मरभुक्खा / प्रतिभा सक्सेना
किंडर-गार्टन से जो पढ़ाई शुरू हुई, तो साल-दर-साल गुज़रते गये और वह द्रौपदी के चीर सी लंबाती चली गई। बी। ए। पास करते-करते मन पढ़ाई से भर गया। उन्हीं दिनों समझा जाने लगा था, जिसने बी। एड। कर लिया उसने बड़ा तीर मार लिया। मैंने भी सोचा, जिस काम में जीवन का एक युग से भी अधिक झोंक दिया, वहाँ एक साल और सही। सच तो यह है कि होस्टल में रह कर पढने का आकर्षण था, जो मैंने बी। एड। ज्वाइन कर लिया।
खींच-तान औऱ दौड़-भाग में साल बीता। इम्तहान देकर सोचा, चलो अब पढाई का भूत सिर से उतरा। मुक्ति का एहसास घर पहुँचने की उत्सुकता को चौगुना किये दे रहा था। एक और अच्छी बात थी कि घर तक की यात्रा नें मुझे अकेले रह कर बोर नहीं होना था, होस्टल की मेरी साथिन और उदीयमान लेखिका आरती मेरे साथ थी। उसे तो मुझसे भी आगे जाना था।
होस्टल से बोरिया -बिस्तर समेट कर हमने घर की राह पकड़ी। बमुश्किल दो स्टेशन निकले होंगे कि ट्रेन रुक गई। पहले इन्तज़ार होता रहा, अब चली, अब चली, फिर लोग नीचे उतरने लगे। और फिर वहीं चहल-कदमी करने लगे। जितनी जल्दी घर पहुँचने की थी उतनी ही देर होती जा रही थी। चलते-फिरते लोग ख़बरें लाने लगे -'आगे लाइन टूटी है’, ’एक्सीडेन्ट हो गया है’, ’आगे पटरियों पर डब्बे उलटे पड़े हैं’, ’ट्रेन आगे नहीं बढ़ेगी’, 'अगले स्टेशन से फ़ोन आया है कि इस लाइन की ट्रेनें मत छोड़ो' वगैरह, वगैरह। जितने मुँह उतनी बातें।
'पता नहीं घर कब पहुँचेंगे?’
'तू तो फिर भी पहुँच जायेगी, अभी तो हम दो जनें हैं, ’ आरती की चिन्ता थी, ’मुझे तो इतनी आगे अकेले जाना है। बड़ी मुश्किल हो जायेगी। ’
हमारा डब्बा प्लेटफ़ार्म से थोड़ा आगे था। लोग खाने-पीने का सामान खरीदने के लिये दौड़ लगा रहे थे - पता नहीं कितनी देर पड़े रहना पड़े! छोटा-सा स्टेशन! कुछ फलों के ठेले और एकाध चायवाले!
चलते-फिरते मुसाफ़िर ख़बर लाये कि कि वहाँ प्लेटफ़ार्म पर तो इसी के पीछे छीना-झपटी मची है, वो तो ये कहो कि अभी सिर-फुटौव्वल की नौबत नहीं आई।
'वो देखो उधऱ गाँव की तरफ़ से कोई केलों का टोकरा लिये चला आ रहा है। '
'बुला लो भाई, बेचेगा ही तो। हमीं खरीद लें। ’
कुछ लोग जाकर उसे घेर लाये। और डिब्बों के यात्री भी दौड़ पड़े।
'नहीं भाई, ये तो हमारे डब्बेवालों ने चुकता कर लिया है। ’
हमारे डिब्बे में धूम मच गई।
'अरे भई, केलेवाले, इधऱ!’
'ओये, इधऱ को देख!’
'केला देना भाई?’
दनादन केले खरीदे जा रहे थे। केलों का पूरा -का -पूरा टोकरा हमारे डिब्बे में आ गया। दाम दुगने हैं तो क्या हुआ, पेट में तो पड़ेगा कुछ!
