मन के गुण / बालकृष्ण भट्ट
भगवान् कृष्णचंद्र ने गीता में मानस तप को लक्ष्य कर मन के गुण इस भाँति कहा है-
मन: प्रसाद: सौम्ययत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
मन: प्रसाद अर्थात मन की स्वच्छता, सौम्यता या सौमनस्य जो बहुधा तभी होगा जब बाहरी विषयों की चिंता में मन व्यग्र और व्याकुल न हो। बाहर से विनीत और सौम्य बनना कुछ और ही बात है मन का सौम्य कुछ और ही है। जिसकी बड़ी पहचान एक यह भी है कि किसी का अनिष्ट न चाहेगा वरन् सबों के हित की इच्छा रखेगा। तीसरा गुण मन का श्रीकृष्ण भगवान ने मौन कहा है मौन अर्थात् मुनि भाव। एकाग्रता पूर्वक अपने को सोचना कि हम कौन हैं जिसका दूसरा नाम निदिध्यासन भी है। वाक्-संयम न बोलना या कम बोलना भी मन के संयम का हेतु है। मुनि भाव का लक्षण श्रीमद्भगवत में इस तरह पर दिया गया है-
मुनि: प्रसन्नो गंभीरो दुर्विगाह्यो दुरत्यय:।
अनन्त पारो ह्यक्षोभ्य: स्तिमितोद इवार्णव:।।
मुनि वह है जो सदा प्रसन्न अर्थात विमल चित्त हो, गंभीर अर्थात जिसकी थाह लेना सहज काम न हो, न जिसका पार किसी ने पाया हो जिसे कोई क्षुब्ध चलायमान न कर सके, ये सब गुण स्थिर सागर के हैं, सागर के सदृश्य जिसका मन हो वह मुनि कहा जा सकता है, मौन से सब बातें आदमी में आ सकती हैं। आत्म विनिग्रह अर्थात् मन जो बड़ा चंचल है उसे वृत्तियों के निग्रह करने से रोकना। सबसे बड़ी बात भाव संशुद्धि अर्थात् लोगों के साथ बर्ताव में माया, कपट, कुटिलता, छल-छिद्र का न होना। अथवा क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य, जो मन को मैला करने की बड़ी सामग्री हैं उनसे दूर रहना इत्यादि सब मन के गुण हैं। उसी को मानस तप भी कहेंगे। मन के और भी गुण सहानुभूति, आश्चर्य, कुतूहल पूर्वक जिज्ञासा, प्रेम, बुद्धि या प्रतिभा, विचार या विवेक आदि हैं। सहानुभूति यद्यपि मन की सौम्यता के अंतर्गत है किंतु सहानुभूति का लेश मात्र भी अंकुरित हो चित्त में रहना जन समाज के लिये बड़ा उपकारी है। उपकार के प्रति उपकार सहानुभूति न कहलायेगी वरन् वह तो प्रकार की दुकानदारी और लोकरंजन है। सच्ची सहानुभूति वही है कि हम अपने सहवरगी या साथी को दुखी देख दया मन में लाय उसके दुख दूर करने में तन, मन धन से प्रवृत्त हों। हमारे यहाँ इन दिनों सहानुभूति का बड़ा अभाव है। इसी कारण हम नीचे गिरते जाते हैं। अँगरेजी शिक्षा के अनेक गुणों में यह भी उत्कृष्ट गुण है कि अच्छा पढ़ा-लिखा अपने हम-वतन दोस्तों के साथ हमदर्दी करने में नहीं चूकता। अनेक प्रकार के दान इसी बुनियाद पर रखे गए हैं कि सहानुभूति वाले मानसिक गुण में पुष्टता पहुँचे। किंतु वह अब केवल यश प्राप्ति के लिए रह गया। इसमें संदेह नहीं, अब भी दान जितना हमारे यहाँ दिया जाता है किसी देश में इतना नहीं दिया जाता पर सहानुभूति की बुनियाद पर न रहने से बे-फायदा है और राख में होम के बराबर है।
आश्चर्य और कुतूहल दोनों सीधे और भोले चित्त के धर्म हैं। लड़कों को छोटी-छोटी बातों पर कुतूहल होता है चित्त का कुतूहल दूर करने को वह अनेक ऐसे प्रश्न करता है जिस पर बहुधा हँसी आती है। तो कुतूहल ज्ञान की वृद्धि का एक द्वार ठहरा। लड़का पाँच वर्ष की उमर तक में जो कुछ सीखता है वह तमाम जिंदगी भर में नहीं सीखता। ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है और चित्त की सिधाई कम होती जाती है उसकी जिज्ञासा भी घटती जाती है। प्रेम भी सहानुभूति ही का एक रूपांतरण है। प्रतिभा, प्रतिपत्ति, संवित् आदि शब्द लगभग एक ही अर्थ के बोधक हैं और ये सब बुद्धि के धर्म मन के नहीं। किंतु मन पर उन सबों का असर पहुँचना है इसलिये हम उन्हें मन के अनेक गुणों में मानते हैं। ऐसे ही विवेक और विचार भी बुद्धि के धर्म हैं किंतु विचार के द्वारा बुद्धि के तराजू पर हम उसे तौलते हैं, जो कुछ परिणाम उस तौल को होता है उसे मन में स्थिर कर तब आगे बढ़ते हैं। मन यद्यपि ज्ञान का आश्रय है। पर उस ज्ञान को सत् या असत निर्णय करा देना बुद्धि ही का काम है। इसलिये विवेक और विचार के बिना निश्चयात्मक ज्ञान कभी होगा ही नहीं। मन जो बड़ा चंचल है उसका चांचल्य रोकने का विचार बड़ा उपयोगी है इसलिए ऊपर के लोक में कथित आत्म विनिग्रह के ये सब अंग हुए। आत्म विनिग्रह जिसका दूसरा नाम संयम भी है मनुष्य में पूरा-पूरा हो तो सिद्धावस्था तक पहुँचने में फिर अड़चन क्या रही। दूसरे यह कि संयमी की कठिन से कठिन काम करना सुगम होता है। सारांश यह कि ऊपर कहें हुए मन के सब गुण पारलौकिक या आध्यात्मिक उन्नति के साधना करने वाले ही हुई हैं हमारी इस लोक की उन्नति भी उनसे पूरी-पूरी हो सकती है। इन सब उत्कृष्ट गुणों में एक भी जिसमें हो, वह मनुष्यों में श्रेष्ठ ऊँचा दरजा पाने का अधिकारी अवश्य बन सकता है।