मन के द्वार हज़ार -अवधी अनुवाद / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
मन के द्वार हज़ार (अनूदित अवधी-हाइकु-संग्रह) : ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य भाषा मानव के अस्तित्व का एक अनिवार्य और अपरिहार्य प्राण-तन्तु है, गर्भनाल से जुड़े शिशु की तरह। निरन्तर प्रवाह भाषा की सबसे बड़ी शक्ति है। यह शक्ति सामाजिक संवाद और चिन्तन धारा के प्रवाह के कारण गहन और व्यापक होती है। शब्दों की सहज ग्राह्यता, जनमानस की सबसे बड़ी शक्ति है। यही शक्ति भाषा के रूप में हमारे सामने आती है। यही शक्ति उन्नत होकर बोली को भाषा और अवनत होने पर भाषा को बोली तथा घोर उपेक्षा के कारण उसे विलुप्त भी कर सकती है। आज हम अपनी बोलियों की उपेक्षा कर रहे हैं। प्रकारान्तर से हम अपनी भाषाओं को कमज़ोर कर रहे हैं। छोटी-छोटी जलधाराओं को अगर गंगा में मिलने से रोकेंगे तो प्रवाह-गहराई और पाट का घटना शुरू हो जाएगा। सहृदय कथाकार कवयित्री रचना श्रीवास्तव भाषा की ऊर्जा, ऊष्मा और शक्ति से वाकिफ़ है। इनका शब्द चयन इनके उदार हृदय की झलक दे जाता है। इनके काव्य का कथ्य और भाषा दोनों ही नव्यता लिये होते हैं। इन्होंने कुछ हिन्दी हाइकु का अवधी अनुवाद मुझे दिखाया तो मैंने दो-तीन रचनाकारों के और हाइकु का अनुवाद करने के लिए निवेदन किया। मैं चमत्कृत हो गया। अनुवाद में मूल हाइकु के भाव की रक्षा करते हुए छन्दविधान को भी बनाए रखा। यह काम सचमुच बहुत कठिन था। हाइकु के क्षेत्र में इससे पूर्व भी इस तरह के प्रयास हुए हैं। डॉ सत्यभूषण वर्मा और अज्ञेय जी ने जो अनुवाद किए हैं वे केवल अनुवाद हैं, हाइकु नहीं बन सके हैं।
डॉ भगवत शरण अग्रवाल ने 'अर्घ्य] (1995) में अपने 65 हिन्दी हाइकु 18 भारतीय एवं 7 विदेशी भाषाओं में प्रस्तुत किए हैं। यह अनोखा और बड़ा कार्य रहा है। कुछ भाषाओं में अनूदित हाइकु के अनुवाद के साथ शिल्प भी बरकरार रहा है, जैसे:-
बैठतीं टिड्डी / गेहूँ की बालियों पै / किसान सोते
तीड बेसतां / घऊँने कणसले / खेडूत सूता (गुजराती)
लेकिन सभी भाषाओं की प्रवृत्ति ऐसी नहीं है कि छन्द का अनुपालन करते हुए अनुवाद किया जा सके. यह सब अनुवादक की सामर्थ्य पर निर्भर है। काव्य का अनुवाद वैसे भी बहुत बड़ी चुनौती है। हाइकु-जगत् ने डॉ भगवत शरण अग्रवाल के इस बड़े कर्य का विशेष नोटिस नहीं लिया। हिन्दी और मराठी के प्रसिद्ध कवि श्याम खरे ने 'महक' (2008) 24 मराठी हाइकुकारों के हाइकु का अनुवाद हिन्दी में प्रस्तुत किया। अन्य रचनाकारों का अनुवाद सिर्फ़ अनुवाद ही बन सका है, हाइकु नहीं। फिर भी खरे जी ने इस दिशा में एक सकारात्मक प्रयास किया। इनके अपने कुछ हाइकु में ही छन्द का निर्वाह हो सका है, जैसे-
अलाव जले / हम नहीं जानते / दु: ख वृक्षों का। (श्याम खरे)
शेकोटि जळे / मानवां कां न कळे / दु: ख वृक्षांचे (श्याम खरे)
डॉ अंजलि देवधर ने 'भारतीय हाइकु' (2008) में 105 हाइकुकारों के एक-एक हाइकु का अनुवाद अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया। इसे भी केवल अनुवाद ही कहा जाएगा, न कि अंग्रेज़ी हाइकु। अंग्रेज़ी सिलेबिक (अक्षर प्रधान) भाषा है, न कि वर्ण प्रधान अत: छन्द का अनुपालन करते हुए अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह कार्य है।
जापानी हाइकु के अंग्रेज़ी अनुवाद की यह दिक्कत 'वन हण्ड्रेड फ़्रॉग्स' (हिरोआकि सातो-1983) में भी देखी जा सकती है।
डॉ हरदीप कौर सन्धु जुलाई 2010 से पंजाबी हाइकु का अनुवाद हिन्दी में करती रही हैं। इनके हिन्दी अनुवाद में मूल की भावानुभूति के साथ हाइकु का शिल्प भी सुरक्षित रहा है। जून 2012 से इन्होंने हाइकुलोक में पंजाबी में भी छन्दानुशासन की रक्षा करते हुए अनुवाद किया है। कुछ अनुवाद गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में साथ-साथ प्रकाशित किए हैं ताकि दोनों भाषा-भाषी इनका रसास्वादन कर सकें। यह सही अनुवाद की दिशा में किया जा रहा सराहनीय कार्य है।
हिन्दी-रात या दिन / आँसुओं का मौसम / सदा निखरा। (डॉ सुधा गुप्ता)
पंजाबी-रात जाँ दिन / हँझुआं दा मौसम / सदा निखरे।
हिन्दी-घटा-सी घिरी / कमलों की सुगन्ध / वह आए क्या? (डॉ भगवत शरण अग्रवाल)
पंजाबी-छाई है घटा / कमलां दी खुशबू / की उह आए?
