मम्मी मारती है! / इला प्रसाद

Gadya Kosh से
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"ऐ सुनो, तुम कितने साल की हो?" वह अपने सामने, ऊपर की बर्थ पर लेटी लड़की से पूछ रही थी।

आसपास बैठे तमाम लोगों को यह प्रश्न अटपटा लगा और सुधि तो आश्वस्त थी कि उसे उत्तर नहीं मिलने वाला। फ़िर भी उसने इंतजार किया।

"बोलो न, तुम कितने साल की हो?" रश्मिप्रभा अपना प्रश्न दुहराए जा रही थी।

आँखों में शरारत की चमक, मुख पर मुस्कान। गोरा, प्यारा सा चेहरा। किसी को भी उस पर प्यार ही आता। किन्तु तब भी उस छह-सात साल की बालिका को उसके प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। आसपास बैठे कुछ आठ लोग थे। सुधि थी, तीन-चार अन्य पुरुष थे, उसकी माँ थीं और सामने की बर्थ पर बैठी, उसी लड़की की हम उम्र, उसी की युनिवर्सिटी की एक अन्य छात्रा थी। इस सबसे परे लगातार मुस्कराता वह लड़का था, जो कम्प्यूटर पर काम कर रहा था।

ट्रेन पूरी गति से भाग रही थी, हालांकि उससे अधिक फ़र्क नहीं पड़ना था क्योंकि सबों को पता था कि ट्रेन विलम्ब से चल रही है और जानने को बाकी बस यह बचा था कि आखिर कब तक वे दिल्ली पहुँच जायेंगे। ऐसे में एक शरारती बच्ची का अपने आस -पास होना सबों के लिए सुखद था और समय बिताने का माध्यम भी। रात में जब सभी उस डब्बे में चढ़े थे तो सुधि को छोड़कर किसी ने उस पर खास ध्यान नहीं दिया था। सुधि अकेली यात्रा कर रही थी और यूँ भी उसे बच्चों से दोस्ती करने में हमेशा आनंद आता था, सो वह रात से ही उससे दोस्ती निभा रही थी।

"तुम क्या सोलह साल की हो?" अब प्रश्न थोड़ा बदल गया था।

ऊपर बैठी, मीठी मुस्कान वाली किशोरी ने निश्चित ही उसे टालने के लिए हाँ में सिर हिलाया होगा क्योंकि अब रश्मिप्रभा अपना अगला प्रश्न दाग रही थी।

"तुम क्या मेरे स्कूळ में पढ़ती हो?"

इस बार जवाब "न" में आया होगा। सुधि ने अन्दाजा लगाया। वह उसी ओर थी, जिस ओर ऊपर की बर्थ पर वह किशोरी थी। सुधि को ऊपर देखने के लिए खासी मशक्कत करनी होती। वह अपनी जगह पर आराम से बैठी रही। आसपास बैठे, ऊबते हुए लोगों को अगला शगल मिल गया था। वे हँस रहे थे।

"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे स्कूल में एक दीदी है, एकदम तुम्हारे जैसा नाक- मुँह है। तुम वही हो क्या?"

वह लड़की मुँह दबाकर हँसी। बाकी लोग भी। रश्मिप्रभा खुश। उसे ठीक से अहसास था कि वह सारे लोगों का ध्यान आकर्षित करने में सफ़ल रही है। बच्चे हमेशा ऐसा करके खुश होते हैं। उसने एक छ्लांग लगाई और सामने की बर्थ पर फ़िर से सुधि की बगल में आकर बैठ गई।

"तुम कितने साल की हो?"

"तुम्हें सबकी उम्र क्यों जाननी है?"

"बोलो न, तुम कितनी बड़ी हो? मेरी मम्मी जितनी?"

वह चुप रही।

"मेरे पापा जितनी?"

"हाँ।" सुधि ने छुटकारा पाने के लिए सिर हिला दिया।

"तुम मेरे पापा जितनी बड़ी नहीं हो सकती। मेरे पापा सबसे बड़े हैं। मेरे पापा पी एच डी करते हैं।" उसने आँखें दिखाईं।

"मैने भी की है।"

"अच्छा।" उसने हार मान ली।

मैं बन्दर बन जाऊँ? रात में मैं मंकी बनी थी।"

"बन्दर और मंकी में क्या अंतर होता है?"