सबसे पैसे इकट्ठे हुये और एक-एक केला बाँट दिया गया सबको। एक यात्री एक लड़के को पकड़ लाया। उसके झोले में बिस्कुटों के छोटे-छोटे पैकेट भरे थे।
'बाहर तो लूट मची है। सारी ट्रेन के लोग जुटे पड़े हैं। इसे पकड़ नहीं लाता तो हमें कुछ नहीं मिलता। ’
'दो पैकेट इधर देना। ’
'ना भाई ना। एक व्यक्ति को एक पैकेट। आखिर सभी को चाहिये। ’
'अरे, औरों को तो इतना भी नहीं मिल पायेगा। ’
'क्यों आरती, तुम्हारी मौसी इसी स्टेशन पर तो आईं थीं?
'हाँ, पर अबकी बार मैंने मना कर दिया था। आतीं तो कहतीं -छुट्टियों में कुछ दिन रुक जाओ। मैं तो पहले जाकर अपने घर रहूँगी, फिर सोचूँगी कहीं और का। ’
ट्रेन में बड़ी गर्मी थी। सब लोग उतरने लगे।
'कम से कम चार घंटे लगेंगे! आगे का मलवा साफ़ होगा तब ट्रेन बढ़ेगी यहाँ से। ’
'चलो आगे, उधऱ दुकान के पास चलकर बैठते हैं। उधऱ वेटिंग-रूम है, ’ आरती से कहा मैंने।
'सोच रही हूँ, मौसी के घर हो आऊँ। ’
'और मैं अकेले रहूँगी यहाँ?’
'तुमसे कितनी आगे मुझे अकेले जाना है, कुछ पेट-पूजा का हिसाब भी तो चाहिये। अच्छा तू भी चल न!'
'ना बाबा, तू ही जा। ये सामान भी तो देखना है’ मैंने कहा’लेकिन आरती ज़रा रुक। मैं जरा टायलेट तक जाऊँगी। ’
मैंने साबुन तौलिया निकाला और पर्स उसे पकड़ा दिया, ’सामान का ध्यान रखना। ’
आँखों पर पानी के छींटे डाल मैंने ज़रा अपनी गत सुधारी। बाहर आई तो मेरा माथा ठनका। थोड़ी दूर वह एक लड़के के साथ खड़ी बतिया रही थी। इतनी-सी देर में यह लड़का इसे कहाँ से मिल गया?
मैंने आवाज़ लगाई, ’अरी ओ, आरती!’
'हाँ, ’ पास आती हुई वह बोली, ’इससे मिल -अजीत है, मेरा मौसेरा भाई। इसे पता लग गया ये मोटर साइकिल ले कर आया है। अब मैं जा रही हूँ। ’
'कितनी देर में लौटेगी?’
'फ़िकर मत कर। जल्दी आ जाऊँगी। ’
'ट्रेन तो चार घंटे पहले नहीं चलने की’ अजीत बोला।
चलते-चलते आरती ने पर्स पकड़ाया, ”विधु, तेरा सारा सामान मैंने कंड़ी में सम्हाल कर रख दिया है। देखना!’
मैंने हुँकारा भरा, ’अच्छा!’
मैं अकेली रह गई स्टेशन पर। मेज़ पर जहाँ मैंने केले और बिस्कुय का पैकेट रखा था एक लड़का बैठ गया था आ कर।
बैठा रहने दो, ये तो स्टेशन है! पर बैठा कैसे ठाठ से है -कोई समझे सामने रखा सामान इसी का है! लो चाय भी आ गई उसके लिये!
तौलया -साबुन लिये ही लिये मैं उधर चली आई, और दूसरी कुर्सी पर बैठ गई कि हाथ बढ़ा कर केला-बिस्कुट उठा सकूँ।
कितनी देर हो गई, अभी तक चाय नहीं लाया, जब कि मैंने पहले ही कह दिया था। मैने छोकरे को इशारे से बुलाया, ’ क्यों, मेरी चाय कहाँ है?’
'लाया था, पर आप यहाँ थीं नहीं, तो मैंने सोचा ठंडी हो जायगी सो इन्हें दे दी। ’
कुर्सी पर बैठे लड़के ने हाथ बढ़ा कर केला उठाया।
मेरा केला!
मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा अजीब आदमी है। अब वह केला छील रहा था। चूक गई तो भूखी रह जाऊँगी।
'सुनिये, केला मुझे खाना है। ’
वह चौंका। अधछिला केला मुँह के पास ले जाते -ले जाते ले जाते रुक गया।
अजीब तरह से मेरी ओर देख कर बोला, ’हाँ, हाँ लीजिये। आप खा लीजिये। ’
अधछिला केला उसने मेरी तरफ़ बढा दिया।
झपट्टा-सा मार कर केला ले लिया मैंने। यह केला तो मैं खाऊँगी ही। मैं झटपट केला खाने लगी।
'आज स्टेशन पर नाश्ते के लिये कुछ नहीं है, ’ लड़का कह रहा था।
अब कैसी सफ़ाई दे रहा है, खाने के लिये कुछ नहीं है तो इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे का उठा कर खा जाओ - मैंने सोचा पर कहा कुछ नहीं।
दूसरे हाथ से मैंने बिस्कुट का पैकेट अपनी ओर खिसका लिया। इसका क्या ठिकाना, इसी पर हाथ साफ़ करने लगे।
बस, मेरे सोचने भर की देर थी, उसने बिस्कुट का पैकेट अपनी ओर खींचा, खोला और दो बिस्कुट निकाल कर दूसरी ओर देखते हुये खाने लगा।
हद हो गई। शराफ़त जैसी तो कोई चीज़ इस दुनिया में बची ही नहीं।
छोकरा चाय का प्याला रख गया था। कहीं मेरा कप उठा कर पीने न लग जाय! मैंने झटपट चाय उठाई और सिप करके रख दी -अब जूठी चाय तो लेने से रहा।
फिर हाथ बढ़ा कर मैंने बिस्कुट का पैकेट उठाया और बिस्कुट निकाल कर खाने लगी। पैकेट को सावधानी से हाथ में पकड़े रही - कहीं फिर न उड़ा ले!
उसकी आँखों में बड़ा अजीब-सा भाव आया- कुछ सनक गया-सा लगता है, मैंने सोचा। अच्छे-खासे भले घर का लगता है। पर किसका दिमाग़ कब चल जाये क्या ठिकाना!
'इधऱ बढ़ाइये’, उसकी दृष्ट बिस्कुटों पर थी। मैं थोड़ा डर गई थी। कहीं कुछ कर न बैठे, ऐसे लोगों का क्या ठिकाना! मैंने चुपचाप पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया।
उसने बचे हुये में से आधे बिस्कुट निकाल लिये और बाकी का पैकेट मेरी ओर बढ़ा कर मुस्कराया। मैंने हाथ बढ़ाकर से पैकेट ले लिया -कहीं ये भी गये तो मैं तो भूखी ही रह जाऊँगी!
बिस्कुट खा कर वह खड़ा हो गया। मैं मन-ही मन भुनभुना रही थी। मुँह से निकला, ’कैसा भूखा है!'
उसने शायद सुन लिया। पलट कर कुछ क्षण बड़े ताज्जुब से मेरी ओर देखा और आगे बढ़ गया।
ऊँह, सुन लिया तो सुन ले! कोई झूठ कहा मैंने! दूसरे का सामान उठा कर कोई खाने लगे तो और क्या कहा जायेगा?
लगता तो पढ़ा-लिखा है। गुंडा भी नहीं लगता। आँखों में कोई अप्रीतकर भाव भी नहीं। फिर? होगा! ऊपर से क्या पता लगता है कोई कैसा है?
कैसे-कैसे लोग होते हैं? लगता है दिमाग़ में कुछ खलल है। फिर तो घर के लोगों को अकेला नहीं छोड़ना चाहिये।
छोड़ो, मुझे भी क्या?
दो-चार बिस्कुट ले लिये। चलो, भूखा था, खा गया!
मैंने अपना तौलिया -साबुन उठाया और आकर अपने सामान के पास बैठ गई।
आरती अभी तक नहीं आई थी। ढाई घंटा हो रहा था। निश्चिन्त होकर बैठी होगी। उसे क्या पता मैं किस मुसीबत में जा फँसी थी! बैठे-बैठे ऊँघ आने लगी मुझे।
लो तीन घंटे हो गये! आरती का कहीं पता नहीं। अगर ट्रेन चल दे तो!
आराम से ठूँसे जा रही होगी! मैं यहाँ भूखी बैठी हूँ। पर्स में से इलायची निकाल कर चबा रही थी कि वह आती दिखाई दी।
आकर बोली, ’ मैं तो डट कर खा आई हूं। तूने खाया कुछ?
