मम्मी खाना दो / गुरदीप सिंह सोहल

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मुझे नहीं मालूम यह सब कैसे और किसकी गलती से हुआ? कौन सा आदमी उत्तरदायी है?

मैं अपनी कक्षा के कमरें में बन्द हो चुका हूं। शायद हमारा चपरासी शायद यह भूल गया था या कमरा बन्द करने से पहले, कमरा बन्द करते हुए या कमरा बन्द करने के समय और बाद में उसने यह सब देखने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की होगी कि ताला लगाने से पहले कमरे में झांक ही लिया करे। कभी उसके ख्याल में ही नहीं होगा कि डैस्कों, बैंचों, ब्लैक बोर्ड, पंखो, स्विचों तथा बल्बों के अतिरिक्त भी कमरें में कोई हो सकता है। वह अपनी ही मस्ती में चाबियों का गुच्छा उठायें हुए आया होगा, बीड़ी फूंकता, गुनगुनाता, पान चबाता हुआ, घूमता-डगमगाता, नशें में धुत लापरवाही से कमरों के ताले खोलकर बन्द करके चला गया होगा और उसने यह भी तो सोचा ही होगा कि रोज की तरह सभी बच्चे एक-एक करके अपने-अपने घरों को चले गये होगें। वैसे भी कई बच्चों को घरों तक पंहुचाने का काम रिक्शावाला या वैन ड्राईवर का है उसका नहीं। उसका काम तो केवल सुबह स्कूल लगने से पहले ताले खोलकर कमरों को खोलना है ताकि सफाईवाला कर्मचारी समयानुसार सफाई कर सके, डैस्क साफ कर सके और शाम ढ़ले कमरों को बन्द करके अच्छी तरह से ताला लगाना भर ही उसका मुख्य काम है। लेकिन आज उसकी यह सोच झुठला गयी, मात खा गई। उसकी जिंदगी में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो। आज पहली बार ऐसा हुआ।

मेरी तबीयत आज प्रातः काल से ही कुछ खराब थी, मम्मी ने स्कूल जाने से मना तो किया था, दवा तो पहले से ही ले ली थी लेकिन डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी थी, पापा ने प्रार्थनापत्र भेजने को कहा था, परन्तु पढ़ाई खराब होने की चिन्ता से मैने ही उनकी एक नहीं मानी थी। फलस्वरूप कक्षा में ठीक से बैठा नहीं जा रहा था, ठीक से पढ़ाई नहीं कर पा रहा था, दिमाग में बीमारी का जोर था, वह बीमारी से दब चुका था और ढंग से चल नहीं पा रहा था। दिन भर बैठे रह पाना मेरे लिये आसान काम नहीं था, बहुत मुश्किल था। फिर भी जैसे-तैसे दिमाग से काम लेना पड़ रहा था, पढ़ रहा था। जितनी भी देर तक बन पड़ा पढ़ता ही रहा था, (होमवर्क) गृहकार्य लेता रहा था। जब तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी, और बैठ पाना मुश्किल हुआ तब मैने मैडम की प्रमिशन से पीछे-पीछे डैस्कों के बीच में पड़ी हुई एक बैंच पर आराम करना ही ठीक समझा। दवा की खुराक घर से साथ लेकर चला था। पहले खुराक ली थी। कब मुझे नींद ने आ दबोचा, कब छुट्टी हुई? कब क्लासमेट्स चले गये? कब चपरासी कमरा बन्द करके चला गया? मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं पड़ा। क्लास मेट्स भी मुझे जगाकर साथ नहीं ले गये। जाते-जाते उन्होनें शायद सोचा होगा कि छुट्टी होते ही मैं भी अपने आप ही घर चला जाऊगां। लेकिन उन बेचारों को दोष देना ठीक नहीं, क्योंकि उन्हें मेरे वहां पर सोने का पता नहीं था। अगर पता भी होता तो क्या किया जा सकता था। यह जरूरी भी नहीं था कि वे मुझे जगाकर अपने साथ ले जाते ही। इस मामले में वे बेचारे बिल्कुल भी दोषी नहीं थे। मैं कितनी देर तक सोता रहा यह भी मालूम नहीं। जब नींद खुली, दिमाग कुछ हल्का हुआ, बीमारी का जोर कुछ ढ़ीला हुआ कमरे में घुप्प अंधेरा छाया हुआ था, कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। अन्धों की तरह टटोल-टटोल कर काम लेना पड़ रहा था। खिड़कियों, दरवाजों की दरारों में से बाहर झांकने की हिम्मत की तो बाहर काफी रात घिर आयी थी, कमरे के बाहर बरामदे में चांदनी दिखाई दे रही थी। शायद पूनम के आस-पास का कोई दिन होना चाहिए अन्यथा चारों ओर अमावस जैसे अंधेरा होता।