वह हँसी। "एक ही है। मंकी थोड़ा स्मार्ट होता है। ज्यादा कूदता है।"

सुधि चौंकी- "अच्छा तुम्हें भी पता है।"

"और क्या । मुझे सब पता है। तुम्हें पता है, मेरी दादी का नाम क्या है?"

"नहीं।"

"मेरी दादी का नाम माधुरी है।"

"अच्छा।"

"और बोलो, मेरी मम्मी का नाम क्या है?"

"क्या है?"

"सुस्मिता।"

"माधुरी दीक्षित, सुस्मिता सेन, सब हमारे घर ही में हैं।" उसने जोड़ा।

इतनी देर से चुप तमाम लोगों की फ़िर हँसी छूट गई। सामने की निचली बर्थ पर ऊँघती उसकी माँ को कहना पड़ा-"ऐसे ही बोलती रहती है। चलो इधर आओ, थोड़ी देर सो जाओ।"

"नहीं।"

"दूँगी न एक तमाचा। चुप करके बैठो।"

वह लापरवाह रही। उसकी मम्मी सुस्मिता ने फ़िर आँखें मूँद लीं। बगल की बर्थ पर बैठे किशोर ने अपने कम्प्यूटर पर शायद यू ट्यूब से कोई गाना लगा दिया था । डब्बे में फ़िल्मी संगीत गूँजने लगा। किशोरी के अधेड़ पिता ने अखबार खोल लिया। दूसरे पुरुष ने उसी अखबार का दूसरा पन्ना माँग लिया। बगल की बर्थ पर बैठी दूसरी युवती ने अपने बाल सँवारे। वह लड़का गाने में डूबा मुसकराता रहा।

"चलो, खेलें।" रश्मिप्रभा ने फ़िर सुधि को पकड़ा।

सुधि ने अनमने भाव से उसके कहे अनुसार अपनी दोनों हथेलियाँ उसकी तरफ़ मुँह करके लम्बाई में खड़ी कर दीं।

वह अपने नन्हे- नन्हें हाथों से थाप देने लगी।

"मम्मी मारती है, हम रोते हैं।

पापा आते हैं। चिड़चिड़ाते हैं।

चीजें लाते हैं। हमें हँसाते हैं।

मम्मी चिढ़ती है। हम चिढ़ाते हैं। ऊउउउउउउउउउउ........"

उसका सस्वर गायन, सिर पर ऊंगलियाँ रखकर, जीभ निकाल कर चिढ़ाने की मुद्रा में खत्म हुआ और सुधि को बेसाख्ता हँसी आ गई।

सामने से गुजरते वेटर को देख कर सबका ध्यान भंग हुआ।

"गाड़ी कितनी लेट है?"

पाँच बजे तक पहुँचेगी।

"बाप रे। इतनी देर। हमें खाना मिलेगा क्या?"

सबको याद था। सुबह का नाश्ता देने के बाद वे सौंफ़ इलायची ले आए थे और टिप बटोर कर चले गए थे। ट्रेन को दस बजे तक दिल्ली पहुँच जाना था । अभी तीन बज रहे थे। सामान्यत: समय से चलने वाली यह ट्रेन, जिस पर यात्रा करना सुधि को हमेशा सुखद लगा, आज लेट थी। अमेरिका में यह सुख कभी नसीब नहीं होता। या तो प्लेन से या फ़िर अपनी कार। ऐसी छुक-छुक गाड़ी तो भारत में ही मिलती है। बैठ कर, लेट कर, जैसे मन हो, यात्रा करो। वह भारत आने के पहले से सोच लेती। भारत में प्लेन से नहीं, ट्रेन से यात्रा करेगी।

"तुम क्या जानो, इतना मजा आता है। समोसे, कटलेट, सोनपापड़ी, जूस सब मिलता है। सारे समय धीमा संगीत गूँजता है। पूरी की पूरी ट्रेन वातानुकूलित, साफ़-सुथरी।जरा भी थकान नहीं होती।" वह कुणाल से कहती।

वह मुसकरा देता।

"अगली बार जब तुम्हारे साथ जाउँगी न, तो फ़र्स्ट क्लास से यात्रा करेंगे। अभी अकेली जाती हूँ, इसीलिए सेकेंड क्लास ही ठीक है।"