'हाँ खाया तो है, पर बताऊँगी पब। ’
'देख, मौसी ने तेरे लिये भी गरम-गरम पूड़ियाँ भेजी हैं। और यह चाय-नाश्ता भी। ’
उसने पैकेट रखने के लिये कंडी का ढक्कन उठाया, ’अरे, तूने तो कुछ खाया नहीं विधू? ये बिस्कुट, केला सब जस के तस रखे हैं। ’[
मैं चौंकी!
'मैंने तो निकाल कर मेज़ पर रखे थे। ’
'हाँ, तू टायलेट गई थी न तो मैंने उठा कर कंडी में धर दिये थे। तुझे बताया तो था। यहाँ सब भूखे हैं, कोई उटा लेता तो? तभी न जाते-जाते कह गई थी। ’
'हाय राम!’
मैं सर पकड़ कर बैठ गई। । तो वह चीज़ें उसी की थीं!
मेरे सिर में घुमनी-सी आ रही थी।
'क्या हुआ विधु? क्या हुआ तुझे?’
'कुछ नहीं। ’
'तबीयत तो ठीक हैं न तेरी? गर्म-गर्म पूड़ी खा ले!’
'मुझे नहीं खानी। ’
'अरे क्या बात है? अभी तू कुछ बताने को कह रही थी?’
'नहीं, अब कुछ नहीं रहा बताने को। ’
'कैसी अजीब लड़की है। ’
ट्रेन अभी तक रुकी खड़ी है।
मैंने चारों ओर सिर घुमा कर देखा। वह कहीं दखाई नहीं दिया।
'आरती, अब झटपट चल कर ट्रेन में बैठें। '
'हाँ अब तो चलनेवाली होगी, अजित ने पता कर लिया था। ’
अपना सामान उठा कर मैं एकदम ट्रेन की तरफ़ चल दी।
'अरे, अरे, आराम से चलेंगे। अभी दस-पन्द्रह मिनट हैं। ', वह चिल्लाती रह गई।
सामने से आते हुये एक व्यक्ति से टकराते-टकराते बची।
'इत्मीनान से चलिये, अभी नहीं छूटी जा रही ट्रेन। ’
मैंने डिब्बे में अपनी सीट पर आकर ही दम लिया।
आरती को बस खाने की पड़ी है। सामान ठिकाने से रख कर बोली, ’अब तू भी खा ले न विधू, बेकार अभी से गर्मी में यहाँ चली आई। ’
'कहा न, मुझे भूख नहीं है। ’
'अरे क्या हो गया तुझे? अकेले रहना पड़ा, गुस्सा आ रहा है मुझ पर?’
मैं प्लेटफ़ार्म के दूसरी तरफ़ की खिड़की से मुँह बाहर निकाले बैठी हूँ। मन-ही-मन मना रही हूं - हे भगवान वह इस ट्रेन में न हो! अगर इस ट्रेन में हो, तो भी इस डिब्बे में न आये! फिर ध्यान आया केले और बिस्कुट तो इसी डिब्बे में... अब अब?
आरती सामान के साथ खटर-पटर कर रही थी। उसे तो बस पूड़ी की पड़ी है। खुद का पेट भरा है तो अब मेरे पीछे क्यों पड़ी है? बार-बार खाने को कहे जा रही है।
'मैं नहीं खाऊँगी। ’
'देख नाराज़ मत हो बहना, किसी के घर जाकर फिर अपना बस तो रहता नहीं। ’
'नहीं आरती, मेरा सिर दर्द कर रहा है। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। ’
ट्रेन चलनेवाली थी।
वह साइड की सीट पर आकर बैठ गया है।
बाकी का सारा सफ़र मैं साड़ी के पल्ले से मुँह लपेटे खिड़की से टिकी रही। आरती से कह दिया, ’स्टेशन आने से पहले जगाना नत मुझे। ’
'अच्छा, सो जा तू। ’
हुँह। ऐसे में नींद किसे आती है? इतनी गर्मी और ऊपर से मुँह पर साड़ी का लपेटा!
घऱ आकर चैन की साँस ली। शाम को नहा-धो कर बड़ा हल्का-फुल्का लग रहा था।
भाभी ने कहा, ’लाओ, आज मैं तुम्हें तैयार कर दूँ। ’
'क्यों?’
