मन ही मनुष्य है: डॉ. विनय कुमार / मनोवेद
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: मनोवेद » | अंक: जुलाई-सितम्बर 2007 |
मन ही मनुष्य है, शरीर नही। जसै आप अपने घर में रहते हैं वैसे ही शरीर में भी। आपके बिना घर सिर्फ ढांचा है। मन के बिना शरीर बस शरीर है, मनुष्य नहीं। मन यानी भावना, विचार, बुद्धि, विवेक और अंतर्दृष्श्टि। इनके बगैर मनुष्य तो क्या ठीक से पशु भी नहीं हुआ जा सकता। वनस्पतियों में भी संवेदना होती है और शायद एक तरह का जैविक विवेक भी, जिसके आधार पर वे प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करते हैं। सच तो यह है कि मन के बिना आप ठीक से वनस्पति भी नहीं हैं। सबको पता है यह बात। मगर इस बात पर ध्यान देने का चलन उठता जा रहा है। हम विनम्रता से कहने आए हैं कि मन ही मनुष्य है।
मनोवेद
संस्कृत के ‘विद्’ से बना है ‘वेद’। ‘विद’ जानना है और ‘वेद’ज्ञान। मनोवेद अर्थात मन का ज्ञान। संभव है, कुछ लोगों को इस शब्द में धार्मिक पहचान के अहंकार की बू आए। मगर हमअर्ज करना चाहेंगे कि मन और उसके ज्ञान की कोई धार्मिक पहचान नहीं होती। वस्तुतः यही वह बिन्दु है जहां सारे धर्म एक जैसी बातें करते नजर आते हैं। मन के साथ वेद का जुड़ाव हमें ‘वेद’ का अर्थ ‘ज्ञान’ होने के अतिरिक्त अन्य कारणों से भी जंचा। वेद एक ऐसे समाज की सामूहिक रचना है जो प्रकृति और उसकी प्रतिकूलताओं के बीच अत्यल्प साधनों के सहारे जीवन को न सिर्फ संभव कर रहा था बल्कि उसे गा भी रहा था। उस समाज में श्रम था, श्रम से संवलित ऊबड़-खाबड़ जमीन और उस पर बहती जीवन की लय थी। वह समाज ‘विकसित’ होकर पाप और नरक की मन-विरोधी कल्पनाओं तक नहीं पहुंचा था। मन के स्वास्थ्य के लिए निडर श्रम और जीवन के संगीत से बेहतर खुराक और क्या है? मन और वेद को जोड़कर मानसिक स्वास्थ्य की पत्रिका का नाम ‘मनोवेद’ रखने के पीछे यह बात भी रही कि रचना, ध्वनि और अर्थ के हिसाब से यह ‘आयुर्वेद’ का बगलगीर है। मनोवेद क्यों? अज्ञेय ने अपनी एक कविता में कहा है कि जब भी कोई कविता लिखी जाती है, तो पेड़ सोचता है कि यह कविता भी छपेगी और कागज बनाने के लिए उसे काटा जाएगा। ‘मनोवेद’ निकालने की योजना बनाते समय हम भी इस सवाल से रू-ब-रू हुए। हमने भी पूछा अपने आप से कि क्या हमारी यह कोशिश एक शगल-भर है, और यह भी कि क्या हम कटे पेड़ों से बने कागज का उचित उपयोग करने जा रहे हैं? काफी विचार-विमर्श के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘तुमुल कोलाहल कलह’ में हृदय
मन माने की बात
और मन की बात कहने की कोशिश के लिए पेड़ हमें माफ कर देंगे। उन्हें कई सभ्यताओं का अनुभव है। वे जानते हैं कि मानसिक रूप से स्वस्थ लोग हत्या नहीं करते-पेड़ों की भी नहीं। साधनों के बगैर न जीवन संभव था, न है और न रहेगा मगर यह समय प्राथमिकताओं के असंतुलन का है। हमारा ध्यान जीवन के साधनों की तरफ अधिक है, जीवन की तरफ कम। मकान की चाहतों की भीड़ में घर की इच्छाएं खो गयी हैं। सब भाग रहे हैं। कुछ गाड़ियों में, कुछ गाड़ियों की तरफ। जीवन भागने का नहीं, चलने का नाम है। चरैवेति, गति के लालच में हम इस मंत्र को रौंद रहे हैं। परिवार और समाज चलते हुए लोगों से बनते हैं। भागते हुए लोग इतनी धूल उड़ाते हैं कि खुद भी खो जाते हैं। ऐसी रफ्तार का क्या मतलब जो इंसान