अकेले रहकर कमरे में मुझे बहुत डर-सा महसूस हो रहा है। भूख-प्यास भी सताने लगी है। कमरा बाहर से बन्द है और मैं हर प्रकार से असहाय, बेबस परिन्दे जैसा पिंजरे के पंछी जैसा कमरे का कैदी। लगता है जैसे कि मुझे भी कैद हो गयी है किसी अपराध की। कमरे में सोने के अपराध की। अब तो मेरा एक और भी अपराध यही है कि मैंने अपने डैडी-मम्मी का कहना न मानकर, डॉक्टर की सलाह पर आराम करने से इन्कार किया, उनकी इच्छा के बिना स्कूल चला आया। आप ही सोचिये कि यदि मैं स्कूल न आता तो क्या करता। वार्षिक परीक्षाएं दौड़ती चली आ रही है। ऐसे में स्कूल आना भी जरूरी है। घर पर रहो तो पाठ्यक्रम भी पूरा नहीं हो पाता। इसी पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिये मुझे स्कूल आना ही पड़ा। स्कूल आने का अपराध करना ही पड़ा जिसका परिणाम अब मैं भुगत रहा हूं। पिंजरे का पंछी होता तो मैं खाने-पीने का सामान मिलने की आशा कर सकता था, अपनी भूख-प्यास मिटने की उम्मीद कर सकता था। लेकिन कमरे में बन्द होने के बाद तो किसी भी प्रकार की आशा नहीं की जा सकती। क्योंकि मेरा मन इस प्रकार से कमरे में बन्द हो जाना किसी के ध्यान में नहीं थी और किसी के वश में नहीं था। कल स्कूल खुलेगा नहीं, कोई भी पढ़ने आने वाला नहीं क्योंकि अगले दो दिन छुट्टियों के हैं, मौज मस्ती करने के, पिकनिक मनाने के। अब मुझे कोई भी ऐसा उपाय सूझ नहीं रहा है जिससे मैं यहां से बाहर निकल सकूं और अपनी भूख-प्यास पर काबू पा सकूं। भूख-प्यास तो फिर कभी भी मिट सकती है। लेकिन बाहर निकलना आसान काम नहीं लगता। हार कर अंधेरे में गिरता-पड़ता हुआ मैं बिजली के स्विच तक पहुंच पाने में कामयाब हो ही जाता हूं और बत्ती जलाने के काबिल हो जाता हूं। बल्ब के जलते ही सारा कमरा प्रकाश से नहा उठता है। कमरें में चारों और डैस्कों, बैंचों के सिवाय कुछ भी नहीं नजर आता, भयानक सन्नाटा सा छाया हुआ है। जहां दिन के समय चारों और बच्चों का हल्ला-गुल्ला-सा मचा रहता था। अब वहीं चुप्पी छायी हुई है। बस्तें में से कॉपी पेन निकाल कर सोचना प्रारम्भ किया। जो भी सुझता गया पेन चलता गया और कागज पर पानी की तरह फैलता गया। पृष्ठों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, पेन निरन्तर चलता ही जा रहा है बिना रूके और बिना रूके।

