मरती मानवता / नीना सिन्हा

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अनु दी की मृत्यु की खबर ने नीति को चौकाया नहीं था, शायद कुछ ऐसी ही खबर की उम्मीद थी। चौंकाया था इस खबर ने की उनके शव को कन्धा देने के लिए चार लोग भी नहीं आये। जो तीन लोगों के कंधे पर वो शमशान पहुंची उसमे से दो उनकी बड़ी बहन के बेटे और एक उनका रैयत था। समाज के सभी लोगों ने आसानी से अपना पल्ला झाड लिया। इस खबर ने नीति को झकझोर के रख दिया। मानवता के ऊपर ये कैसा प्रश्न-चिन्ह था? क्या हुआ इस समाज को जिसका हृदय किसी के मौत पर नहीं पसीजा? लोग कहते हैं रावण के मरने के बाद श्री राम ने लक्ष्मण को रावण के पास उसका ज्ञान और आशीर्वाद लेने भेजा। मतलब दुश्मन को भी मरने के बाद उसकी अच्छाई के लिए याद किया जाता है। पर ऐसा क्या था जिसने लोगों के अन्दर से मानवता छीन ली। नीति को ऐसा लगता है जैसे मानवता भी सिर्फ समृद्ध और सफल लोगों के लिए ही बची है, असफल और असहाय लोगों के लिए नहीं।

मनुष्य के भीतर की मरती मनुष्यता सचमुच चिंता का विषय है। इंसानियत और आपसी सौहाद्रता की ईमारत पल-पल, ईंट- ईंट गिर रही है, जैसे नीचे बुनियादें ही खोखली हो गयी हों। इस मरती मानवता की जिम्मेद्दारी हम आधुनिकीकरण पर डाल देते हैं या शहरीकरण पर। अनु दी जहाँ रहती थी वहां पडोसी भी रहते थे और रिश्तेदार भी और वो उत्तरप्रदेश के एक छोटे से शहर का एक छोटा सा क़स्बा है। आप उसे महानगर की संज्ञा भी नहीं दे सकते जहाँ हम ‘पाश्चात्य सभ्यता’ पर सारी तोहमत डाल कर साफ़ निकल जाये। एक ज़माने में वहां बहुत रौनक हुआ करती थी और मानवता भी किलकारियाँ मारा करती थी, पर पिछले कुछ दशकों में वहां सिर्फ सामाजिक मूल्यों का ह्रास ही हुआ है।

जब से लोगों में एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगी है, तब से जैसे रिश्तों में जंग ही लग गयी हो। एक दूसरे को गिरते देख एक अद्भुत सुख से भर जाने की इस मानसिकता ने मानवीयता की गरिमा में जैसे सेंध लगा दिया हो। हमें खुद को दूसरे से सफल पा कर बड़ी संतुष्टि मिलती है। अपनी सफलता को हम दूसरे से बांटते नहीं, बल्कि उसे चिढाने के लिए उपयोग करते हैं। अपने सफल और धनाढ्य रिश्तेदारों से मिलते हुए लोग सकुचाहट महसूस करते हैं, क्योंकि वो उनके सानिध्य में पर्याप्त रूप से सहज महसूस नहीं करते। सबको बस अपनी चिंता है और सब एक भीड़ के हिस्सा बन कर रह गए हैं। पता नहीं ये दोष लोगों का है या बदलते समय का।

अनु दी के इतने रिश्तेदारों के होते हुए भी ऐसा क्या हुआ जो अचानक उनके साथ हंसने-खेलने वाले सभी भाई-बहनों के दिलों में इतनी दूरियां पैदा हो गयी। क्या हुआ कि उनके चाचा-चाचियों का हृदय पाषाण हो गया और वो उनकी मौत पर भी अपनी अंतिम श्रदांजलि देने न आये या उन्हें श्रदांजलि देने के लायक ही नहीं समझा। ऐसा क्या हुआ जो सारे मौजूदा रिश्तेदारों ने अनु दी की मौत पर शरीक होना ज़रूरी नहीं समझा।

हम हमारे जीवन का ज़रा सा पर्त उखाड़कर देखें तो हर तरफ इतनी गंदंगी और कीचड़ मिलती है कि उस पर रोना आ जाता है। यदि हमारे जीवन में फूल न होते, पवित्रता न होती, प्रकाश न होता, सिर्फ अँधेरा होता, कीचड़ होता, गंदगी होती तो कैसा होता? हर कोई उसमे कीड़े की तरह बिलबिलाता और मर जाता। कभी अंतःकरण में किसी तरह की छटपटाहट न होती। पर पवित्रता की एक झलक पा लेने के बाद, प्रकाश का एक कण पा लेने के बाद आत्मा अँधेरे के साथ मित्रता नहीं कर पाती। उसका मन प्रकाश के एक कण के लिए छटपटा उठता है। पर अनु दी के मौत पर किसी की आत्मा क्यों नहीं छटपटाई? क्या कारण था की ऐसा कुछ नहीं हुआ?