को तनहाई के तहख़ाने में क़ैद कर दे। ‘मनोवेद’ भागते हुए लोगों को रोक तो नहीं सकती, मगर टोक जरूर सकती है कि ‘फुर्सत के रात-दिन’ ढूंढने से नहीं, निकालने से मिलते हैं। हम मानसिक स्वास्थ्य और इसके लिए मानसिक विकास पर चर्चाएं लेकर आए हैं। हमारा मकसद आप तक उन जानकारियों को पहुंचाना है, जिनकी तरफ ध्यान देने की ज़हमत आप अमूमन नहीं उठाते। यह जानना हर नागरिक के लिए ज़रूरी हो गया है कि 10 फीसदी से भी ज्यादा लोग तरह-तरह के मनोरोगों की चपेट में हैं। दस फीसदी-यानी हर दसवां आदमी मानसिक रूप से बीमार है। यह सिर्फ आंकड़ा नहीं एक चेतावनी है। 10 फीसदी आबादी का अनुत्पादक या अल्प-उत्पादक होना किसी भी व्यवस्था के लिए भार है। परिवारों के देश भारत मंे हर बीमार के साथ कुछ तीमारदार भी लगे होते हैं। तीमारदारी में सिर्फ उत्पादन-समय ही नहीं ज़ाया होता, व्यक्ति की उत्पादन-क्षमता का भी क्षरण होता है। और अहम बात यह है कि कोई भी विकास बेमानी है अगर समाज स्वस्थ नहीं। ‘मनोवेद’ मनोरोगों की व्यापकता, पहचान और चिकित्सा के साथ-साथ उनसे बचाव से जुड़ी जानकारियां उपलब्ध कराकर विज्ञान-सम्मत और विश्वसनीय पत्रिका के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है। ठोस वैज्ञानिक प्रमाण न आए होते तो धरती स्थिर होती और सूरज चक्कर काट रहा होता। किसी भी स्थिति या घटना की वजह और आंतरिक प्रक्रिया के अज्ञान की कोख से मिथक पैदा होते हैं। हम कई सहस्राब्दियों तक मानते रहे कि बारि श इन्द्र की कृपा से होती है। मगर मौसम विज्ञान के विकास ने इन्द्र को ताजो-तख्त से महरूम कर दिया है। अनावृष्टि की मार झेलते गावों से भी इन्द्र की वंदना से अधिक पंपिंग सेटों के चलने की आवाज सुनाई देती है। मनुष्य के खोजी स्वभाव के दबाव में मिथकों का स्पेस लगातार सिकुड़ता जा रहा है। दुर्भाग्य यह है कि मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्रा में ऐसा नहीं हो रहा। 1950 के बाद मनोचिकित्सा के क्षेत्रा में तेजी से विकास हुआ है।
शक का इलाज हक़ीम लुकमान के पास भले न था, मनोचिकित्सकों के पास यकीनन है। जैविक और मनोवैज्ञानिक शोधों की बदौलत अब हम काफी हद तक जानते हैं कि मनोरोग क्यों होते हैं, उनके लक्षण क्या है, और उनसे कैसे निपटा जाए। मगर ख़बरों की बारि श के मौसम में भी अधिकांश लोग इन जानकारियों से बेख़बर है। जिसके कारण मिथकों और अवैज्ञानिक टांग अड़ाई के लिए स्पेस बन रहा है। आज भी डायनें आतंक पैदा कर रही हैं और ओझा अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। आज भी देवी के दरबार में प्रेत से मुक्ति मांगनेवालों की भीड़ है और आज भी लोग बुरे साये से निज़ात के लिए मज़ारों की तरफ बेतहाशा भागे जा रहे हैं। सरकार की नज़र में भूत झाड़ना भले गै़रकानूनी हो, लेकिन यह ‘पुनीत कार्य’ न्यायालयों की नाक के नीचे हो रहा है और वहां तक अगरबत्ती-लोबान की बू नहीं पहुंच रही। मनोवेद की मंशा है कि वह अवैज्ञानिक और अमानवीय गोरखधंधे के खिलाफ प्रतिरोध और बहस का मंच बने।
हम सरकारों के लिए असुविधाजनक सवालों से भी परहेज नहीं करेंगे। मसलन, हम ऐसे सवाल उठाएंगें कि क्यों कोई बाबा अपनी मीडिया-मार्जित छवि के आधार पर इतनी राजनीतिक छाया और छूट हासिल कर ले रहा है कि आराम से धंधा कर सके।
