मन / अमित कुमार मल्ल
सुरसतिया अपने माता पिता की चौथी संतान थी। चारो बच्चो में 3 लड़कियाँ थी और एक लड़का।परिवार में कोई ज़मीन नहीं थी। मिट्टी के दीवार पर फूस का छप्पर था। भाई को छोड़कर घर के सभी लोग खेतो पर और गाँव के बड़े आदमियो के यहाँ मजदूरी करते थे। मजदूरी से घर का ख़र्च चल जाता था। गाँव के बड़े लोगों के घरों में काम करने के लिये भी सुरसतिया, उसकी बहने और माँ जाती थी। वहाँ नाप के मजदूरी तो नहीं मिलती थी, लेकिन कुछ खाने को तथा पुराने छोड़े हुए कपड़े मिल जाते थे, जो परिवार की भूख मिटाने और शरीर ढकने में बहुत मददगार होता था। सुरसतिया प्राइमरी स्कूल तक पढ़ी।उस समय तक प्राइमरी स्कूल में दोपहर को एक टाइम खिचढ़ी, दो ड्रेस मिल जाते थे, 30 रुपये महीने का वजीफा मिल जाता था, जिसके लालच में उसके बाबूजी उसे स्कूल भेजते थे, जिससे परिवार की ज़िन्दगी थोड़ी आसान हो जाती।
सुरसतिया अपने स्कूल में सबसे हिली मिली थी।उसे प्राइमरी स्कूल के सारे बच्चे जानते थे, शायद इसका एक बड़ा कारण उसका सदैव ख़ुश रहना और चुलबुलापन था।
सुरसतिया थी तो गेहुआं रंग की, लेकिन मजदूरी करते करते उसका शरीर गठीला होने के साथ साथ रंग हल्का हो गया, लेकिन जवान होती सुरसतिया और अच्छी दिखने लगी थी।
पड़ोसी गाँव चौबेपुर का सुरेश अपनी पहली पत्नी के मरने के बाद, दूसरी शादी करना चाह रहा था, लेकिन करीब एक साल बीतने पर भी उसकी दूसरी शादी नहीं हो पा रही थी। वह किसी काम से, सुरसतिया के गाँव आया और उसको देखा,उसे सुरसतिया पसंद आ गई। उसने गाँव में उस का घर पता किया और उसके घर जा पहुँचा और उसके पिता से बोला -
मैं चौबेपुर गाँव का सुरेश हूँ। मेरी पत्नी एक साल पहले टी बी से मार गयी। मैं आपकी सबसे छोटी बेटी से शादी करना चाह रहा हूँ।
सुरसतिया के पिता बोले-
आप क्या करते हैं ?
चौबेपुर के बाज़ार मेरी एक जनरल स्टोर की दुकान है। अच्छी चलती है।
सुरेश बोला।
परिवार में और कौन कौन है ?
अकेला हूँ। मा पिता जी काफ़ी दिन पहले मर गए थे। शादी के बाद बीबी साथ थी।पांच साल साथ रही। अब पिछले साल वह भी चली गयी।
आपकी उम्र ?