घर में मम्मी-डैडी का क्या हाल हो रहा होगा यह समझ नहीं सकता और मेरी समझ से ही बाहर की बात है। अगर मुझे इस बात की और उनके इस हाल की मुझे जरा-सी समझ होती तो मैं उनकी सलाह के बिना कभी भी स्कूल आने का अपराध नहीं करता। मम्मी तो मुझे सुबह ही स्कूल आने से मना कर रही थी। शाम ढ़ले साढ़े चार बजते ही दरवाजे पर मम्मी मेरे घर आने की प्रतीक्षा करते हुए दिखाई दिया करती थी। मेरी बस का इन्तजार तब तक करती रहती थी जब तक कि वह सारे-के-सारे, मोहल्ले के बच्चों को घर तक पंहुचा न देती थी। जब तक मैं अपने कमरें में नहीं पहुंच जाया करता, बस्ता सही-सलामत अपनी जगह नहीं लगा दिया करता, स्कूल की पोशाक बदल नहीं लिया करता था, मम्मी बाहर दरवाजे पर ही खड़ी रहती और फिर धीरे-धीरे मेरे पास आती, बस्ता अपनी जगह पर पड़ा हुई देखती। मुझे कुर्ता-पायजमा पहने हुए देखती, मेरे बालों में प्यार से हाथ फिराती, सीने से लगा लेती, गोद में बिठाती, दिन भर की पढ़ाई का हाल-चाल पूछती, बात करती, एक गिलास दूध के साथ बिस्किट या केक खिलाती और (होम वर्क) गृहकार्य के लिये बिठा देती। शाम काफी देर तक होम वर्क चलता रहता, जब तक होम वर्क खत्म नहीं हो जाया करता मुझे कभी भी बाहर खेलने की आज्ञा नहीं दी जाती थी। स्कूल का काम पूरा हो जाने के बाद ही जी भर खेलने, कोमिक्स पढ़ने, टेलीविजन देखने, रेडियो सुनने की आजादी दे दी जाती थी, कुछ भी करने के लिये मैं स्वतन्त्र कर दिया जाता था। यहां पर मैं एक बार फिर अपनी उम्र के तीसरे वर्ष में प्रविष्ठ होकर सोचना चाहता हूं। क्योंकि मम्मी की लापरवाही के और अपनी शरारत के कारण मैं एक बार गुम हो गया था, मैं अपने परिवार के साथ एक विवाहोत्सव में शामिल होने के लिये गया था, बाकी सब लोग उस घर के अन्दर कामों में व्यस्त थे और मैं अपने हमउम्र साथियों के साथ खेलने में मस्त था। जाने कैसे एक बच्चे के हाथ में रंग-बिरंगे गुब्बारे देखते हुए मैं उसके पीछे-पीछे चलता जा रहा था। जब खाने-पीने के लिये तलाश की गई तो मैं नदारद था, कौन मुझे वहां तक वापस लेकर गया, कौन छोड़कर गया, किसने मुझे पहचाना और किस-किसने इतने सारी कार्यवाही में हिस्सा लिया मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं। पूरे मोहल्ले में कोहराम मच गया था, वे सब अपने-अपने काम छोड़कर मुझे ढूंढ़ने में लग गये थे। सबके चेहरे लटक गये थे। मेरे गुम होने का दोषी सब मम्मी को मान रहे थे, उनकी इस लापरवाही पर डांट रहे थे। पूरे शहर में तलाश करने के चार घण्टे के बाद जब मैं उन्हें मिला था तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था। उस चार घण्टे की दौड़-धूप के दौरान जाने उन्होनें कितनी ही मन्नतें मानी थीं। उस दिन के बाद आज तक मम्मी मुझे अपनी निगाहों से ज्यादा देर ओझल नहीं होने देती थीं।

अक्सर कभी ऐसा हो जाया करता कि कभी-कभी मैं अपने साथियों के घर चला जाता। मम्मी, डैडी को मेरी तलाश में सभी दोस्तों के यहां भेजती और डेडी घर-घर तलाशते हुए मुझे घर लेकर आते। मैं हमेशा अपराधियों की तरह सिर को झुकाये चला जाता। घर में घुसते ही मम्मी की डांट पड़ती, कभी-कभार एक-दो थप्पड़ भी रसीद हो जाते इस गुनाह के बदले कि क्यों मैं सबसे पहले घर आने की बजाय किसी भी क्लासमेट के घर चला जाया करता, घर जाने के बाद ही कहीं क्यों नहीं जाता। कहीं भी जाने से पहले मुझे घर चले जाना चाहिए ताकि वे मेरे घर लौटने तक परेशानी की हालत में न रहें, उनकीचिन्ता खत्म हो जाये, व इस बात से निश्विन्त हो जायें कि मैं स्कूल से तो वापस आ ही चूका हूं और अपने किस दोस्त के यहां पर गया हूं। मैं बालक बुद्वि का जो ठहरा, एक दिन थप्पड़ खाकर दूसरे दिन ही फिर भुला देता। एक कान से सुनता और दूसरे से बाहर कर देता। पहले किये गये उस गुनाह के बदले पिटाई होती और फिर मम्मी द्वारा पिटाई के किये गये अपराध के बदले प्यार किया जाता, शान्त मन से समझाया जाता ताकि मैं ऐसी गलती फिर कभी न करूं। बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता।

