मरीचिका / रूपसिह चंदेल
कार के उधर मुड़ते ही उनकी आंखें उस पर टिक गयीं. छड़ी पर दाहिने हाथ की पकड़ मजबूत कर वे कुर्सी पर तनकर बैठ गये और कार का रंग पहचानने की कोशिश करने लगे. सुबह की गुनगुनी धूप में भी उन्हें उसका रंग स्पष्ट नहीं हो पा रहा था. वह उन्हें सफेद, पीली, आसमानी और किसी क्षण मिले-जुले कई रंगों की दिखायी दे रही थी. उन्हें झुंझलाहट हुई सूरज पर जो ठीक उनके सामने रोशनी उगल रहा था. एकटक कार को देखने से उनकी आंखें चौंधिया गयीं. क्षण-भर के लिए उन्होंने आंखें बन्द कर लीं. लेकिन अधिक क्षण तक वे अपने को रोक नहीं सके. इस बार आंखों के ऊपर बायां हाथ तानकर वे देखने लगे.
कार सरकती हुई आश्रम के गेट पर आकर रुकी तो उनकी आंखों में उसका रंग स्पष्ट हो उठा. 'क्रीम कलर' की एम्बेसडर थी. उनके दिल की धड़कन कुछ तेज हो गयी. महिन्दर के दोस्त की ही होनी चाहिए ये कार---- दोस्त की कार में ही तो वह आता रहा है अब तक. वे सोचने लगे, "मैं उठकर गेट तक नहीं जाऊंगा--- अपने आप वह ढूंढ़ता हुआ आयेगा यहां---- डेढ़ साल बाद आया है---- देखें पहचान पाता है या नहीं----."
उन्होंने एक दृष्टि फिर कार पर डाली और किसीको उससे उतरते देखा. धुंधलाई आंखों से उसके सफेद चमकदार सूट और आकृति का लेखा-जोखा कर उनका अनुमान अब विश्वास में बदलने लगा कि वह उनका बेटा महिन्दर ही है. खुशी से उनका दिल फिर तेजी से धड़कने लगा. क्षण-भर तक उधर देखने के बाद वे उठ खड़े हुए और कुर्सी का रुख गेट की ओर से दूसरी ओर करके बैठ गये और सोचने लगे, ’देखना है महिन्दर मुझे खोजता हुआ कितनी देर में यहां आ पाता है.’ यह सोच उन्हें उतना ही आनन्द आया जितना किसी बच्चे को आंख -मिचौली खेलने में आता है.
छः महीने से महिन्दर की प्रतीक्षा करती उनकी आंखें थक गयीं हैं. जैसे-जैसे समय बीतता गया---- उनकी विकलता बढ़ती गयी---- प्रारम्भ में वह छः महीने में एक बार अवश्य आ जाता था--- कुछ वर्षों बाद यह अवधि बढ़कर वर्ष में एक बार हो गयी---- क्योंकि उसकी व्यस्तता बढ़ गयी थी---- उसकी पत्नी बीना ने भी कहीं नौकरी कर ली थी---- बच्चे स्कूल जाने लगे थे--- आदि-आदि समस्याएं वह उन्हें बता देता और वे वर्ष में एक बार उसके आने की प्रतीक्षा में अपना समय काटते रहते ---- लेकिन इस बार डेढ़ वर्ष से ऊपर हो गया है---- उन्हें उसे देखे.
उसके समाचार जानने के लिए उन्होंने चार पत्र भी उसे लिखे. लेकिन आज तक वे अनुत्तरित हैं. महिन्दर के न आने और न ही पत्रों के उत्तर देने से उनके अन्दर आशंकाएं मक्खियों की तरह मंडराने लगी हैं. बार-बार एक प्रश्न कचोटने लगा है उन्हें, 'कहीं वह उनसे पूर्णतया मुक्ति तो नहीं चाहता---- जान-बूझकर तो यह उदासीनता नहीं ओढ़ रहा वह---- या कोई विवशता----.' वे जितना ही सोचते हैं, उलझते जाते हैं और एक निष्कर्ष निकाल लेते हैं, 'उसका यह व्यवहार अकारण नहीं है---- वह भी पश्चिमी सभ्यता का अंग जो बन चुका है.'
और यह विचार आते ही उनका ह्रदय दरक-दरक जाता है---- हजारों तीव्र ज्योतिस्फुलिंग बुझते दिखायी देते हैं उन्हें.
’तो क्या इसीलिए उन्होंने उसे इस योग्य बनाया था---- यही सुख पाने के लिए---- जीवन के अन्तिम दिन सरकारी कृपा पर आश्रित रहकर 'वृद्धाश्रम' में बिताने के लिए----.’ उनका मन अतीत की कन्दराओं मे भटकने लगता है.
फौज की अफसरी---- प्रतिक्षण अनुशासन की संगीनों पर लटकते फौजी आदेश---- एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकती जिन्दगी और पत्नी की असामयिक मृत्यु से घबड़ाकर उन्होंने महिन्दर को 'बोर्डिंग' में डाल दिया था--- बचपन से ही उसे अपने से अलग करना पड़ा था उन्हें---- न चाहकर भी. लेकिन वे इस बात से सदैव सन्तुष्ट रहे थे कि वे जैसी अपेक्षा उससे करते थे, महिन्दर पढ़ने में उससे भी दो हाथ आगे था.
उसके एमएससी करने तक वे लेफ्टीनेण्ट कर्नल के पद पर पहुंचकर अवकाश प्राप्त कर चुके थे. एमएससी के बाद महिन्दर को आई आई टी दिल्ली में एम टेक में प्रवेश मिल गया तो वह वहीं होस्टल में रहने लगा. वे साउथ एक्स्टेंशन में किराये के मकान में रहने लगे.
