मन पंछी-सा (सुदर्शन रत्नाकर) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हाइकु की प्रथम और अन्तिम शर्त यदि कुछ है तो वह है उसका काव्य होना। छान्दस् शरीर दूसरे स्थान पर है। काव्य का स्थायी भाव पूरा जीवन–जगत् है। अगर जीवन का एकांगी चित्रण साहित्य नहीं है तो हाइकु भी एकांगी कैसे हो सकता है! जापानी साहित्य के अलावा अंग्रेज़ी साहित्य में भी हाइकु–सर्जन प्रचुर मात्रा में हुआ है। भाव, विचार, कल्पना और शिल्प को अंग्रेज़ी के साहित्यकारों ने अपनी भाषा और संस्कृति के अनुरूप ही लिया। यहाँ तक कि 5-7-5 का क्रम भी वहाँ जापानी भाषा के अनुरूप हो ही नहीं सकता, हिन्दी भाषा में इस दृष्टि से अपेक्षाकृत बहुत साम्य है।
सुदर्शन रत्नाकर 1962 से सृजनरत है। कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास में कई दशक पहले अपना स्थान बना चुकी हैं। हाइकु रचना 1989 से कर रही हैं। 2012 में तिरते बादल (हाइकु माहिया–संग्रह) प्रकाशित हुआ। इनका दूसरा हाइकु-संग्रह है।
आठ खण्डों में विस्तारित इस संग्रह की शुरूआत 'साँईं कृपा' से होती है, जो पूरी तरह से भारतीय साहित्य-परम्परा के अनुसार है। ईश्वर कृपा को महत्त्व देते हुए आप कहती हैं-
• टूटती नैया / की साँईं के हवाले / वही सम्भाले।
हाइकु का प्रमुख विषय नानाविध प्रकृति रही है। इनके प्रकृतिपरक हाइकु में शुद्धरूप से प्रकृति का आलम्बन रूप तो मिलता ही है, लेकिन उतनी ही पूर्णता के साथ उद्दीपन, मानवीकरण, प्रतीक आदि के भी दर्शन होते हैं। प्रकृति के प्रति सुदर्शन जी का अकुण्ठ अनुराग अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है। आलम्बनरूप में भोर, मधुमालती, तुहिन कणों व चाँद का सौन्दर्य, ताल में खिले कमल सभी का सौन्दर्यअपने आप में अनूठा है। पंछी के सुर भोर को और जीवन बना देते हैं-
• स्वर्ण कलश / सजा आसमान में / भोर हुई तो।
• चाँदनी रात / खिली मधुमालती / दूध-केसर।
• तुहिन कण / गिरते दूब पर / ज्यों मोती बन।
• ताल सज़ा है / खिले लाल कमल / छुपा है जल।
• पंछी के सुर / दूध केसर घुला / हुआ सवेरा।
फूल हों चाहे तितली, चाहे चिड़िया प्रकृति में सब संवाद करते दृष्टिगोचर होते हैं। बस इनकी बातों को पढ़ने और समझने का हुनर चाहिए. फुनगी पर झूला झूलती चिड़िया का रूप मन मोह लेता है-
• बातें करतीं / गुपचुप कलियाँ / तितली हँसी.
• चाँदनी रात / मधुमालती खिली / महकी गली।
• फुनगी पर / फुदकती चिड़िया / झूले, वह झूला।
धरा का मानवीकरण इन तीन पंक्तियों में पूरी गहनता से समाया हुआ है। रूपक का सौन्दर्य इसे और प्रभावी बना देता है। हवा का झोंका भला किसी से रास्त पूछकर आता है? कदापि नहीं। वहीं संघर्षशीला दूब भी है, जो हर तूफ़ान के आगे सिर तो हुका देती है, पर मिट नहीं पाती-
• अम्बर थाल / ओढ़े चाँदनी शाल / धरा मुस्काई.