यही कोई तीस इकतीस साल।
मेरी तीन बेटियाँ है। बड़ी बेटी की शादी हो गयी है। दूसरी लड़की की शादी देख रहा हूँ। घर की खराब हालत आप देख रहे हैं। दूसरे को बिठाकर तीसरे बेटी की शादी हम कैसे कर पाएँगे गाँव वाले क्या कहेंगे ? आप क्यो नहीं दूसरी लड़की से शादी कर ले रहे हैं? सुरसतिया की उम्र 18 है। वह आपसे लगभग 13साल छोटी है। दूसरे की उम्र 21 की है।
सुरसतिया के पिताजी बोले।
सुरेश सुरसतिया को पसंद कर चुका था।इसलिये उसने अपनी बात स्पष्ट की,
मुझे सुरसतिया दो कपड़ो में ही चाहिये। बारात का ख़र्च भी मैं ही, दे दूंगा।
सुरसतिया के पिताजी बोले,
पहले, दूसरी लड़की की तो शादी हो तब, सुरसतिया का नंबर आएगा और उसका न तो रिश्ता तय है और न उसकी शादी के ख़र्च की व्यवस्था हो पाई है।
सुरेश ने सोचा, पूरा एक साल बीत गया, कोई अच्छा रिश्ता नहीं आया। रिश्ते आये भी तो बच्चों वाली विधवाओं के। कुँवारी लड़की का, केवल एक रिश्ता आया था,और उसकी उम्र वैसे तो 40 साल बताई गयी थी, लेकिन देखने में 45 साल से कम नहीं लग रही थी। न जाने कौन-सा खोट था कि 45वर्ष तक उसकी शादी नहीं हुई। यहाँ तो लड़की - सुरसतिया इतनी अच्छी है, कम उम्र की है, अभी मेरे हिसाब से ढल भी जाएगी।
यही सब सोच सुरेश बोला,
मैं पचास हज़ार रुपये दे दूंगा। आप उससे दूसरे बेटी की शादी कर डालिये। उसके शादी के बाद, तीन चार लोगों के साथ मैं आपके घर आऊँगा और सुरसतिया से शादी कर, उसे अपने घर ले जाऊँगा।
सुरसतिया के पिताजी ने अपनी ग़रीबी व आर्थिक हालात को देखते हुए,ख़ुशी ख़ुशी यह प्रस्ताव मंजूर किया और लड़का ढूँढ,सुरेश के पैसे से दूसरे लड़की की शादी कर दी।
दूसरी बेटी की शादी होने के बाद सुरसतिया कि भी शादी हो गयी। सुरसतिया शादी कर सुरेश के घर आ गयी। सुरेश के घर में वह और सुरसतिया - मात्र दो लोग थे। सुरसतिया को तो स्वर्ग का सुख मिल गया। मायके में खाने, पहनने को तरसती रहती थी। दो जून की रोटी के लाले थे। अच्छा खाना तो स्वप्न था। पहनने के लिये बड़े लोगों के घरों के लड़कियों की उतरन मिलती थी।यहाँ अनाज, सब्जी, दूध दही, खाने की कोई कमी नहीं थी। जब चाहे जितना खाओ, जब चाहे नया कपड़ा सिला लो, जब चाहे जो ख़र्च कर लो। सुरेश ने सब कुछ सुरसतिया के हाथ में छोड़ दिया। सुरसतिया का पूरा ध्यान बढ़िया खाने, बढ़िया पहनने और सजने सवरने पर रहने लगा।उसे पहली बार लगा कि वह भी कुछ है। बड़े लोगों की भांति कुछ भी खरीद कर कहा सकती है। कोई भी कपड़ा खरीदकर दर्जी से सिला कर पहन सकती है। जिस कपड़े से मन उतर जाए उसे छोड़ सकती है। चुड़िहारे से सभी रंग की चूड़ी खरीद सकती है, सोनार के यह बिछिया ले सकती है और सोने की अंगूठी भी पहन सकती है।गांव के लोग उसको भी नमस्कार कर सकते हैं।सुरसतिया गाहे बगाहे अपने भाई और बहनों की भी आर्थिक मदद कर देती, इसलिए उसका मान सम्मान मायके में बढ़ा। सुरेश सुरसतिया का दीवाना बना रहा। सुरसतिया के दिन अच्छे चल रहे थे। उसको पहली बार अपने होने व बहुत कुछ होने का एहसास हुआ। इस एहसास ने उसकी खूबसूरती, आत्म विश्वास तथा चेहरे की चमक बढ़ा दी।
