मन रे, तू काहे न धीर धरे... / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 14 जून 2020
फिल्म स्टूडियो में डायरेक्टर कहता है ‘लाइट्स’ और सेट रोशन हो जाता है। यह कमोबेश ऐसा है कि ऊपर वाले ने कहा प्रकाश और संसार जगमग हो गया, जैसा कि पुरातन किताबों में वर्णित है। डायरेक्टर सेट रोशन होने के बाद कहता है ‘साउंड’ और ध्वनि की रिकॉर्डिंग प्रारंभ होते ही डायरेक्टर कहता है ‘एक्शन’ और कलाकार अभिनय शुरू करते हैं। डायरेक्टर के ‘कट’ बोलने का अर्थ है कि कहीं कोई चूक हुई है और ओके बोलने का अर्थ है कि सभी ठीक हुआ है। हर शॉट औसतन पांच बार लेने पर ही डायरेक्टर को मन भाया शॉट मिलता है। एक शॉट के लिए पांच बार प्रयास करना होता है, परंतु इसे फिजूलखर्ची नहीं माना जाता, क्योंकि फिल्म बनाने की प्रक्रिया जीवन की तरह ही मात्र उपयोगिता आधारित नहीं है। उम्रदराज सेवा निवृत्त व्यक्ति की सांसारिक उपयोगिता समाप्त होने के बाद भी उसे जीने का अधिकार है। सरकारी कर्मचारी की पेंशन कोई दया नहीं है, वह उसका अधिकार है। व्यवस्था पेंशन प्राप्त करने को जटिल बनाकर कर्मचारी को इतना थका देना चाहती है कि वह पेंशन लेना ही छोड़ दे।
फिल्मकारों की शैलियां अलग-अलग रहती हैं। तकनीकी जानकारी रखने वाले डायरेक्टर किसी भी दृश्य को बीच के शॉट से प्रारंभ करते हैं। कुछ दृश्य का अंतिम शॉट पहले ले लेते हैं। फिल्म व्याकरण पर अधिकार रखने वाले डायरेक्टर विजय आनंद ने फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ का नृत्य गीत ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाकर चली आई...’ को एक ही शॉट में शूट किया। विजय आनंद ने फिल्म ‘गाइड’ का एक गीत चार सेट पर दो महीने में शूट किया। महान लेखक राजिंदरसिंह बेदी ने अपनी कथा का संपूर्ण आकलन कर लिया था, परंतु उन्हें तकनीकी जानकारी अधिक नहीं थी। जब कैमरामैन उनसे पूछता कि कैमरे की प्लेसिंग कहां करना है? तो वे अपने हंसोड़ अंदाज में कहते कि साफ-सुथरी जगह पर प्लेसिंग कर दो। इतना कहकर वे बेसाख्ता ठहाका लगा देते थे। संगीत की उन्हें समझ थी। फिल्म ‘दस्तक’ में मदन मोहन ने मजरूह के लिखे गीत को कमाल का रचा ‘माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की...’। गुरु दत्त की आत्म कथात्मक फिल्म ‘कागज के फूल’ में प्रकाश और छाया का संयोजन नायक की पीड़ा और प्रार्थना को अभिव्यक्त करता है। फिल्मकार और कैमरामैन की आपसी समझदारी और सूझबूझ से ही सेल्यूलाइड पर कविता रची जाती है। शांताराम ने स्टूडियो में रेलगाड़ी की पटरीनुमा उपकरण बनाया, जिस पर कैमरा रखकर पात्र को बेहद नजदीक से दिखाया जा सकता था। तत्कालीन फिल्म समालोचक ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने कॉलम में लिखा कि शांताराम का सेट हिलता सा नजर आता है। शांताराम ने उन्हें विस्तार से बात समझाई कि एक ही शॉट में पात्र की बदलती मनोदशा दिखाने के लिए यह किया गया है। कुछ समय तक अब्बास साहब स्टूडियो प्रतिदिन जाया करते थे। कालांतर में अब्बास साहब की लिखी पटकथा ‘डॉ. कोटनीस’ से प्रेरित फिल्म शांताराम ने बनाई।
प्रारंभिक दौर में हमारे पास आधुनिक उपकरण नहीं थे। सभी उपकरण आयात करना होते थे। मिचेल कैमरे का वजन चालीस किलो होता था। कम वजन का एरीफ्लैक्स कैमरा आने के बाद आसानी हो गई। हाथ में लिए जा सकते वाले कैमरे से विभिन्न कोण से शूटिंग की जाने लगी। लैंस और फिल्टर विविध प्रभाव पैदा करते हैं। एरीफ्लैक्स को एक ही जगह रखकर जूम द्वारा पात्र का क्लोजअप लिया जा सकता है। कुछ फिल्मकार उपकरणों से खेलने में भाव पक्ष को नजरअंदाज कर गए।
वर्तमान डायरेक्टर कबीर, आमिर खान, आनंद एल रॉय, रोहित शेट्टी इत्यादि भाव पक्ष और तकनीक का संतुलन बनाए रखते हैं। लॉक डाउन के कारण स्टूडियो में सन्नाटा पसरा हुआ है। स्टूडियो की दीवारों के कान लाइट्स, साउंड और एक्शन सुनने के लिए तरस रहे हैं। स्टूडियो के कान होते हैं तो संभवत: जुबां भी होती होगी? कोरोना कालखंड में ‘आवाजें होकर भी गूंगे हो गए हैं बस्ती के लोग, सबके अंदर-अंदर दीमक, सबको एक ही रोग..’ (यह रेणु शर्मा की कविता के अंश हैं)। कोई रोग लाइलाज नहीं होता। मनुष्य की करुणा हर रोग का उपचार खोज लेती है। कोई रात ऐसी नहीं जिसकी सुबह न हो।