• रात रोई थी / धरती ने समेटे / उसके आँसू।
• रास्ता है देती / दूब सिर झुकाती / मिट न पाती।
वसंत, पतझड़, गर्मी, सर्दी सबके अपने–अपने रूप हैं। मधुर भी, चुनौती-भरे भी, कहीं आशा की चमक है तो कहीं निराशा की उदासी प्रमुख है। वहाँ सावन उदासी लेकर आया है-खुद पर भी भरोसा नहीं रहा-
• कलियाँ खिलीं / तितलियाँ आ बैठीं / शोभा दुगुनी।
• धरा ने ओढ़ी / ज्यों पीली चुनरिया / सरसों खिली।
• धूप ज्यों सोना / खिला अमलतास / मेरे अँगना।
• अब की बार / आएगा वह सावन / न होंगे हम।
• रूठा सावन / कब खिलेंगे फूल / मेरे आँगन।
धरती से भी यही पूछ बैठती है-
• धरती प्यासी / पूछते प्यासे मन / क्या बरसोगे!
वर्षा कभी माँ जैसी लगती हैं। वही कोमल स्पर्श, उसी तरह चेहरे का स्पर्श करना-
• चेहरा छूतीं / बारिश की फुहारें / ज्यों माँ का स्पर्श।
कहीं बेमौसम बरसात पूरे शहर के लिए कहर बन जाती है-
• बिन मौसम / बारिश का क़हर / डूबा शहर।
धूप भी कभी प्रतीक रूप में आशा का सन्देश लेकर आती है तो कभी धरती को झुलसाने के लिए तत्पर रहती है, मानव, पशु-परिन्दे सभी प्यास से व्याकुल हैं; तो उसी गर्मी की भीषणता को झेलते हुए अमलतास साँस रोके खड़े हैं, मानवीकरण और विशेषण विपर्यय का सुन्दर उदाहरण-
• आशा रखना / धूप आएगी कभी / तेरे अँगना।
• ज्येष्ठ की धूप / जलती वसुन्धरा / खोया है रूप।
• तपती धरा / प्यासे पशु-परिन्दे / झुलसें बंदे।
• चुप खड़े हैं। पलाश-अमलतास / रोके ज्यों साँस।
वही धूप सुखद मौसम में पक्षियों को घोसले से निकलने के लिए आमन्त्रित करती है-
• दुबके पक्षी / घोंसले से निकले / निकली धूप।
सर्दी के मौसम में लगता है कि सूरज सुस्ता रहा है। लोग सर्दी में भीतर बन्द कमरों में सोते हैं तो बेचारा चाँद आकाश में नितान्त अकेला दिखाई पड़ता है-
• धूप का धब्बा / दीवार पर टँगा / सूर्य सुस्ताया।
• सर्दी की रात / लोग सोएँ भीतर / चाँद अकेला।
पतझड़ का प्रतीक (फूल और पत्तों का न होना) और उद्दीपन के रूप (प्रिय–वसन्त के अभाव में पतझड़ की स्थिति) में जीवन से अद्भुत साम्य दर्शाया गया है।
• फूल न पत्ते / कैसा यह मौसम / रूखा जीवन।
• तुम्हारे बिन / पतझड़ जीवन / रूठा वसंत।
प्रकृति हमें संघर्ष करके जीने का भी सन्देश देती है।
• पसरी धूप / अमलतास मुस्काए / न घबराए.
प्रकृति के विभिन्न रूपों में कहीं चाँद को बुलाता सागर, कहीं रात के आँसू समेटती धरती, कहीं सरहदों से अनजान हवा, कही नभ-झील में उगता-उगता सूरज कहीं बादलों से आँखमिचौली करता चाँद सुदर्शन जी के हाइकु में पूरी खूबसूरती के साथ उपस्थित हैं। ये सभी बिम्ब सहृदय पाठक का मन अभिभूत कर लेते हैं-
• सिन्धु लहरें / करें अठखेलियाँ / चाँद बुलाए.
• रात रोई थी / धरती ने समेटे / उसके आँसू।
• आज़ाद हवा / नहीं जानती वह / सरहदें क्या!
• आँखमिचौली / बादलों से करता / चाँद निकला।
• नभ-झील में / उगता बाल रवि / खिला कमल।
पक्षियों के बिना हमारी प्रकृति अधूरी और गूँगी है। डालियों पर ऐठकर यही तो बाँसुरी बजाकर सबको मुग्ध करते हैं-
• चहचहाते / डालियों पर पंछी / बाँसुरी बजी.
