मन मल्हार गाए / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जापान में आठवीं शताब्दी में सेदोका प्रचलित रहा। उसके बाद इसका प्रचलन कम होता गया। इसका स्थान ताँका आदि छन्दों ने ले लिया। सेदोका कविता प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित होती थी। यह 5-7-7, 5-7-7= 38 की दो आधी या अधूरी रचनाओं से मिलकर बनता था, जिसे कतौता कहा जाता था। ये 2 आधी-अधूरी कविताएँ मिलकर एक सेदोका बनती थीं। ये दोनों भाग प्रश्नोत्तर रूप में या किसी संवाद के रूप में भी हो सकते थे। आठवीं शताब्दी के बाद इसका प्रयोग बहुत कम हुआ है। एक बात और महत्त्वपूर्ण है- कतौता का अकेले प्रयोग प्रायः नहीं मिलता। ये जहाँ भी आएँगे, एक साथ कम से कम दो जरूर होंगे। इसमें किसी एक विषय पर एक निश्चित संवेदना, कल्पना या जीवन-अनुभव होना जरूरी है। दो में से प्रत्येक कतौता अपनी जिस संवेदना को लेकर चलता है, वह दूसरे से जुड़कर पूर्णता प्राप्त करता है। विषयवस्तु का प्रतिबन्ध कतौता में नहीं है, कारण-यह किसी न किसी संवेदना से जुड़ी कविता है। इसे एक से अधिक अवतरण तक विस्तार दिया जा सकता है। एक बात और जरूरी है-किसी कतौता (पहले भाग) की तीसरी पंक्ति का वाक्य चौथी पंक्ति में जाकर पूरा न हो।

सुदर्शन रत्नाकार जुलाई 2012 से सेदोका रच रही हैं। प्रकृति से प्रेम उनके पूरे साहित्य में उजागर होता है । सेदोका भी उससे अछूता नहीं है। ‘प्रकृति के रंग’ में -नदी-सागर, प्रातः-सन्ध्या, अम्बर -धरा, वन-उपवन, पक्षी सभी इस सृष्टि का सौन्दर्य हैं। सभी में गहन अन्तर्सम्बन्ध है , जो सृष्टि को मोहक बनाता है। सागर को ही देखिए, उसके पास सब कुछ है, फिर भी वह उदास है-

-अथाह जल/ दूर तक फैलाव/अनमोल ख़ज़ाना /सब कुछ है/सागर तेरे पास/फिर भी तू उदास।

लहरों के नाचने का, सागर से उत्पन्न और फिर सागर में समाने का यह उत्सवधर्मी संगम कितना अद्भुत है! यह समाहित होना ही उसकी नियति भी है और उनके अस्तित्व की प्राथमिकता भी।

-सिन्धु-वक्ष पे/दूध-केसर घुली/ नाचती हैं लहरें। सुबह -शाम। माथे पर लगाता/ नभ जब बिंदिया।

-जन्मों से नाता/ तुझ से है सागर/ टूटेगा कैसे भला/ तुझ से जन्मी/तुझ में ही विलीन/अस्तित्व लहरों का।

सूर्य की किरणों को अनोखा सौन्दर्य, अनुपम रंग-रूप मिला है। किरणों से सिन्धु में डुबकी क्या लगाई, पूरे सागर को अपने ही रंग में रँग दिया-

-नहाने आईं/सागर के जल में/ दिनकर -रश्मियाँ/डुबकी लगा /रँग दिया सागर/अपने ही रंग में।

युगों -युगों से धरा और गगन ऐसे प्रेमी हैं, जिनका मिलन कभी पूरा नहीं हुआ। गगन कभी झुका नहीं, धरती ने कभी उसको छुआ नहीं। प्रेम का यह सात्त्विक रूप केवल प्रकृति में ही मिल सकता है।

-दूर से मिले/गगन और धरा/अधूरा है मिलन/पर संतुष्ट /न ही गगन झुका/न धरती ने छुआ।

धूप का शर्माना और सहम जाना, चाँद का कटोरा लेकर रात भर घूमना का मानवीकरण, नए बिम्ब की प्रस्तुति मनमोहक है।

-उतरी धूप/ शर्माती, सहमी-सी/घर की मुँडेर से/छुआ बदन/भर गई तपन/मिट गई थकन।

-कटोरा हाथ/ रात भर घूमता/बाँटता उजास /नभ का चाँद/दिन के उजाले में/भूल गया संसार

‘रिश्तों के रंग’ में मधुर-कटु,आह्लादकारी और व्यथित करने वाले सभी क्षण परस्पर गुँथे हैं। विविध सम्बन्धों से जुड़ी अनुभूतियों को अपने अनुभव से सज्जित करके सेदोका में पिरो दिया है-

-शीतल छाया/बरगद के पेड़ -सी/मिली जीवन भर/पिता का हाथ/छूटा जब सिर से/बिखर गया मन।

-भूलता नहीं/बार -बार उठना/मेरा माथा चूमना/स्पर्श वो माँ का/अब भी सहलाता है/बच्चा बन जाता हूँ।

-अपने जाये/हुए सब पराये/दूर बना बसेरा/कोई अकेला/जूझता जीवन से/किसने कब जाना।

-रिश्तों का मेला/मन हुआ अकेला/टूट रहे हैं तार/कैसा है मन/माने नहीं बंधन /त्रासदी जीवन की।

टूटते रिश्तों में व्यथा और उनसे उपजी कठोर त्रासदी को उम्र के किसी भी पड़ाव पर सहना कितना कठिन है। जीवन-जगत् के विविध रंगों को केवल मन मल्हार गाए का अवगाहन करने पर ही जाना जा सकता है। ये कुछ पंक्तियाँ इस संग्रह की बानगी भर हैं।

( 28-10-2021)