आज जब मैं समय पर घर पंहुच नहीं पाया होऊंगा तो सबसे पहले मम्मी ने स्कूल बस का इन्तजार किया होगा, मुझे बस में से सबसे अन्त में उतरते हुए न देखकर उसने यही उम्मीद लगाई होगी कि शायद आज भी मैं अपने किसी दोस्त के घर पर चला गया होऊंगा। लेकिन शाम ढ़ले तक मेरे घर पर न पंहुच पाने की हालत में पहले तो मम्मी ने परेशान होकर अन्दर-बाहर बेसब्री से चहलकदमी प्रारम्भ कर दी होगी। काफी देर तक दरवाजे पर मेरा इन्तजार करती रही होगी। मेरी खराब सेहत ने तो पहले से ही उन्हें परेशान करके रखा हुआ था, उनका दिल बार-बार किसी भी अनहोनी को लेकर कांप जाता होगा, घबराहट पल-पल बढ़ रही होगी। रह-रहकर वे मुझे कोसती भी जा रही होंगी कि बार-बार के समझाने-पीटने के बावजूद भी मैं सीधे-सीधे घर क्यों नहीं आ जाया करता। क्या पता मैं अपने किसी दोस्त के यहां पर खेलता, टेलीविजन या वी.सी.आर. देखता या कोमिक्स पढ़ता हुआ मिलूंगा।

उधर डैडी भी घर नहीं लौटे होगें। जैसे ही वे थके-हारे दफतर से वापस आये होगें। मम्मी के बुझे हुए, लटके हुए, रोने को बेताब चेहरे को देखकर डैडी ने मामला जानने-समझने की कोशिश की होगी। लेकिन डैडी के कुछ भी बोलने या पूछने से पहले ही उन्होनें अपनी चिन्ता, मेरी शरारत बता दी होगी। डैडी को पानी का गिलास, गर्मागर्म चाय पिलाकर आराम करने या कपड़े बदलने या पहले ही अपनी चिन्ता बताकर यही कहा होगा कि मैं अभी तक वापस घर नहीं लौटा हूं, स्कूल में ही हूं या भगवान जाने कहां दफा हो गया हूं कमबख्त कहीं का। जरा-सा भी नहीं सोचता अपनी मां के बारे में। बिल्कुल भी चिन्ता नहीं करता कि मेरे बिना उसकी, उसके बिना मेरी क्या-क्या हालत हो रही होगी उसके बिना मेरा भी बुरा हाल है। उनका दिल कितना कमजोर है यह उसने कभी सोचा ही नहीं। सोचता तो कभी का जल्दी से घर आ जाता कहीं भी अपने किसी भी दोस्त के घर नहीं रूकता।

डैडी के उन्हें हर प्रकार से तसल्ली देने और समझाने, दिल को काबू में रखने की कोशिश की होगी कि वे जरा-सा सब्र से काम लें, धीरज रखें और मेरे बारे में ज्यादा फिक्र न करें सब ठीक हो जायेगा। क्योंकि वे जानती ही है कि कई-कई बार मैं रास्ते में ही रह जाता हूं। अपने आप घर लौट आऊंगा। ऊपर वाला सब कुछ ठीक कर देगा। उसे सबकी ही फिक्र है और वही सबका मालिक है परन्तु मम्मी पर डैडी की किसी भी बात का जरा-सा भी असर नहीं हो रहा होगा। उन्हें तो तसल्ली नहीं आ रही होगी। वे अपनी ही जिद पर अड़ गई होंगी कि वे मेरी तलाश में इसी वक्त और अभी जायें, मुझे जल्दी से खोज कर लाया जाये, उनकी नजरों के सामने किया जाये ताकि उन्हें सकून मिल सके वरना उनका हार्ट फेल हो जायेगा।

