मन की यात्रा / देवी नांगरानी
चलती हुई गाड़ी की धड़-धड़ाधड़-धड़ आवाज़ों में उसके दिल का शोर भी शामिल था. गुमसुम सी बैठी राधा अपनी सीट पर कई घंटों से लेटे-लेटे अपने जीवन की यात्रा को अतीत के साथ जोड़ती रही। आज वह अपने घर चेनई लौट रही थी, जिस आँगन की नींव उसने अपने पति के साथ, 40 साल पहले घर में प्रवेश करते हुए रखी थी। आज इस बात का उसे आभास ही नहीं, यक़ीन सा होता रहा कि मौसम का काल-चक्र बदले बिना नहीं रह सकता। यहीं आकर बदलाव नियति बन जाता है। उस आँगन में बहारें आईं थीं, फूल खिलकर महके थे, पर महक भँवरे भी चुरा ले जाते हैं कभी-कभी ... नहीं! उसने अपनी सोच को ब्रेक दिया।
सामने बर्थ पर मुसाफ़िर कुछ जागे हुए थे, कुछ बैठे हुए और कुछ हाथ-मुंह धोकर अपनी सीटों पर विराजमान होते रहे। वह भी उठी, अपनी चादर समेटी और खिड़की के साथ सटकर बैठ गयी। पिछले चार सालों से वह सिमटाव के दायिरे में धँसती जा रही थी, उसे ऐसा लगने लगा जैसे उसके लबों पर हंसी के स्थान पर संजीदा मौन आन बिरजा था।
सुबह का उजलापन, सूर्य की शीतल किरणों से और रौशन हुआ। उस शफाक़ सवेरे में गाड़ी किसी स्टेशन पर रुक गयी, कुछ मुसाफिर उतरे, कुछ आगे जाने के लिए चढ़े। “चाय-चाय” की आवाज़ों के साथ जवान लड़के हाथों में कप और चाय की केटली लेकर यहाँ से वहाँ लोगों को उठाने के प्रयास में आवाज़ें देते हुए गाड़ी के भीतर दाखिल हो रहे थे। राधा ने भी एक प्याली चाय लेकर रात भर का अनशन व्रत तोड़ा... गाड़ी धीरे धीरे मंज़िल की ओर सरकने लगी।
“आप कहाँ जा रही हैं बहन?” एक सभ्य आवाज़ ने उसके मौन के चक्रव्यूह में दख्ल दिया। अब वह सामने बैठे एक सभ्य दंपति से मुखातिब हुई। “जी चेनई, और आप?” राधा ने तत्पर कहा। “हम भी वहीं रहते हैं और दो वर्ष के बाद अपने घर जा रहे हैं।“ मर्द ने जवाब में पहल की। “ कहाँ से आ रहे हैं आप?’ राधा ने औरत की ओर अपनी सवाली नज़रें फेरीं। “ जी सिडनी से आ रहे हैं, दिल्ली से होते हुए अब चेनई जा रहे हैं, और आप?” औरत ने प्रतिउत्तर में कहा और प्रश्न भरी दृष्टी से की ओर देखा। अब सवाल-जवाब का सिलसिला मुसलसल बनता जा रहा था। “जी मैं सैनफ्रान्सिस्को से अपने घर छः साल बाद लौट रही हूँ।“ राधा ने कहा और फिर खुद को संभालती हुई खिड़की के बाहर देखते हुए अपने भीतर और बाहर के शोर में न जाने कहाँ खो गई। वह भी तो इन बीते बरसों के बाद उस छोटी सी हवेली के आँगन में पैर रखेगी जहां उसने ज़िंदगी शुरू की थी। एक मृदुल एहसास उसे छू गया। वह बीस बरस की थी जब उसका विवाह राकेश खन्ना से हुआ, वही राकेश जो उसके माथे की बिंदी को लेकर अक्सर उसे रश्क भरे स्वर में छेड़ते हुए उसके सौंदर्य में खो जाता। कभी तो उसकी आँखों की गहराइयों में जाने क्या खोजने का प्रयास करता, और राधा उस पल को अपनी मुहब्बत भरी ज़िंदगी की सौग़ात समझकर अपनी यादों की वादी में सँजोये रखती।