अभी 2013 जनवरी में ही कशमीरी लाल चावला और प्रो नितनेम सिंह के द्विभाषी (पंजाबी-हिन्दी) हाइकु-संग्रह आए हैं। इन दोनों संग्रहों में दोनों ही कवियों ने दोनों भाषाओं में छन्दानुशासन का पालन किया है। मूल हाइकु साधारण हैं। अनूदित हिन्दी हाइकु में हिन्दी भाषा के स्तरीय और व्यावहारिक प्रयोग की कमी खटकती है; फिर भी एक उत्साहवर्द्धक शुरुआत तो हुई है। इसका स्वागत होना चाहिए. डॉ ज्योत्स्ना शर्मा, सुशीला शिवराण और तुहिना रंजन ने कुछ हाइकु का अनुवाद क्रमश: गुजराती, राजस्थानी और उड़िया में भी किया है।
इसी कड़ी में रचना श्रीवास्तव ने हिन्दी (खड़ी बोली) के हाइकु का अवधी में अनुवाद किया है; वह भी 34 रचनाकारों के 542 हाइकु का। यह काम अब तक किए गए हाइकु अनुवाद के क्षेत्र में किसी अकेले रचनाकार द्वारा किया गया बड़ा कार्य है। हाइकु के भाव और छन्द की रक्षा करते हुए इस काम को करना बहुत कठिन था। लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह। रचना श्रीवास्तव हिन्दी काव्य जगत में एक बहुचर्चित और प्रशंसित कवयित्री है, जिनकी भाव मधुरिमा और उर्वर कल्पना का अहसास पाठक महसूस करते रहे हैं। रचना श्रीवास्तव की यह प्रतिभा अनुवाद में भी प्रभावित करती है। इनकी अनुवाद-प्रतिभा के कतिपय उदाहरण देखिए-
डॉ भगवत शरण अग्रवाल-भोरवा साथे / ई केकर महक / बौराय मन।
डॉ सुधा गुप्ता-चनार-पात / कहाँ पाईस आग / बतावा ज़रा।
डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव-गावत मोर / पिरेम कै गितिया / उषा निहाल।
डॉ भावना कुँअर-पंछी बनि कै / घूमत रहीं यादें / भुइयाँ गिरी।
डॉ हरदीप सन्धु-पियारी बेटी / भोर कै आरती, ई / पावन बानी।
डॉ सतीशराज पुष्करणा-हँसा ऐ दोस्त / रोये से ई रतिया / छोट न होई.
कमला निखुर्पा-गील पलक / नयन पियाला मा / सिन्धु छ्लके.
डॉ जेन्नी शबनम-अधूरी आसा / भटकत मनवा / नाही उपाय।
डॉ अनीता कपूर-तू जो पेडवा / हम भयन पात / अब तौ रुको।
पूर्णिमा वर्मन-बहिंयाँ उठा / खजूर कै कतार / हम्मै बुलावे।
रचना श्रीवास्तव ने हाइकु के भाव पक्ष और कलापक्ष दोनों का निर्वाह निपुणता से किया है। अवधी में अनूदित इन हाइकु को पढ़ने से काव्य-माधुर्य का अनुभव किया जा सकता है। अनुवाद में भाव की रक्षा करना सबसे बड़ी चुनौती है, जिसे रचना श्रीवास्तव ने अत्यन्त सहज भाव से स्वीकारा ही नहीं बल्कि निभाया है। आपका यह कार्य सचमुच ऐतिहासिक महत्त्व का है। इस संग्रह में 5 बाल हाइकुकारों (सुप्रीत सन्धु, ऐश्वर्या कुँअर, ईशा रोहतगी, अन्वीक्षा श्रीवास्तव और इला कुलकर्णी) को भी शामिल किए गया हैं। मैं आशा करता हूँ कि सुधीजन इस कार्य के महत्त्व को सराहेगे और इस मिशन को और आगे बढ़ाकर हाइकु जगत् को और समृद्ध करेंगे।
26 जनवरी, 2013