मम्मी की चिन्ता के सामने उनकी किसी भी दलील का असर नहीं हुआ होगा कोई तर्क काम नहीं कर रहा होगा। हार कर डैडी ने भी अनमने ढ़ंग से, बड़ी मुश्किल से स्टैण्ड पर से स्कूटर खींचा होगा, सुस्ती से, मुरझाये दिल से किक मारकर स्टार्ट किया होगा इस उम्मीद के साथ के दोस्तों के घर आना-जाना तो मेरा रोज का ही काम है। अभी नहीं तो थोड़ी देर में वापस आ ही जाऊंगा, किसी भी दोस्त के घर कितनी देर तक रहूंगा भला? या फिर स्कूटर से बाहर निकलते ही उन्होनें यही सोचा होगा कि दूर कहीं से लौटता हुआ दिखाई दे ही जाऊंगा। मम्मी यूं ही बिना मतलब खुद भी परेशान होती रहती है और उन्हें भी चैन से बैठने नहीं देती जब तक कि मैं उन्हें मिल नहीं जाता। मेरा मिलना तो निश्चित ही है फिर वे बिना मतलब की चिन्ता क्यों करती रहती है? वैसे भी दफतर से थके-हारें लौटे हैं, कहीं भी जाने का उनका मुड़ नहीं बन रहा। फिर भी असमंजस में पड़े, मेरी सोच में डुबे, बार-बार डुबते-उतराते तलाश में निकल पड़े होंगे। एक-एक कर उन्होनें मेरे तमाम सहपाठियों और दोस्तों के यहां पर देखा होगा मगर हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी होगी, चिन्ता ने नहीं छोड़ा होगा। वे सबसे बार-बार यही पूछते फिर रहे होंगे कि उन्होनें मुझे अन्तिम बार कब और कहां देखा था, मैं किसके साथ था मगर वे दोस्त उन्हें कुछ भी बता पाने में नाकामयाब रहे होंगे क्योंकि वे सबके-सब यह नहीं जानते थे कि तबियत ठीक न होने की वजह से ही किसी को भी बताये बिना मैं डैस्कों के पीछे सोने जा रहा था। इस बात को केवल मैडम जानती थी, मैं जानता था या वो ऊपर वाला। बाकी सब इस बात से बेखबर ही थे।

किसी के यहां मुझे न पाकर डैडी की उम्मीदों के पुल टूट चुके होगें। मेरे मिलने की आस पर पानी फिर गया होगा। चिन्ताओं की बाढ़ ने उन्हें घेर ही लिया होगा। उनके मन में तरह-तरह के बुरे विचारों ने घर कर लिया होगा कि कहीं मेरी भी किसी ने फिरौती के लालच में, किसी के बहकावे में अपहरण तो नहीं कर लिया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई क्योंकि आजकल कदम-कदम पर जोखिम सिर उठाये खड़े है, गुण्डागर्दी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। कुछ भी कभी भी हम पर हावी हो सकता है।

मेरी तलाश की सारी कोशिशों को नाकामयाब होते हुए देखकर, सोचकर डैडी भी निराश होकर सोच रहे होगें कि हर जगह तलाश करने के बावजूद भी, कहीं भी न मिल पाने की वजह से वे क्या मुंह लेकर मेरे घर की तरफ रवाना हो सकेंगे, घर पर जा पायेंगे, किस प्रकार स्कूटर खड़ा कर पायेंगे, सिर को झुकाये कमरे में प्रवेश करेंगे, चुपके से सोफे में धंस जायेंगे, बोल नहीं पायेंगे, नजर मिला न पाने के कारण सिर भी नहीं उठा पायेंगे और फिर मम्मी से कह पाने का साहस कैसे जुटा पायेगें के मैं उन्हें कंही भी नहीं मिला, उन्होनें मुझे कहां-कहां नहीं तलाश किया, मेरी खोज में जमीन-आसमान एक कर दिया परन्तु सब व्यर्थ रहा। कहीं भी मेरे मिल पाने की उम्मीद नहीं रही, हर जगह निराशा ही हाथ लगी।