अगले 3 - 4 वर्ष में, गाँव के कुछ लोगों ने, जिनके घर वाले मुम्बई व दुबई में काम कर रहे थे और वहाँ से काफ़ी पैसा कमाकर घर भेजते थे, उन लोगों ने गाँव के बाज़ार में ही जनरल स्टोर की दुकान खोल ली। इन नए दुकान वालो ने अपने अपने घर के बेरोजगार लड़को को, इन दुकानों पर बैठा दिया।कम्पटीशन बढ़ गया। इस दुकानों ने, सुरेश के दुकान की बिक्री कम कर दी।
दुकान की पुरानी कमाई बरकरार रखने के लिये, सुरेश को दुकान पर अधिक समय बैठना पड़ता। सुरेश दोपहर का खाना भी दुकान पर खाने लगा (पहले दुकान बंद करके घर खाना खाने जाता थ, उस दौरान दुकान बंद रहती थी। उस समय दुकान पर जो गाहक आते थे, दुकान बंद रहने के कारण लौट जाते थे) ताकि उसके दुकान के गाहक न टूटे।
पहले हर सप्ताह एक दिन दुकान बंद करके, पास के शहर की थोक दुकान से हफ्ते भर का सामान लाता था। अगल बगल की नई दुकानों पर गाहक जाने से रोकने के लिये, दुकान खोलना आवश्यक था। बहुत सोच विचार कर चिंतित सुरेश, सुरसतिया से बोला,
मैं हर रविवार को,दुकान बंद कर, थोक में समान खरीदने, पास के शहर जाता था। अब कई नई दुकाने अगल बगल खुल गयी दुकान बंद रहने पर गाहक टूटते है लेकिन साप्ताहिक रूप से थोक समान भी लाना ज़रूरी है, हर समान लाना और हर वेराइटी का सामान लाना है ताकि दुकान पर आया ग्राहक लौटे नहीं।
सुरसतिया ने उत्तर दिया,
हर रविवार को मैं दुकान पर बैठ कर बिक्री लूंगी। दुकान भी बंद नहीं होगा और कस्बे से सामान भी आ जायेगा।
सुरसतिया के इस प्रस्ताव पर सुरेश सोच में पड़ गया। उसके मन में आ रहा था कि सुरसतिया कभी दुकान पर बैठी नही, क्या दुकान सम्हाल पाएगी? रुपये का हिसाब किताब रख पाएगी ? फिर, सुरसतिया अकेले दुकान पर कैसे काम करेगी?सुरसतिया जवान है 22 -23 साल की उम्र है अपनी सुरक्षा रख पाएगी क्या ? फिर उसे ध्यान आया घर ख़र्च का हिसाब 4 साल से सुरसतिया ही रख रही है। कभी कोई समस्या नहीं हुई। बाज़ार में मिठाई बनाने वालों के यहाँ, डाईक्लीनर्स का काम करने वालो के यहाँ उनकी घरवालिया दुकान पर आकर उनका मदद करती है। ऐसे में सुरसतिया दुकान पर बैठ जाएगी तो कोई अनहोनी नहीं होगी। लेकिन अन्य औरते जो दुकानों पर बैठकर मदद करती है, उनकी उम्र, सुरसतिया की उम्र के डेढा या दुगुने उम्र की है। सुरसतिया भी कई बार किसी काम से दुकान पर आई है - लेकिन 10 - 5 मिनट के लिये।गांव में पद के अनुसार हंसी मज़ाक तो चलता है,कोई बदतमीजी नहीं करेगा। लेकिन सुरसतिया चुलबुली है उसकी बात का कोई ग़लत मतलब न निकल ले।सौदा लेने जाना भी ज़रूरी है। दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।दुकान बंद भी नहीं रखा जा सकता था।
ठीक है।
विवशता पूर्वक, ठंडे शब्दो में सुरेश बोला।