कुणाल के साथ आने का मौका उसे इस बार भी नहीं मिला। अकेली ही चली आई, यह जानकर कि मामा के बेटे की शादी हो रही है। सबसे एक ही बार मिल सकेगी । वरना कितने बरस बीत गए सबको मिले हुए। ममेरे - मौसेरे भाई -बहनों की शकलें स्मृति में धुंधला गईं। और वक्त क्या रुका रहता है! कल की बच्ची सोना, अब बारहवीं में आ गई। आकाश इंजीनियरिंग में। सब बच्चे कितने-कितने बड़े हो गए। खुद वही क्या वहीं खड़ी है? बालों में चाँदी नजर आने लगी है। जतन से छुपाती फ़िरती है।

"एजिंग विद ग्रेस।" छुपाने की जरूरत क्या? विन्नी ने कहा था।

"कुणाल कहते हैं, डाई किया करो। वहाँ सब करते हैं। मुझे डर लगता है। पहले से चश्मा है। पावर बढ़ गया तो।"

“ठीक जानती हैं आप। इसीलिए तो कहा, कॊई जरूरत नहीं। जीजाजी को कहिए, आय’म एजिंग विद ग्रेस।“ विन्नी ने दुहराया था और वह खिलखिला कर हँसी थी।

भारत जाकर मन मुक्त हो जाता है जैसे। कोई बंदिश नहीं। कोई बनावट नहीं। जैसी हो, स्वीकृत हो।

"यहाँ आकर लगता है, हम आजाद हैं।“ विदिशा की बिटिया ने उसे फ़ोन पर कहा था। वे सब स्कूली शिक्षा के लिए बम्बई में हैं अभी। विदिशा अपनी बड़ी होती बेटियों को लेकर बेहद चिन्तित थी। "न, डेटिंग की उमर आए, उससे पहले भारत। कहाँ- कैसे बचाउँगी।" आखिर अमेरिका छोड़ दिया। खुश है अब। बेटियाँ भी।

उसे भी तो यहाँ आकर अच्छा लगा। बहुत- बहुत अच्छा लगा।

लेकिन अब लौटना है और दूरियाँ हैं कि तय होने में नहीं आ रहीं!

"खाना मिलेगा?" उसने अपना प्रश्न दुहराया। कई निगाहें वेटर की ओर उठीं

"मिलेगा। खाना बना रहे हैं।" कह कर वेटर चला गया।

"तुम मुझे एक पेन दोगी?" सुधि ने पर्स से पेन निकाल कर रश्मि को पकड़ा दिया।

वह कोट वाले अंकल के साथ अखबार के पन्ने पर हाथी- घोड़े बनाने की प्रतियोगिता में जुट गई। बीच बीच में बाकियों से स्वीकृति लेती- “देखो, मेरा ज्यादा अच्छा है न? अंकल को नहीं आता।"

बाकी लोग मुस्करा देते। थकी निगाहें खिड़की के बाहर राहत ढूँढतीं।

सुधि ने अपने बड़े -बड़े सूटकेसों पर नजर डाली। रात में डर गई थी, जब रश्मिप्रभा अपने नाना जी के साथ ट्रेन में घुसी । वे लोग सामान रखने के लिए जगह तलाश रहे थे और अच्छी खासी जगह उसके सूटकेसों ने घेर रखी थी। ट्रेन चलने को थी, जब बाकियों ने कहा था – “हो जायेगा। हो जायेगा। हम सेट कर लेंगे।" वे असंतुष्ट उतर गए थे।

उसने बच्ची की माँ से पूछा था – “क्या ट्रेन में सामान की कोई लिमिट है? मेरे ये तीन सूट्केस हैं।"

"नहीं, ठीक है।" बाकियों ने आश्वस्त किया।

सामान की लिमिट तो है, वह जानती है लेकिन वह भारत में है और यहाँ लोग एक -दूसरे को स्वीकारना, बर्दाश्त करना जानते हैं! उसे फ़िर एक सुखद अहसास हुआ – वह अपनी जननी- जन्मभूमि में है। माँ की गोद में…

फ़िर रश्मि की माँ ने खुलासा किया। "मुझे चार को ही जाना था। लेकिन सारी ट्रेनें कैंसिल हो गईं उस दिन। दिल्ली में इतना कोहरा था। आज का टिकट मिला।"

"हाँ। फ़्लाइट भी कैंसिल हो रही हैं। दिल्ली की फ़्लाइट मुम्बई में रुक जाती है। मैं दिन में दिल्ली पहुँचना चाहती थी, इसलिए भी ट्रेन पकड़ी।"

वह सुस्मिता से बातों में व्यस्त हो गई थी जब रश्मि ने टॊका था, "तुम कहाँ रहती हो?"