घर से स्कूल की दूरी का अनुमान लगाना तो मुश्किल है। परन्तु फिर भी स्कूल बस हमारे घर से स्कूल पंहुचने में करीब आधे घण्टे का समय ले ही लेती है। हर 10 मिनिट के अन्तर पर हर मोहल्ले के बच्चों को लाती है। बच्चों के इस उतारने और चढ़ाने के कारण ही काफी समय खर्च हो जाता है। डैडी ने घर जाकर मम्मी को सब कुछ साफ-साफ बता देना ही बेहतर समझा होगा वरना उन पर मेरी गुम होने की बात साफ न बताने, उसे गुप्त रखने का आरोप लग जायेगा। घर पहुंचते-पहुंचते ही पूरी बात बताते-बताते घर में कोहराम-सा मच गया होगा, मोहल्ले भर में बात ऐसे किसी जंगल की आग की तरह फैलने लगी होगी और मोहल्ले वाले शक्कर के एक छोटे-से दाने पर चींटियों की तरह टूट पड़े होगें। सबको मामला समझने की जल्दी लग रही होगी। मम्मी के दिल की हालत कोई भी समझने की कोशिश नहीं कर रहा होगा। सब ही लोग अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग अलाप रहें होगें। तरह-तरह के विचार किये जा रहें होगें, मशविरे दिये जा रहे होंगे। पड़ोसियों के लाख समझाने के बावजूद भी मम्मी बराबर रोये जा रही होंगी और मुझे भला-बुरा कहे जा रही होगी। कोई तुरन्त एफ.आई.आर. दर्ज करवाने की सलाह दे रहा होगा। दूसरा अपनी ही टांग अड़ा रहा होगा। कोई कह रहा होगा कि -

आजकल भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। उनकी मजबूरी देखकर एफ.आई.आर दर्ज करने की बजाय पुलिस ज्यादा मुंह फाड़ने की कोशिश करेगी। वैसे भी पुलिस नहीं चाहती कि उनके रजिस्टरों में एफ.आई.आर. की प्रविष्टियां बढ़े, वे पहले वाली निबटा लें इतना ही काफी है इसलिये वो लोग बिना एफ.आई.आर. दर्ज किये कार्यवाही करने नहीं चाहेंगे। तुरन्त रिक्शा पर गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले मुनादी करवा देनी चाहिए या आकाशवाणी पर गुमशुदा की तलाश, दूरदर्शन पर मिसिंग पर्सन्स, अखबारों में चित्र प्रकाशित करवाकर उचित या बड़े पुरस्कार के साथ सूचना निकलवा देनी चाहिए ताकि युद्व स्तर पर तलाश करके मेरा पता लगाया जा सके।

लेकिन वे सबके-सब यह नहीं जानते कि इन सबसे कुछ नहीं होने वाला, यह सब करने का कोई फायदा नहीं है। वे मुझे तलाश सकेगें? इस बात पर मुझे भी शक है। मैं उनके यहां पंहुचने तक जीवित रह भी पाऊंगा या नहीं भगवान ही जानता है। वे मुझे जीवित रहते-रहते तलाश कर भी सकेगें या नहीं? या मैं उन्हें किस-किस हालत में मिलूंगा कोई नहीं जानता। या जब तक वो मुझे तलाश पायेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, पिंजरे का पंछी उड़ान भर चुका होगा। खाली पिंजरा उन्हें मुंह चिढ़ायेगा। खाली पिंजरा फिर मिट्टी में मिल जायेगा।

डैडी ने सिर थाम लिया होगा, इतने सारे लोगों के काफी सारे मशविरों ने एक साथ उनकी बुद्वि पर आक्रमण कर दिया होगा। वे पागल हुए जा रहे होंगे और असमंजस में पड़े होंगे, उन्हें कुछ भी सूझ नहीं रहा होगा, मेरी तलाशी का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा होगा, उम्मीद के सारे रास्ते बन्द हो चुके होंगे। वे कुछ भी कर नहीं पा रहे होगें, किसी भी प्रकार का निर्णय न लेकर सोच नहीं पा रहे होंगे कि वास्तव में ऐसा क्या किया जाय जिससे मै उन्हें सही-सलामत मिल सकूं। ईश्वर को याद करने के सिवा उनके पास केाई दूसरा चारा नहीं बचा होगा। हाथ में घड़ी बंधी होती तो मैं समय देख लेता मगर अब तो अनुमान भी नहीं लगा सकता कि क्या टाईम हुआ है लेकिन अब हम तीनों ही दुख की घड़ी में से गुजर रहें है। हम सबके हाथों पर दुख की घड़ी बंधी हुई है जो न जाने कैसा समय, कितना दुख दिखायेगी, कब तक चलेगी।