'कुछ मेहमान आनेवाले हैं। ’
तैयार होकर हमलोग छत पर खड़े थे।
'लो, वे लोग आ गये, ’भाभी नीचे देखती हुई बोलीं।
'कौन लोग?’
'तुम्हारे दिखवैया, और कौन? लड़का और उसकी बहन दोनों आ रहे हैं, ’कहती-कहती वे फटाफट नीचे उतर गईं। मैंने ज़रा-सा उचक कर देखा।
अरे, ये तो वही है -ट्रेनवाला!
मेरे तो होश गुम!
अब क्या होगा? हाय राम!
इस घर से तो कहीं भाग कर भी नहीं जाया जा सकता। रास्ता ड्राइँगरूम से होकर है। और वहाँ? । नहीं। नहीं उसके सामने बिल्कुल नहीं जाना है। पता नहीं सबके सामने क्या कह दे! कहीं बदला निकालने को मुझे ही’भूखी' कह दिया तो?
मेरा सिर घूमने लगा।
'चलो न, अब यहाँ क्या कर रही हो, ’भाभी बुलाने आ पहुँचीं।
'भाभी, मेरी तो तबीयत खराब हो रही है। ’
'बेकार नर्वस हुई जा रही हो। वैसे तो इतनी बोल्ड बनती हो!’
'पहले ज़रा मेरी बात सुन लो। ’
'अब कहना-सुनना बाद में पहले नीचे चलो। ’
'एक बार सुन लो भाभी, साधारण बात नहीं है यह। ’
'मालूम है, साधारण बात नहीं है... अरे चलो भी। इतनी जल्दी भूल गईं? मेरी तो आफ़त कर डाली थी तुमने। अब भी पूछती हो -सिर झुकाये क्यों बैठी रहीं? तुमने क्यों नहीं कुछ पूछा?’
'भाभी, पूरी बात सुन लो पहले। ’
'मेरे पास फ़ालतू समय नहीं है विधु, चलो जल्दी। ’
उन्होंने आगे बढ़ कर मेरा हाथ पकड़ लिया।
'तुम मुझे बचा लो भाभी! तुम समझ नहीं रही हो। बात यह है', मैं गिड़गिड़ा रही थी।
'अरे काहे को घबराई जा रही हो? उसकी बहन तो वही कल्पा है, तुमसे एक साल सीनियर। घर तो हमलोगों का जाना-परखा है। लड़का तुम समझ लो। ’
'मुझे कुछ नहीं पता था सच्ची भाभी। मैंने किसी का कुछ नहीं खाया। अच्छा तुम्हीं बताओ, मेरी नियत खराब है?’
'कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो। अरे, तुम्हारा तो चेहरा फक् पड़ा है। ’
'मुझे चक्कर पर चक्कर आ रहे हैं। ’
अच्छा चलो अपने कमरे में चलो। ’
मुझे कमरे में छोड़कर फिर वे पता नही क्या करने चली गईं!
अपने ही कमरे में अपराधी-सी बैठी हूँ मैं।
पिता जी के पास आते शब्द कानों में पड़ रहे हैं -’हाँ, आज ही तो आई है एक्ज़ाम देकर। रात-रात जाग कर पढ़ाई की गर्मी। ऊपर से ट्रेन बीच में पाँच घंटे रुकी खड़ी रही। एक्सीडेन्ट देखा होगा उसने! रास्ते में कुछ खा भी नहीं पाई बिचारी। तबीयत तो ख़राब होगी ही। ’
आवाज़ पास आती जारही है, कुछ और आवाज़ें भी।
उन लोगों को यहीं मेरे कमरे में लाया जा रहा है।
मेरे सिर में ठनाटन हथौड़े जैसे बज रहे हैं। मालूम नहीं क्या हो रहा है यह सब।
मौज में आने पर अब भी, कभी-कभी ये मुझसे पूछते हैं -' हाँ तो प्रथम भेंट के शुभ-अवसर पर आपने क्या उपाधि प्रदान की थी हमें?’
शुरू-शरू में तो ऐसी झेंप लगती थी कि कहाँ भाग कर मुँह छिपा लूं अपना!
पर अब। ख़ैर। जाने दीजिये क्या फ़ायदा वह सब बताने से!