• फुर्र से उड़ी / आकाश में तिरती / नन्ही चिड़िया।
• निरीह प्राणी / मूक हैं निहारते / प्यार के भूखे।
पर्यावरण की उपेक्षा आज सम्पूर्ण विश्व की चिन्ता है। हमारा लोभ और विकास के नाम पर आने वाली पीढ़ी का भविष्य खतरे में पड़ता जा रहा है। कवयित्री के हाइकु में इसकी चिन्ता पूरी गहनता से अभिव्यक्त हुई है-
• यदि पेड़ कटते / आँसू के घूँट पीते / किसे कहते।
• ज़रा सुनो तो / कराहते पर्वत / कटे हैं वन।
जिस विकास का हम शोर मचाते है, वह गरीब की रोटी–रोज़ी आवास छीनता जा रहा है। अभावग्रस्त परिवार और नगरों-महानगरों के फुटपाथ इस विकास के की विद्रूप कथा कह रहे हैं।
• सर्दी की रात / बिस्तर फुटपाथ / कैसा विकास।
• एक रज़ाई / आधी ओढ़ें माँ–बाप / आधी दो भाई.
• लोग क्या करें / दो जून पेट भरें / या तन ढकें।
इस विकास ने संवेदना भी छीन ली है। बच्चे जीविका के लिए माँ–बाप से दूर हैं। अकेलेपन का दंश न जीने देता न मरने देता है। किसी के पास किसी के भी लिए समय नहीं है। बुढ़ापा रोग और अभिशाप बनकर रह गया है-
• समय कैसा / तरसें माता-पिता / दूर हैं बच्चे।
• दर्द अकेला / किसे सुनाए दास्ताँ / सभी हैं व्यस्त।
• बुढ़ापा घिरा / है कठिन परीक्षा / पार न पाएँ।
जीवन के कुछ सत्य और तथ्य ऐसे हैं, जो नहीं बदलते। उन्हीं में एक सत्य यह है कि हार मानकर बैठना किसी समस्या का समाधान नहीं है। दु: ख अनचाहे अतिथि हैं, एक न एक दिन चले ही जाएँगे-
• नदी किनारा / बहती जलधारा / फिर न मिली।
• दुख दर्द हैं / अनचाहे अतिथि / चले जाएँगे।
दुख होते है / वक़्त की पहचान / चले जाएँगे।
आज का जीवन अनेक समस्याओं में उलझा हुआ है। महानगरीय सभ्यता ने उसको और अधिक कठिन बना दिया है
• आँगन छूटा / बालकनी में टँगा / आज जीवन।
• शोर ही शोर / कंकरीट–जंगल / मेरा नगर।
• डिब्बे-से घर / आसमान में टँगे / छूटे आँगन।
मन का खालीपन भरने का नाम नहीं लेता। अपनापन जीवन से काफ़ूर हो गया है।
• कैसे भरूँ मैं / दिल का ख़ालीपन / कचोटे रोज़।
• ढूँढती रही / वीरान गलियों में / अपनापन।
• कैसी नियति / अपनों की भीड़ में / लगे निर्जन।
जीवन में वेदना इतनी हावी हो जाती हैं कि सामने मौजूद खुशियाँ भी नज़र नहीं आतीं
• वेदनाओं से / गहरा रिश्ता मेरा / वे छोड़ें, न मैं।
• छलको मत / दर्द बह जाएगा / आँखों में रहो।
• भागती रही / ख़ुशियों के पीछे मैं / वे सामने थीं।
सुदर्शन रत्नाकर के ये हाइकु काव्य की सतरंगी अनुभूतियों से सिंचित हैं। निरन्तर सृजनशीलता, विषय वैविध्य इनकी शक्ति है। इसके लिए इन्हीं के शब्दों में-
• बहता पानी / जीवन है वह देता / रुका बेमानी।
मुझे पूरी आशा है कि मन पंछी-सा' हाइकु-संग्रह काव्य-जगत् में विशिष्ट स्थान बनाएगा।
20 सितम्बर, 2015[सोनीपत-हरियाणा]