अब मुझे बड़े जोरों की भूख भी लग गयी है। प्यास भी जानलेवा होती जा रही है। कण्ठ सूख रहा है। बस्ते के लंच बॉक्स में भी कुछ नहीं बचा है जिससे कुछ देर के लिये गुजारा ही किया जा सके। पेट में चूहों ने उथल-पुथल मचा रखी है। दिमाग फिर से चकराने लगा है। हर चीज में मुझे बढ़ोतरी होती हुई नजर आ रही है। लगता है बल्ब दो हो गये है, पंखे के पर छः हो गये है, स्विच बारह हो गये है, ब्लैक बोर्ड भी रंगीन टेलीविजन की तरह होता जा रहा है। पता नहीं किस प्रकार का नशा सा चढ़ता हुआ जा रहा है, दिमाग बोझिल होता जा रहा है, आंखे खुली रख पाना भी मुश्किल लग रहा है, नींद फिर से सताने लगी है, सोने की इच्छा बलवती होने लगी है। बाहर कहीं पर किसी कुत्ते के रोने की आवाज आ रही है, उस एक कुत्ते के साथ ही दूसरी आवाज भी शामिल होने लगी है। एक आवाज आने लगती है तो दूसरी ही शुरू हो जाती है। कुत्ते बराबर रो रहें है। ये बात कितनी सही है यह मैं नहीं जानता लेकिन सभी लोग यही कहते है कि कुत्तों को जब यमदूत दिखाई देते हैं तो वे रोने लगते है, उनका इस प्रकार से रोना अशुभ माना जाता है। हो सकता है यही आवाजें मम्मी के कानों तक भी जा रहीं होंगी।

हां, अब एक काम और करता हूं। बस्ते में से एक कापी और निकालता हूं, कुछ पन्ने फाड़ता हूं। फाड़े हुए पन्नों को दुबारा मोड़कर दुगुने छोटे-छोटे हिस्सों में फाड़कर डैस्क पर तश्तरियों की तरह सजा रहा हूं जैसे कि किसी विदाई पार्टी का आयोजन किया जा रहा हो जिसका मेहमान मैं ही हूं। सब पर नाना प्रकार की भोजन सामग्री के रूप में शब्द परोस रहा हूं। कुछ पर लिख रहा हूं बहुत भूख लगी है मम्मी खाना दो। मम्मी खाना दो। मम्मी खाना दो।

सहसा ही मुझे लगने लगा है कि मेरी कक्षा में ब्लैक-बोर्ड के स्थान पर टेलीविजन लग गया है मिसिंग पर्सन्स में पूरे पते के साथ, भरपूर ईनाम सहित मेरा चित्र दिखाया जा रहा है और दर्शकों के मुझे खोजने की अपील की जा रही है। यह देखकर मैं अति प्रसन्नता महसूस कर रहा हूं कि जल्दी ही मुझे तलाश लिया जायेगा, मम्मी डैडी से मुलाकात हो सकेगा। मुझे पाकर वे कितना खुश हो जायेंगे।

डैस्क मुझे अब डायनिंग टेबुल नजर आ रही है। मम्मी-डैडी के बीच में बैठा हुआ मैं खाने के लिये तैयार हूं। मम्मी ने प्लेटों में खाना परोसकर मेरे सामने कर दिया है। धीरे-धीरे नींद भी मुझ पर घेरा डाल रही है। अब ज्यादा देर तक बैठ पाना, और प्रतीक्षा कर पाना, भूख-प्यास से जूझ पाना मुश्किल हो रहा है। धीरे-धीरे मैं बेहोशी में डूबता चला जा रहा हूं। टेबुल पर से एक-एक कर मैं सामग्री के रूप में शब्द, कागज के टुकड़े उठाता जा रहा हूं, मुंह में रखता जा रहा हूं, चबाता जा रहा हूं और फिर निगलता जा रहा हूं।

(मधुमती के अप्रैल 1998 के अंक में प्रकाशित कहानी)