल / प्रिय बुलाये

प्रतीकों का सुंदर प्रयोग इस हाइकु संग्रह की एक अन्य विशेषता है-

प्याजी छिलके / देख देख मचले / डिगे धर्म से

आम बौराया / प्रदूषित व्यवस्था / फल न पाया

भौंकता स्वान / रीझता रोटी पर / छोड़ता शान

नीड़ में शिशु / आसमान ताकता / भूख प्यास से

राजीव जी की हाइकु रचनाओं में लोकतत्त्व भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। लौकिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अलग-अलग रूप यहाँ देखाने को मिलते हैं। विभिन्न पर्वोत्सवों की दृष्टि से भारतीय लोक जीवन बड़ा समृद्ध रहा है। ये त्यौहार हमारे जीवन में ऊर्जा का संचार करते हैं तथा सम्बंधों में प्रगाढ़ता लाते हैं। एक प्रचलित कहावत है कि हमारे यहाँ प्रत्येक दिन त्यौहार ही होता है। हर तिथि के साथ कोई न कोई किंवदंती जुड़ी हुई है-

सभी तिथियाँ / लिए किंवदंतियाँ / अनोखा देश

पीपल पास / जनश्रुति है खास / ब्रह्म निवास

ऋतु पावस / तिथि हो अमावस / प्रिय मिलन

शनि पूजन / अमंगल मंगल / हो न दंगल

कठिन व्रत / महिलाएँ रखतीं / सुहाग हित

खोखली परंपराओं और रूढ़ियों पर कवि ने व्यंग्य भी किया है-

मन संतोषी / पितरे खिलाकर / काग रूप में

आशीष देंगे / स्वर्ग में बैठकर / विश्वास करें

कवि का मन मानवीय संवेदनाओं से भरा हुआ है। बढ़ती हुई मंहगाई, गरीबी का दंश झेलता निम्न वर्ग, मजदूरी करता बचपन उनके मन को द्रवित कर देता-

देख वेदना / यथार्थ जीवन की / नयन भरे

चूल्हा भी ठण्डा / त्योहार भी निकला / कटोरे संग

सत्य बात है / रो रहे फुटपाथ / मंहगाई में

होटलों पर / भारतीय भविष्य / बर्तन धोता

भोगवादी प्रवृत्ति के कारण बढ़ती लालसाएँ पतन का कारण बन रही हैं-

बढ़ती भूख / रह रह मन में / उठती हूक

बिकते देखे / अपनी व्यवस्था में / सत्यवादी भी

है खाली पेट / पर चाहिए इन्हें / इंटरनेट

महिलाओं से जुड़ी तमाम समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं जिनका समाधान होना बाक़ी है। दहेज, भ्रूण हत्या, दुष्कर्म आदि समाज के माथे पर कलंक के समान हैं-

दहेज बिना / आजकल लड़की / सिर्फ ईंधन

युग बदला / कूड़ेदान की चीख / कुत्तों ने सुनी

बनते वीर / दुर्बल नारियों का / खींचते चीर

विवश नारी / अस्मत को गँवाया / बनी माँ क्वारी

पूछिए मत / सुरक्षा कवच में / कितने छेद

हाइकुकार ने समाज में व्याप्त विसंगतियों और संकीर्ण मानसिकता को उजागर करते हुए उनका विरोध किया है। उसे देश और समाज की चिंता है। बालक, युवा, वृद्ध अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहे हैं। बचपन बस्तों के बोझ तले दब रहा है, युवा बेराजगार है, वृद्धों को अकेलेपन ने घेर रखा है। दूषित राजनीति समाज को जाति और धर्म के नाम पर बाँट रही है-

भारी बस्ते में / दबता बचपन / उपाय खोजें

बिकती शिक्षा / घटते रोजगार / दूषित हवा

मन की बातें / अपनों से करता / अकेलापन

विकास हारा / चुनाव में केवल / जातियाँ जीतीं

कवि ने शहर के कारखानों से निकलने वाले जहर, हिन्दी की दीन दशा तथा अंग्रेज़ी का वर्चस्व, काले धन की समस्या, सम्बंधों में बढ़ती स्वार्थपरता, साधु-संतों पर लगते प्रश्न चिन्ह, समाज में बढ़ती अव्यवस्था, चारित्रिक पतन, बढ़ता हुआ कंक्रीट का वन, मानव के प्रकृति विरोधी कृत्य आदि पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। लेकिन वे भविष्य के प्रति आशान्वित हैं-

संयम रखें / सीता राम का युग / भविष्यागत

राजीव जी बहुत ही संवेदनशील रचनाकार हैं। प्रकृति और जीवन के विविध रंगों से सजा उनका हाइकु संग्रह 'मन की पाँखें' निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। उनके हाइकु सद्विचारों के वाहक हैं। उनका चिंतन मूल्यपरक है। इस संग्रह से हिन्दी हाइकु साहित्य समृद्ध होगा, ऐसा हमें दृढ़ विश्वास है। इस सुंदर, मनभावन और संदेशपरक सर्जन के लिए डॉ. राजीव कुमार पाण्डेय जी को बधाई एवं अशेष शुभकामनाएँ!

मन की पाँखें (हाइकु- संग्रह) : डॉ. राजीव कुमार पाण्डेय, पृ0 105, मूल्य 175/- प्रकाशन वर्ष :2017,प्रकाशक-हर्फ़ मीडिया,बी-84 ग्राउंड फ्लोर, नई दिल्ली- 110059

-0-