"वहाँ आप किसके पास गई थी?” इस सवाल ने उसे फिर अतीत में लाकर खड़ा कर दिया। “जी मेरे दो बेटे हैं वहाँ, उन्हें के पास!” कहकर राधा फिर मौन के कोहरे में खो गई। “ओह!” कहकर पुरुष ने ठंडी सांस ली। “आप भी किन बातों को ले बैठे “ अपने पति की ओर देखते हुए पत्नी नरमी से उनके घुटने सहलाने लगी। “ क्या आपके परिवार के सदस्य भी वहाँ सिडनी में है? “ अब राधा ने अपने बचाव के लिए सवालों का सहारा लेना बेहतर समझा। “ जी मेरे दोनों बच्चे –बेटा और बेटी वहीं बस गए हैं, दोनों शादी-शुदा है।“ “ओह!” जाने क्यों चाहे-अनचाहे राधा के मुंह से निकला। सामने बैठे दंपति के साथ अजनबीपन का रिश्ता ही सही, पर जुड़ा ज़रूर था, और अब वार्तालाप ने धीरे-धीरे अजनबीपन की गांठें खोलनी शुरू की। अपनत्व की आंच से मन की तहों में जमी हुई, थमी हुई अपने ही दुख की परतें पिघलने लगीं। दुख भी क्या अजब एहसास है, अपनी ही आँख की नमी में बर्फ़ की तरह पिघल जाता है। राधा की आँखें पुरनम थीं और अपने कल में फिर खो गई। “ नहीं माँ आप हमेशा मेरे पास नहीं रह सकती है, हमें भी कुछ आज़ादी चाहिए, आप छः महीने विनोद भैया के पास और छः महीने मेरे पास रह सकती हैं, यही हम सब के लिए ठीक होगा”-कहकर वह ऑफिस चला गया और कुछ ही देर में उसकी पत्नी विभा भी तैयार होकर आई “माँ मैं जाती हूँ” कहकर दरवाजे के बाहर निकाल गई, बस घर की चारदीवारी में रह गई सन्नाटे से घिरी राधा और मासूम ‘रचना’ जो दो साल की होते हुए भी उसकी उंगली पकड़ कर खड़ी रही और अपनी दादी की आँखों में झाँकती रही। शायद ज़िंदगी को पहचानने का उसका यह पहला प्रयास था। और उसी शाम राधा ने अपने बिखरे अस्तित्व को समेटते एक कठोर निर्णय लिया। शाम के पहले विभा लौट आई और फिर अनमोल, तीनों ने चाय के मौन घूंट पिये। राधा ने अनमोल की ओर देखते हुए कहा –“अनमोल, मैंने तय किया है कि अब मैं यहाँ, कहीं भी किसी के पास नहीं रहूँगी, अपने घर चेनई जाना चाहती हूँ, मेरे जाने का इंतेजाम कर दो तो बेहतर होगा।“ माँ की कठोर आवाज़ में सुनाया गया वह निर्णय उसे किसी हद तक हिला गया। यह सब उसका ही तो किया धरा था जिसका नतीजा माँ का “निर्णय” बनकर सामने आया था। “माँ मेरे कहने का यह मतलब नहीं था, मैं चाह रहा था कि विनोद भैया भी कुछ जवाबदारी लें” “अनमोल जो तुमने कहा वह अपनी जगह ठीक है। पर यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी कि किसी दिन विनोद भी मेरे सामने ऐसी ही कोई अवस्था खड़ी करे और मैं फिर से निरधार हो जाऊँ। अब मैंने फैसला कर लिया है कि मैं अपने घर लौटूँगी और वहीं रहूँगी, तुम अपने बच्चों के साथ खुश रहो यही मेरी शुभकामना है। गाड़ी कि रफ्तार के साथ राधा की सोच की रफ्तार भी बढ़ती रही, और बीते आठ सालों के नितांत