अगले दिन सुरेश सामानों की थोक खरीददारी करने के लिये शहर चला गया और सुरसतिया दुकान खोलकर बैठ गई। सुरसतिया का दुकान पर बैठना, उस छोटे शांत व सुस्त बाज़ार में, हलचल पैदा कर दी। सुरसतिया का मन, उसके किशोरावस्था में चला गया, जब उसे बाज़ार , हाट, मेला में जाना होता था - बिना बात के सभी दुकानों पर घूमना होता था - सहेलियों के साथ हंसी ठिठोलियाँ करती थी - किसके घर में क्या हुआ, इसका प्रपंच करना, आदि में बहुत मज़ा आता था। उसका चुलबुलापन उसे उन्ही स्मृतियों में ले जा रहा था लेकिन दिमाग़ ने समझाया, अब वह बड़ी हो गयी है, उसकी शादी हो गयी है और वह दुकान पर इसलिये बैठी है, ताकि एक दिन की बिक्री न रुके, कोई ग्राहक न टूटे। यह दुकान ही उसके परिवार की जीवन रेखा है।इसी से उसका सजना सवरना है, मान सम्मान है। उसने इन विचारों को झटककर, दुकान में आये ग्राहक को समान बेचने में, ध्यान लगाया।जैसे ही शाम ढलने लगी, उसने नगदी इकठ्ठा की, दुकान बंद की और घर आ गयी।सुरेश रात में समान लेकर आया।
सुबह दुकान पर, जाने के पहले, जब उसने नगदी गिनी, तो उसने पाया कि सुरसतिया ने ठीक ठाक बिक्री की, जो उसके अनुमान से अधिक था। सुरेश को इस बात का बहुत संतोष हुआ कि उसकी अनुपस्थिति में, सुरसतिया दुकान अच्छी तरह से चला रही है। इस बेफिक्री ने सुरेश को यह अवसर दिया कि और दूर जाकर सस्ता माल लाये ताकि मुनाफे में बृद्धि हो सके। सुरेश सस्ते समान की खोज में दूर दूर जाने लगा, जहाँ से आने जाने में कभी दो दिन तो कभी तीन दिन लगने लगे। सुरसतिया दो दो दिन, तीन तीन दिन दुकान सम्हालने लगी। सुरेश जब बाहर से लौटता और रुपया गिनता तो पाता कि सुरसतिया उससे भी अधिक समान बेच रही है। बिक्री बढ़ गयी, सस्ता समान आने लगा तो आमदनी बढ़ गयी। धीरे धीरे सुरेश के बाहर की यात्राएँ बढ़ गयी, सुरसतिया अब दुकान पर परमानेंट बैठने लगी, सुरेश बैठता तो भी उसके साथ बैठने लगी। बिकी बढ़ गयी। बाज़ार के आस पास के स्कूलों व गाँव के लड़कों की दुकान पर भीड़ बढ़ गयी। सुरेश ने बगल की दुकान भी किराये पर ले ली और गल्ला की दुकान वहाँ शिफ्ट कर एक तौला (तौलने वाला मज़दूर) रख दिया।वह भी दुकान चल निकली। दोनों दुकान का सस्ता लाने में ही उसका समय लगने लगा। एक दिन सुरेश बोला,
मैंने तो तेरी खूबसूरती देखकर शादी की थी। मुझे पता नहीं था कि तुम दुकान भीइतने बढ़िया ढंग से चला लोगी।तुमने केवल घर ही नहीं संभाला, बल्कि दुकान भी सम्हाली और बढ़ा दी।
सुरसतिया मुस्कराई और आँख से इशारा किया कि वह अच्छी दुकानदार है।
गाँव के लड़कों में ही एक लड़का गौरव था, वह अक्सर सुरसतिया की दुकान पर आता था। वह पढ़ा लिखा तो नहीं था लेकिन अपनी खेती अच्छी करता था। थोड़ा बहुत दंड बैठक भी करता था लेकिन बिरहा और फगुआ बहुत अच्छा गाता था।और उसकी उम्र भी सुरसतिया के आस पास की थी। वह छोटा छोटा समान लेने लगभग रोज़ उसकी दुकान पर आता। अक्सर दोपहर में,बाजार व दुकान पर भीड़ कम होती थी। ऐसी ही दोपहरिया में वह उसकी दुकान पर आता, तब दुकान का आधा परदा गिरकर,दोनो प्याज पकौड़ी, लहसुन की चटनी के साथ, भरुका में चाय पीते। कभी कभार कोई समान लेने आ जाते तो दोनों दुकान में पास पास, संदेहास्पद स्थिति में दिख जाते।