उसे चुप देख फ़िर से पूछ बैठी थी, "तुम क्या नोयेडा में रहती हो?"

"नहीं।"

उसने सकुचाते हुए बतलाया था- उसकी माँ को- कि उसे दिल्ली से अमेरिका की फ़्लाइट लेनी है और इसीलिए वह अपनी मित्र के यहाँ मय़ूर विहार जा रही है।

इस एक वाक्य से ही वह जैसे आसपास बैठे सभी यात्रियों से भिन्न और अलग हो गई थी। हालांकि यह अहसास उसे तब नहीं हुआ था। अब जैसे- जैसे वक्त गुजर रहा है, सहयात्रियों का रुख देख-सुन रही है, उसकी बेचैनी बढ़ रही है। अबकि बार दिल्ली बहुत अपरिचित लगी। बड़े -बड़े फ़्लाई ओवर और उन पर हार्न बजाती गाड़ियाँ। बेतरतीब, बेहिसाब भीड़। दिल्ली का मिजाज बदल गया है। पहले से बेहतर है या बदतर, पता नहीं। बाह्य तौर पर प्रगति ही दीखती है….

"अब प्रीपेड टैक्सी नहीं मिलती।"

"लेकिन मुझे तो अपनी मित्र के घर जाना है। उसने कहा था, प्रीपेड टैक्सी लेकर आ जाना।"

कोट वाले सज्जन चुप हो गए।

वेटर सबों को वेजीटेबल बिरयानी के छोटे लंच पैकेट पकड़ा गया।

सुस्मिता ने रश्मि को जबरदस्ती खिलाने की कोशिश की।

"ममी कुछ पीने को दो न।"

उसने मिरिन्डा की बोतल निकाली।

सुधि बाकियों की तरह खाती रही। इतने से भूख क्या मिटनी थी। थोड़ी देर को खुद को बहलाया जा सकता था।

“शाम के चार तो बज गए। अभी गाजियाबाद भी नहीं आया?" उसने वेटर से पूछा।

"सात तो बजेंगे।" वह बोला।

बाकियों ने आँखों ही आँखॊं में समर्थन किया।

वह चिन्तित हो उठी।

काश! उसके पास सेल फ़ोन होता। कम से कम विन्नी से बात तो कर लेती। घर पर बूढ़े माँ – बाबूजी को बता देती कि घबराएँ नहीं। मा- बाऊजी की चिन्ता से हालत खराब होगी।

"ट्रेन कैंसिल हुआ, इसीलिए तो मैं इसे आज छोड़्ने जा रहा हूँ। इसका एक्जाम है आठ तारीख से। " लहजा पूरा बंगाली था और सुधि को समझते देर नहीं लगी कि ऊपर बैठी वह किशोरी और उसके पिता, ये सज्जन, बंगाली हैं।

"मैं यह सोचकर परेशान हूँ कि मेरे माँ-पिताजी परेशान होंगे। मेरे पास सेल फ़ोन भी नहीं।"

उन्होने समझदारी से सिर हिलाया। सबों के पास सेल फ़ोन था। न सुधि की हिम्मत हुई कि माँगे, न किसी ने अपना उसे देने की पेशकश की ।

"मम्मी, दिल्ली कब पहुँचेंगे?” रश्मिप्रभा बार-बार चिल्ला रही थी। उसका धीरज भी अब खत्म हो गया था। "बस आधा घंटा और बेटा।" सुस्मिता हर बार जवाब देती। उफ़ कितने बोर हो रहे हैं।" वह गहरी सांस भरती।

उसकी शरारतें खत्म हो गई थीं। बाकी के लोगों के लिए भी मनोरंजन का आखिरी साधन भी खत्म हो गया था।

कुछ दस मिनट बीतते और सुस्मिता के सेल फ़ोन की घंटी बजने लगती। सुबह से यही हाल था।

"जी बाऊ जी, अभी तो गाजियाबाद भी नहीं आया, अभी तो ऐसे ही बीच में गाड़ी रुक गई है।"