तन्हा सफ़र की लंबी यादें उसके आस-पास मंडराने लगी। जब उसके पति का देहांत हुआ तब पिता के निधन पर श्र्द्धांजली देने विनोद आया, छोटा अनमोल न आ पाया। बारह दिन रहा और बारंबार माँ को घर बेचकर, उनके साथ परदेस में बस जाने की सलाह देता रहा। “माँ आपका अब यहाँ अकेला रहना उचित नहीं, वहाँ आपके दो घर है, बहुओं और पोते-पोतियों के बीच आपका मन रम जाएगा” माँ सुनती रही, मन लहूलुहान हुआ, रोया, छटपटाया, पर मन किसी भी बात का विरोध न कर पाया। कुछ महीनों बाद जब अनमोल-विभा आए तो अनेक तक़ाज़ों के बाद वह उनके साथ जाने को राज़ी हुई, पर घर को बेचने वाली बात पर वह कतई सहमत नहीं हुई। जाने ज़िंदगी के किस मोड़ पर उसे अपने घर में पनाह मिल जाए, यही सोचते हुए वह बेटों की दी हुई किसी भी राय से हमराय न हो सकी। सोचों के गलियारे से बाहर झाँकते हुए राधा की आँखें जब सामने दंपति से मिली, तो आँखों की नमी बहुत कुछ अनकहा कह गई। “मेरा नाम रामेश्वर है, और मेरी पत्नी का नाम करुणा, आप हमें नाम से बुला सकती है” कहते हुए पुरुष ने अपनाइयत की एक और कड़ी जोड़कर पहल करते हुए कहा “ बहन हम अपने बच्चों को न छोड़ पाये, इसलिए अपना घर आँगन छोड़कर उनकी धरोहर बन गए पर अब बच्चों ने हमें छोड़ दिया है।“
आगे वह कह नहीं पाया और राधा सुन न पाई। मन का मंथन बता गया कि सांझा दर्द ही दर्द की दवा बन जाता है और शायद दर्द का बंटवारा घुटन के कोहरे को छांट देता है। “भाई साहब, मैं भी कुछ ऐसा ही निर्णय लेकर अपने घर लौट रही हूँ। हमने बच्चों को पाला, हमारा फर्ज़ था, अगर बच्चे हमें नहीं पल सकते तो यही सही, भगवान उन्हें खुश रखे।“ कहते हुए राधा ने अपने तमाम आंसू साड़ी के पलू से सोख लिए। “ ओह तो आप भी वह माँ हैं जो ज़र्द सूखे पत्तों की तरह वक़्त की बेदर्द हवाओं के रुख के बहाव से खुद को बचा आई हैं।“ कहते हुए करुणा ने पहली बार दर्द की जमी हुई परतों तो तोड़ने का प्रयास किया। “क्या मतलब?” राधा की आँखों में एक मौन सवाल था। ‘बहन बुरा मत मानना, हम भी आपकी तरह दोनों बच्चों के बेमर्म बेबाकियों भरे व्याहवार से खुद को आज़ाद करा आए हैं, अब अपनी पुरानी दुनिया में लौटन चाहते हैं। उन्होनें हमें तज दिया, इसलिए कि हम चेनाई का वह पुश्तैनी मकान उनकी चाहत अनुसार बेच नहीं पाये। और शायद यह भी हमारे लिए एक छुपा हुआ वरदान बन गया, वरना आज हम बेऔलाद तो हुए हैं, बेघर भी हो जाते।“ कह कर पुरुषोतम जी सामान समेटने लगे शायद स्टेशन करीब थी।
सफ़र कब समाप्त हुआ उनमें से किसी को पता नहीं पड़ा, पर मंज़िल सामने थी इतना ज़रूर जाना। पुरुषोतम जी व करुणा सामान सहित नीचे उतरे और फिर उन्होनें राधा का सामान उतारने में मदद की। एक दूसरे से विदा लेकर मुसाफ़िर अपनी-अपनी दिशा में आगे और आगे बढ़ते रहे, एक और नया सफ़र शुरू करने के लिए !!