बाजार के अन्य दुकानदारो को पहले थोड़ा अटपटा लगा। फिर लोगों ने सुरेश को चेताया कि आजकल गौरव दुकान पर सुरसतिया के पास बहुत बैठने लगा है।सुरेश ने सोचा कि सुरसतिया के दुकान पर बैठने, अधिक माल बिकने, अधिक पैसा आने से लोग चिढ़ने लगे हैं।सुरसतिया के लटके झटके से, हँसकर बोल लेने से दुकान की बिक्री बढ़ती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।उसे लगा कि गौरव अविवाहित है, उसे सुरसतिया के लटके झटके ज्यादे पसंद आते होंगे, इसलिए रोज़ दुकान पर आता है।
कई गाँव लोगों ने भी बताया कि गौरव और सुरसतिया कि बहुत पटरी हो रही है। लेकिन सुरेश ने सुरसतिया से इस सम्बंध में नहीं पूछा। उसे लगा कि दोनों की शादी को पांच छ साल हो गए। सुरसतिया की कोई शिकायत नहीं मिली। सुरसतिया ने भी कभी कोई शिकायत नहीं की, हालांकि उसने यह ज़रूर महसूस किया कि हर हाल में हँसने वाली, अब कभी कभी ख़ामोश रहने और कभी अनमनी रहने लगीं थी।यह न समझ आने वाली बात थी।
एक दिन जब सुबह उठा तो सुरसतिया घर में नहीं थी। उसे लगा कही गयी होगी हालांकि ऐसा कभी हुआ नही।कुछ चिंतित, कुछ परेशान, बिना नाश्ते के ही दुकान की ओर चल दिया। उसने अनमने ढंग से, जाकर दुकान खोलकर बैठा। आस पास के दुकानदारों के पूछने पर बताया कि सुरसतिया सुबह से दिखी नही। लगता है मायके गई होगी, लेकिन बताना तो चाहिए। यह पता करने के लिये दुकान के तौला को उसके मायके भेज।कुछ ही घंटों किसी गाँव वाले ने बताया कि उसने सुरसतिया को गौरव के पाहि (खेत में घर) पर देखा है।
दुकान बंद कर सुरेश गौरव के पाहि पर पहुँचा, वहाँ सुरसतिया झाड़ू लगाती मिली। सुरेश गुस्सा, दुख,क्षोभ, अपमान से भर गया कि सुरसतिया बिना बताए घर से यहाँ आकर झाड़ू लगा रही है। इसकी क्या ज़रूरत है। गौरव उसको देखते हुए, पाहि से बाहर चला गया।
सुरेश ने अपने को संयमित करते हुए सुरसतिया से पूछा,
तुम यहाँ ! क्यो !
क्या यह भी नया काम शुरू कर दिया ?
इसकी क्या ज़रूरत है।
सुरसतिया का चेहरा पलभर के लिये ब्लेंक हुआ लेकिन उसने अपने को सम्हालते हुए पास पड़ी चारपाई पर सुरेश को बैठने के लिये कहा।
सुरेश ने दुबारा पूछा,
यहाँ क्यो आ गई ? यह क्या है ?
ठंडे मन से सुनना।
बोलो
पहले बापू के यहाँ थी, उनके लिये जीती थी। तुमसे विवाह हुआ, तुम्हारे लिये जीने लगी। तुम्हारी घर गृहस्थी दुकान में जीने लगी। अब अपने लिये जीना चाहती हूँ।
मेरा क्या होगा ? गाँव गड़ा के लोग क्या कहेंगे तुमहारे मायके वाले क्या कहेंगे रिश्तेदार क्या कहेंगे यह गौरव तुम्हे क्या दे पाएगा।जिस सुविधा और आराम से तुम रह रही हो, वह यह नहीं मिलेगा। मेरी कमी क्या है ? क्यो छोड़ रही हो।
बुरा मत मानना तुमसे मैं 13 साल छोटी थी तुमने कहा कि शादी करनी है, मैंने कर ली। मुझे पता था इससे मेरी दूसरी बहन की शादी हो जाएगी मेरे बाप को मेरी शादी के लिए कर्ज़ नहीं लेना पड़ेगा। अभाव में पली थी तुम्हारे घर आकर खाने, कपड़े, ज़ेवर में अपनी ख़ुशी ढूँढने लगी दुकान पर बैठी तो बिकी बढ़ाने में ख़ुशी खोजने लगी।एक से दो दुकान हो गयी। इसी बीच गौरव से मिलने में अलग ख़ुशी मिलने लगी, जो पहले नहीं मिली थी।फिर लगा कि गौरव के साथ रहने में ही पूरी ख़ुशी मिलेगी, तो तुम्हारा घर व पैसा छोड़कर गौरव के यहाँ आ गयी। तुम बुरे नहीं हो और न तुममे कोई कमी है लेकिन मुझे भी ख़ुश रहने का हक़ है न।