समकालीन मनोचिकित्सा मनुष्य को जैविक के साथ-साथ सामाजिक इकाई के रूप में भी देखने का आग्रह करती है। यह बात स्थापित हो चुकी है कि मनोरोगों के होने में, मनुष्य की अनुवांशिकता, उसके मस्तिष्क की संरचनात्मक गड़बड़ियां और उसके शरीर में होनेवाली रासायनिक तब्दीलियां बड़ी भूमिका निभाती है। मगर सारे कारण शरीर के भीतर ही नहीं होते। बहुत सारे कारण उस वातावरण और समाज में भी होते है, जिनमें वह रहता है। एक युद्ध, एक दंगा, एक भूकंप या एक सुनामी अपने पीछे ब्रीफ सायकोटिक डिजार्डर, डिप्रेशन और पोस्ट ट्रामैटिक स्ट्रेस डिजार्डर के हजारों मरीज छोड़ जाता है। किसी भी सरकार का एक अदूरदर्शी फैसला हजारों लोगों को बेरोजगारी की अंधी सुरंग में ढकेल देता है। हजारों शोध-परिणाम गवाह हैं कि नशाखोरी से मनोरोग होते हैं। मगर गांधी की विरासत और कसम पर खड़ी सरकारें भी शराब से होनेवाली व्यक्तिगत और राजकीय कमाई में ज्यादा दिलचस्पी लेती है, जनता के मानसिक स्वास्थ्य के परिरक्षण में कम। ‘मनोवेद’ ऐसी तमाम क्रूरताओं की शिनाख्त का सिलसिला भी शुरू करना चाहती है, जो मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरा है।
‘मनोवेद’ के संपादन में मेरे जोड़ीदार कुमार मुकुल कहते हैं कि जोर सच पर होना चाहिए, बोलने पर नहीं। मगर बकौल भगतसिंह बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत पड़ती है। समाज भी कई बार ‘सेलेक्टिव बहरेपन’ का शिकार होता है। तरह-तरह के शोर में उसे कुछ आवाजें सुनाई नहीं पड़तीं। उसे चर्चिल की सफलताओं का शोर तो इतना साफ सुनाई देता है कि उसकी महानता के पक्ष में वोट देने के लिए वह लाइन लगा देता है, मगर ‘ब्राइटन आफ द सेंचुरी’ के अवसाद में डूबे लम्हों की सिसकियां नहीं सुनाई देतीं। इन सिसकियों को वाल्यूम बढ़ाकर पेश करने की जरूरत है, ताकि ऊंचा सुननेवाला समाज उन्हें सुन सके और सोच सके कि अवसाद की खाई से उठकर विश्वयुद्ध जीता जा सकता है तो जीवन की मामूली मुठभेडे़ं क्यों नहीं?
कोई भी प्रोफेशन पूरी तरह निर्दोष नहीं। खामियों और बदनीयती से निजात पाना आसान नहीं होता। ‘मनोवेद’ के पन्नों पर ऐसी तमाम आवाजों के लिए भी जगह होगी जो मनोचिकित्सा सेवा या व्यवसाय की चूकों की खबर देती हों।
मनोवेद: किसके लिए?
‘मनोवेद’ सिर्फ मनोरोगियों और उनकी देखभाल करनेवालों की पत्रिका नहीं है। यह सारे हिन्दी पढ़नेवालों के लिए है। छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों, चिकित्सकों तक हम इसे खास तौर से पहुंचाना चाहते हैं ताकि वैज्ञानिक सूचनाएं चर्चाओं के माध्यम से कानोंकान फैल सकें। हमें अच्छी तरह अंदाजा है कि राजनीतिक हलकों में पढ़ने-लिखने का फैशन उतार पर है। उन्हें जनता के काम और काम की जनता से फुर्सत नहीं। मगर हम उम्मीद करेंगे कि 10 फीसदी आबादी के दुखों की दस्तकें रहनुमाओं के दिल के फौलादी दरवाजों पर भी पड़ें। ‘मनोवेद’ हिन्दी के उन लेखकों के लिए भी है जो मनोरोगों को या तो फ्रायड के चश्मे से देखते हैं या सिर्फ सामाजिक विसंगतियों के परिणाम के रूप में। हमारी कोशिश होगी कि ‘मनोवेद’ पर उन कवियों और शायरों की निगाह ज़रूर पड़े जिनके लिए 21वीं सदी में भी दीवानगी एक रोमांटिक फलसफा है, जब कि शायरे आज़म उन्नीसवीं सदी में ही फरमा चुके हैं-
बेखु़दी बेसबब नहीं ग़ालिब,
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।