"मैं इस ट्रेन को उड़ा दूँगी।"

"ऐसे नहीं बोलते। इसीलिए ट्रेन रुक गई है। तुम बुरी बातें बोलती हो। चलो ट्रेन को धक्का दो। चलने लगेगी।" सुधि ने रश्मि से कहा।

उसने किनारे से जोर लगाया। और सहसा ट्रेन चल भी पड़ी।

"लो, चला दिया।" उसके चेहरे पर विजय भाव तैर आया।

फ़िर से एक बार लोग हँसे। मायूसी छँटी।

"इसी तरह चलाते रहो। तब तो पहुँचोगी।" सुधि ने कृत्रिम गंभीरता से कहा।

"उफ़, मैं तो बोर हो गई।" वह आगे वाली बर्थ पर भाग गई। "अदिति, चलो होम वर्क करते हैं।मम्मी स्केच पेन दो।"

दोनों ने कागज फ़ैला लिए। उसकी मम्मी ने इस बार कोई विरोध न कर उसे पेन थमा दी। थोड़ी देर को वह फ़िर ड्राइंग की दुनिया में डूब गई।

"पूरे चौबीस घंटे हो गए। इतनी देर में तो मैं भारत से अमरीका पहुँच जाती।" सहसा उसके मुँह से निकला।

"अच्छा है न आन्टी, आपको सब तरह के एक्स्पीरियेन्स हो गए।" सामने की सीट पर बैठी नवयुवती ने कहा। स्वर में चिढ़ के साथ थोड़ा व्यंग्य था।

उसे इच्छा हुई कहे- “अनुभव तो अपनी छात्रावस्था में बटोर चुकी हूँ बेटॆ, इससे भी बुरे, लेकिन आज का अकेलापन भिन्न है।“ वह चुप रही। शायद अमेरिका शब्द पर यह प्रतिक्रिया हुई थी। दूसरी लड़की ने भी उसके वाक्य पर मुँह बिचकाया था। उसे नहीं बोलना चाहिए था, इस तरह। कल तक अपना- सा महसूस कर रही सुधि अब अपने को अपरिचित लोगों के बीच पा रही थी जैसे। उसकी मायूसी बढ़ती जा रही थी, मन भटकने लगा था- कितना अपरिचित हो गया है यह देश उसके लिए अब। क्या अपने शहर में इसी तरह घबराती? वहाँ तो सारे रास्ते मालूम हैं। और इसी सोच पर चौंक गई वह, कौन सा शहर? वह तो डलास के बारे में सोच रही थी। डलास अब उसका अपना शहर हो गया!

"किस फ़्लाइट की बात कर रही हैं आप?" कम्प्यूटर वाला लड़का उसकी बगल में आकर बैठ गया था।"मेरी बहन ह्य़ूस्टन में रहती है। तेरह-चौदह घंटे की फ़्लाइट होती है। आप क्या वेटिंग टाइम भी जोड़ रही हैं?"

इच्छा हुई पूछे – “किस फ़्लाइट से जाती है आपकी बहन? सारा समय जोड़ॊ तो बीस-बाइस घंटे हो जाते हैं। मैं क्या झूठ बोल रही हूँ।“ उलझना उचित न लगा। उसने "हाँ" में सिर हिला दिया।

"तुम दिल्ली में कहाँ जाओगी?" रश्मि फ़िर पास आ गई थी।

"मयूर विहार।"

"वो तो हमारे घर के पास ही है। हमारे घर आओगी?"

"तुम मेरे साथ चलोगी?"

रश्मि की आँखें सप्रश्न मम्मी की ओर उठ गईं।

"दादा जी स्टेशन पर बैठे हैं, सुबह से।" वह बोली।

"क्या आपकी कार है?" उसने पूछा।

"नहीं।"

उसे लगा, वह पूछ सकती है, सारे रास्ते तो इनसे बात करती आई, इनके घर का हाल जाना, अपना बाँटा, इस बच्ची के साथ खेलती आई, "मुझे तो टैक्सी करनी ही है। क्या आपलोग मेरे साथ चलेंगे? मुझे कम्पनी मिल जायेगी। भारत बहुत समय बाद आई हूँ, दिल्ली भी अब अपरिचित-सा शहर है मेरे लिए। आपलोगों के साथ मैं भी अपनी जगह पहुँच जाउँगी। हम एक ही दिशा में तो जा रहे हैं।"

