मराठी भाषा की 'कोर्ट' अखिल भारतीय है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 मई 2015
अनेक पुरस्कारों की विजेता मराठी भाषा की 'कोर्ट' में गुजराती, अंग्रेजी व उर्दू का विपुल प्रयोग यथार्थवाद के कारण किया गया है, क्योंकि विभिन्न जाति के लोग अपनी मातृभाषा में बोलते हैं। अत: यह एक हिंदुस्तानी भाषा की फिल्म मानी जा सकती है और सबसे बड़ी बात यह कि यह फिल्म सिनेमाई भाषा और मुहावरे का प्रयोग भी करती है। फिल्म अदालत की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करती है और बताती है कि कानूनी आंकी बांकी गलियों में न्याय पिस जाता है। गहरी मानवीय संवेदनाओं की यह फिल्म जर्जर व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत दस्तावेज और चुनौती की तरह उभरती है।
फिल्म का नायक 65 वर्षीय दलित कवि है जिसे जनशाही का शायर कहा जाता है और जो नुक्कड़ पर मराठी लोक संस्कृति के अनुरूप गीत गाता है। उसके क्रांतिकारी काव्य से सरकार भयभीत है और उस पर तरह-तरह के मुकदमे कायम करती है। उसके काव्य को एक गटर साफ करने वाले की आत्महत्या का जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि मृतक की पत्नी स्पष्ट करती है कि अंडरग्राउंड सीवेज की बदबू को सहने के लिए वह काम के पहले शराब पीता था। सामान्य स्थिति में उस बदबू की सुरंग में घुसना असंभव है। वह लकड़ी गंदगी में डालकर देखता है कि अगर कॉकरोच बिलबिला रहे हैं तो वह गटर में प्रवेश कर सकता है। गोयाकि मनुष्य के जीवन का मोल कॉकरोच से भी कम है। कुछ वर्ष काम करने पर कर्मचारी स्वयं कॉकरोच की तरह मलबे पर जीने वाला हो जाता है। सरकार इन कर्मचारियों को गैस मास्क एवं अन्य आवश्यक उपकरण नहीं देती।
एक अमीर गुजराती परिवार का युवा वकील ऐसे ही मजबूर लोगों के केस लड़ता है। कानून की पतली गलियों में मुकदमे को टालने वाले खेल से उसे निराशा होने लगती है, परंतु वह न्याय दिलाने का प्रयास करता है। अदालत के एक दृश्य में एक कैथोलिक इंडियन क्रिश्चियन महिला स्लीवलैस कपड़े पहन कर कोर्ट में अर्जी लगाती है तो उसे कहा जाता है कि जब वह 'भद्र' कपड़े पहनकर आएगी तब सुनवाई की जाएगी। इस जहालत के खिलाफ क्या किया जा सकता है। अदालत की निर्मम प्रक्रिया में पिसते गरीबों की पीड़ा का सटीक विवरण फिल्म में किया गया है। फिल्म की कथा गंभीर है, परंतु फिल्म में शालीन हास्य की समानांतर लहर निरंतर चलती बहती है।
क्लाईमैक्स में सेशन कोर्ट की एक माह की छुट्टी है और अंतिम दिन अत्यंत बीमार कवि की जमानत रद्द की जाती है। धीरे-धीरे कोर्ट खाली हो जाता है। चपरासी एक-एक करके बत्तियां बंद करता है और परदे पर देर तक छाया अंधकार बहुत कुछ कहता है। अगली उजली सुबह जज महोदय अपने परिवार के साथ समुद्र तट पर सानंद छुटि्टयां मना रहे हैं। उनकी दोपहर की नींद में बच्चों के शोर से खलल पड़ता है, तो वे उन्हें पीट देते हैं। न्यायालय के अंधकार और अन्याय का संवेदनशील चित्रण दर्शक को स्तब्ध कर देता है। व्यवस्था का हर अंग शिथिल व संवेदनाशून्य है और देश में हू तू तू की तरह अदालत अदालत का खेल जारी है। जर्जर व्यवस्था के स्वांग सदियों से जारी हैं। कुछ 1857 में अंग्रेजों के स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ बनाए अमानवीय कानून स्वतंत्र भारत में जस के तस कायम हैं और समाज में शांति के भंग होने के अंदेशे मात्र से न्यायालय की चक्की में संवेदना पिस रही है।
भारत में दलित वर्ग द्वारा रचा साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। धूमिल की तरह कुछ कवि लोकप्रिय हुए हैं, परंतु अधिकांश दलितों द्वारा रचा साहित्य अनदेखा ही रह गया है। उनका प्रकाशन व प्रसार नहीं करके हम भोगे हुए यथार्थ से अपना 'पाक दामन' बचा रहे हैं। साहित्य कभी अस्पर्श नहीं होता, उसकी कोई जाति और धर्म नहीं है। वह केवल मनुष्य का दर्द है। हमारी संकीर्णता इतनी व्यापक हो गई है कि अब उससे कोई क्षेत्र अछूता नहीं है।