ममता / अन्तरा करवड़े
"ऊँ…आँ…। नवजात-शिशु के रुदन से कमरा गूँज उठा। प्राची ने उनींदी, थकी आँखों से देखा—शाम के पाँच बज रहे थे। घण्टा-भर पहले ही तो इसे दूध पिलाकर सुलाया था। कल रातभर भी रो-रो कर जागता रहा था। प्राची को खीझ हो आई। पन्द्रह-बीस दिन के उस नन्हें जीव को गुड़िया जैसे उठाकर उसने गोदी में ले लिया। माँ का स्पर्श पाते ही वह गुलगोथना शिशु सन्तुष्ट हो गया। अपनी बँधी मुट्ठियों की नन्हीं, मूँगफली के दूधभरे दानों के जैसी उँगलियों को ही मुँह में लेकर चूसने लगा। तभी प्राची की माँ वहाँ आई। “उठ गया क्या हमारा राजकुमार? चलो, अब घूँटी पीने का समय हो गया है।” “क्या माँ! मैं तो परेशान हो गयी हूँ इससे।” प्राची तुनक पड़ी। “क्या हुआ?” “क्या क्या हुआ? सोने भी नहीं देता ढंग से। एक तो रात-रात भर जागता रहता है। हर घंटे-दो घंटे में दूध चाहिए। कभी नैपी गन्दा करता है तो कभी गोदी में रहना होता। ऐसा ही रहेगा क्या ये?” प्राची रुआँसी होने लगी। प्रसव के लिए मायके आई बेटी की इस परेशानी को समझते हुए माँ उसके पलंग पर ही पालथी लगाकर बैठ गयी। नन्हें शिशु को अपनी गोदी में लिया और प्राची का सिर भी अपनी गोदी में रखकर उसे थपथपाने लगी। उनकी आँखों से आँसू बह चले। एक प्राची के गाल पर गिरा। उसने हड़बड़ाकर माँ को देखा। वो बड़बड़ा रही थीं: जब तक इसे माँ चाहिए, तब तक यह सुख भोग ले बेटी। आजकल पराए परदेसों का कोई भरोसा नहीं है। वो धरती निगल जाती है हमारे लाड़लों को। माँ प्राची के बड़े भैया की सामने ही रखी तस्वीर को देखे जा रही थी जो पिछले दस वर्षों से विदेश से वापस ही नहीं आये थे। नन्हें शिशु ने प्राची की उँगली अपने मैदे-से हाथ में थाम ली थी। प्राची ने अब उसे नहीं छुड़ाया।