सुस्मिता चुप रही।

वह समझ गई।

गाड़ी न्य़ू देहली रेलवे स्टेशन पर खड़ी थी। एक-एक कर सब चल दिए। उसके शहर से साथ-साथ ट्रेन में चढ़े लोग। वह असहाय देखती रही। "कुली आ जायेगा। आपका सामान उतार देगा", कहते हुए काले कोट वाले सज्जन भी विदा हो गए। वह चुप रही। याद आया, कैसे सहयात्रियों के भरोसे आज से कुछ बरस पहले भारत में अकेली यात्राएँ किया करती थी और हर बार कोई न कोई उसकी सहायता कर देता था, सामान उतार देता था ।बिना कहे....। तब छात्रा थी, नवयुवती। या कि शायद यह अमेरिका का टैग है जो उसे अलग, अस्पृश्य बना रहा है, वह प्रवासी है न! या कि लोगों में सम्वेदना नहीं बची! .... भारत भी अमरीका होता जा रहा है। सहसा एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने डब्बे में प्रवेश किया और उसके हाथ स्वत: जुड़ गए। रश्मि का उनसे चिपकना उसे समझा गया था, वे उसके दादा जी हैं।

"मेरे दादा जी।" वह खुशी से फ़ूल रही थी।

"इसीलिए तो मैने प्रणाम किया।" वह बोली।

"इनका सामान है।" सुस्मिता बोली।

"मैं कुली भेजता हूँ।" वे मुस्कराए।

वह कृतज्ञ हो आई।

कुछ पन्द्रह मिनट और बीत गए। कोई नहीं आया। वह अकेली डब्बे में बैठी रही। दोनों ओर से लोग उतर कर चले गए थे।उसने आहत अनुभव किया। एक रात का परिचय क्या इतना भी नहीं होता कि वह अपने सहयात्रियों से इतनी सी सहायता की अपेक्षा पाल सके! एक कुली पाने की। पूरा डब्बा खाली हो चुका था। अब? अब तो ट्रेन यार्ड में जायेगी। उसने अपने भारी सूटकेस किसी तरह सीट के नीचे से खींच कर बाहर निकाले। डब्बे का कर्मचारी आगे बढ़ आया। उसकी मदद से उसने अपना सामान उतारा। वह अब प्लेटफ़ार्म पर थी। निपट अकेली। कुली तलाशती हुई कि प्री पेड टैक्सी या आटो तक पहुँच सके। उसे पता था, उसे लेने कोई नहीं आनेवाला। विन्नी आज कलकत्ते से किसी समय लौटी होगी। वह यदि फ़ोन कर पाती तो शायद किसी तरह आ भी गई होती। किन्तु जब ट्रेन इस तरह लेट हो और आने की सूचना भी न हो! रात के आठ बज बज रहे थे, कड़ाके की ठंढ उसकी हड्डियाँ तक जमा देने को आतुर थीं.... भूखी, थकी, हैरान, उसे लगा वह रो देगी… इतनी कमजोर वह कबसे हो गई! अमेरिका की सुविधाजनक जिन्दगी थी इसके पीछे या कि सहयात्रियों का सहसा उभर आया बेगानापन…. रुलाई घोंटती वह अपने पर ही दया से भर उठी।

"ऐ, रोती क्यों हो?" मम्मी ने मारा?" रश्मिप्रभा अपनी मम्मी के साथ दूर जाती हुई पलट कर पूछ रही थी। आँखॊं में शरारत।

"कौन सी मम्मी? किसकी मम्मी?" उसके मन में उभरा। वह तो अपनी जननी- जन्मभूमि को भेंटने आई थी न! बेटी उसकी, जनम की प्रवासिनी… एक बार फ़िर आँखों में आँसू उमड़ आये। रश्मि प्रभा अब भी उसे एकटक देख रही थी।

नहीं, उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिये। यह बच्ची तो उसे अब भी पहचानती है!

माँ की मार से कहीं चोट लगती है!

वह लौटेगी। बार बार….

सुधि अपने आँसू पोंछ लिये। उसकी तरफ़ देख मुस्करायी और “न” में सिर हिला दिया।

जाती हुई रश्मि अब मुस्करा रही थी।