वो कारण था आर्थिक। अनु दी का परिवार बड़ा था और माता-पिता दुर्बल, ऐसे में अनु दी और उनकी बड़ी बहन ने घर की बागडोर सँभालने की सोची और अपने चाचा लोगों से घर और खेत से आए अनाज पर बराबरी की मांग की और अपने परिवार की बड़ी संख्या को देखते हुए थोड़ी उदारता की याचना की। और यहीं से इस जंग ने धीरे-धीरे सारे रिश्तों की आहुति देनी शुरू कर दी ।एक तो लड़कियां, उस पर इतनी लम्बी ज़बान। ‘नारी सशक्तिकरण’ सुनने में बड़ा अच्छा लगता है पर नारी अगर आवाज़ उठा दें तो फिर ये पुरूषों के लिए बड़ी चुनौती वाली बात हो जाती है।।

पर जिसके पास पैसा नहीं होता उसकी आवाज़ कौन सुनता है। पैसे का न होना, और लड़कियों का बोलना उन्हें निर्लज्ज और चरित्रहीन के वर्ग में रख देता है। अनु दी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। किसी को शिकार बना कर हम सब कैसे अपने आप को सुसंस्कृत समझते हैं। किसी की कमजोरी को अपनी ताकत कैसे समझ लिया जाता है। क्यों किसी रिश्तेदार की जुबान नहीं कांपी उनके चरित्र के बारे में बात करते हुए । अचानक उनके बारे में बातें फ़ैलाने वाले लोग एकदम से कैसे चरित्रवान हो गए। लोगों को तो सिर्फ अपनी ही नहीं, गाँव, कस्बे और मोहल्ले की लड़कियों के बारे में भी कोई ऐसी बात करें तो उसे रोकना चाहिए, उसे झाँपना चाहिए, न की उघारना।

लोगों के ऐसे व्यवहार और तेवर ने अनु दी और उनके परिवार को और भी आक्रामक बना दिया। लगातार के संघर्ष और रिश्तेदारों की संदिग्ध नज़रों ने उनलोगों को और विक्षुब्ध कर दिया। रिश्तेदारों ने उन्हें अपनी प्रसन्ताओं में शामिल करना बंद कर दिया। धीरे-धीरे एक तरह से उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। उनके आत्मसम्मान को ज़बरदस्त ठेस पहुंची पर उनलोगों ने कोई मनुहार नहीं की, कोई दया की भीख नहीं मांगी पर आक्रामक ज़रूर हो गयी। ऐसा नहीं की उनकी गलतियाँ नहीं रही पर क्या और किसी की कोई गलतियाँ नहीं रही? जीवन और नियति से मारे हुए लोगों को और भी मारना कहाँ तक न्यायसंगत था? लोगों के लगातार के वहिष्कार ने, उनके और उनके परिवार के लोगों के मानसिक संतुलन को बिगड़ना शुरू कर दिया।

अनु दी की पीढ़ी के छोटे भाई-बहनों के विवाह होने लगे। अनु दी और उनकी बाकी तीनों बहनें सबको विदा होती देखती रही पर उनका घर कभी नहीं बदला । उन सबका हृदय व्यथित ज़रूर हुआ होगा पर उन्होंने इसका पता किसी को नहीं चलने दिया। शायद अपने भाग्य को सबने स्वीकार कर लिया था या किसी चमत्कार का इंतज़ार था उन सबको।

पीड़ा एक लम्बी सड़क की तरह होती है। अनु दी की जिन्दंगी की ये पीड़ा उनका प्रारब्ध थी या उनकी सीख, मालूम नहीं। पर उनकी कहानी हमेशा ऐसी नहीं थी। कोई कहता है जवानी के जोश में उनकी अपेक्षाएं बहुत बड़ी हो गयी थी – यथार्थ से दूर। कर्म के सिद्धांत को देखा जायें तो आश्चर्य होता है कि क्या ईश्वर ने अनु दी और उनकी सारी बहनों के कर्म एक जैसे ही लिखे थे। अनु दी के और चाचाओं के बच्चे पढ़-लिख कर निकलते चले गए पर ऐसा क्या और कहाँ गलत हुआ की अनु दी कभी भी अपने चक्रव्यूह से नहीं निकल सकी। क्यों अनु दी का जीवन इतना अभिशापित रहा? नीति आज भी इस सवाल का उत्तर ढूढ़ने की कोशिश कर रही है। नीति को ऐसा लगत है, जैसे अनु दी कह रही हों,

मेरे कितने आंसू और कितनी आहें खर्च हो गयी

पर मेरी मृत्यु के पश्चात् तू मेरी कविता पढेगी

और सचमुच आज नीति उनकी जिन्दंगी की कविता को एक भारी मन से पढने की कोशिश कर रही है। ईश्वर अनु दी की आत्मा को शांति दे।

किसी ने बड़े गर्व से लिखा था हिंदुस्तान में सूरज पहले उगता है। पर आज के पारिवारिक आधार तंत्र को देख कर लगता है जैसे हिंदुस्तान में सूरज ने कब से उगना ही बंद कर दिया है।