एम टेक करने के तुरन्त बाद उसे यू एस ए जाने का अवसर मिला. वे अपनी कमाई का अधिकांश भाग उसकी पढ़ाई पर खर्च कर चुके थे. अध्ययन समाप्त होते ही महिन्दर को वहीं पर जॉब मिल गया. वे प्रसन्न थे.
वे साउथ एक्सटेंशन का मंहगा मकान छोड़कर सफदरजंग एन्क्लेव के दो कमरों के छोटे से फ्लैट में आ गये थे और पेंशन से अपना गुजारा करने लगे थे. वे यह सोचकर प्रसन्न थे कि जल्दी ही महिन्दर आयेगा और वे उसके साथ यू एस ए चले जायेंगे और एक दिन महिन्दर आया भी---- अकेले नहीं था वह----उसके साथ में भारतीय मूल की एक लड़की भी थी ---- जिसके साथ वह वहीं शादी कर चुका था--- उस दिन उन्हें पहली बार यह अनुभव हुआ कि कहीं कुछ ऐसा अवश्य है, जहां वे चूक गये हैं. उन्हें इस बात का दुख न था कि उसने विवाह कर लिया था--- दुख इस बात का था कि उनको बताने तक की आवश्यकता अनुभव न की थी महिन्दर ने.
वर्ष दर वर्ष गुजरते रहे और उनकी शारीरिक क्षमता घटती गयी. महिन्दर प्रतिवर्ष आता रहा उनसे मिलने--- कभी अकेले--- कभी बीवी-बच्चों सहित---- उनसे आग्रह भी करता साथ चलने के लिए---- लेकिन वे टाल जाते.
उन्होंने अपने आराम के लिए एक नेपाली लड़का रख लिया था. तीन वर्षों तक वह उनकी सेवा करता रहा. उस नौकर पर अपनी सारी जिम्मेदारी छोड़कर वे निश्चिन्त थे. लेकिन तभी एक दिन रात में वह लड़का उनके कुछ रुपये, रेडियो, घड़ी आदि सामान लेकर भाग गया. इस घटना के दूसरे दिन अखबार में उन्होंने एक अन्य चोरी और हत्या की घटना पढ़ी---- भयानक और वीभत्स समाचार था वह. वृद्ध दम्पति के एक बेटी थी शादी-शुदा---- अपने घर में. उन्होंने भी अपनी सुविधा के लिए एक नौकर रखा हुआ था--- उस नौकर ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर उन दोनों की हत्या की थी---- और नकदी और कीमती सामान उठा ले गया था.
इस समाचार ने उनके मन से यह धारणा समाप्त कर दी कि वे भी नौकरों के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं. लेकिन सब कुछ स्वयं कर सकना भी संभव नहीं रहा था--- सफाई-खाना--- आदि. कई दिनों तक वे होटलों से काम चलाते रहे--- लेकिन वहां का भोजन उन्हें पसन्द नहीं आया.
वे विकल्प की तलाश में थे---- और तभी एक दिन उनकी मुलाकात एक वृद्ध इंजीनियर वेणुगोपाल से हुई. वह कभी सी पी डब्लू डी में सुपरिंटेडेंट इंजीनियर रहे थे और अब उन्हीं की भांति उपेक्षित अवकाश प्राप्त जिन्दगी जी रहे थे. वेणुगोपाल के बेटे - बेटियां भी विदेशों में बस गए थे---- उन्हें यहां अकेला छोड़कर. महिन्दर तो उन्हें अपने साथ ले भी जाना चाहता था, वे ही नहीं गए थे---- लेकिन वेणुगोपाल के बेटे-बेटियों ने उन्हें साथ ले जाने से स्पष्ट मना कर दिया था.
वेणुगोपाल से उनकी मुलाकात होटल में ही हुई थी और दो मुलाकातों में ही वेणुगोपाल उनके अच्छे मित्र बन गए थे. शायद एक जैसा जीवन जीने वाले---- एक ही जैसे दुख से दुखी लोग जल्दी ही एक दूसरे के निकट आ जाते हैं. ऐसा ही उनके साथ भी हुआ.
वेणु ने ही उनके सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न वे लोग अलीपुर के पास नये बने 'वृद्धाश्रम' में चलकर रहें. नया खुलने के कारण वहां प्रवेश मिलने की संभावना थी और एक दिन दोनों जा पहुंचे थे वहां--- देखकर उन्हें लगा था कि वहां रहा जा सकता है---- कम से कम एक जैसे लोग तो हैं वहां----. और उन दोनों ने वहां प्रवेश ले लिया था.
आश्रम में एक सौ तीस लोग---- सभी उन जैसे ही वृद्ध ---- उनमें से अधिकांश ऐसे ही थे जिनके बेटे-बेटियां पश्चिमी देशों में जा बसे थे---- जहां की संस्कृति में अक्षम और असमर्थ वृद्धों के लिए परिवार के दरवाजे प्रायः बन्द हो जाया करते हैं---- वैसी ही पीड़ा से ग्रस्त उन सबको उस आश्रम में शरण लेनी पड़ी थी---- कुछ ऐसे थे जिनका अब दुनिया में कोई न था---- कुछ के घर-परिवार के लोग यहीं थे---- लेकिन उनकी वृद्ध काया की देख-संभाल के लिए उनके पास वक्त न था. आश्रम उन सबके लिए वरदान था---- जहां सभी अपने अतीत के सुख-दुख बांटते और वर्तमान की उदासियों को भूल जाते.
कभी किसी का बेटा-बेटी या रिश्तेदार उससे मिलने आ जाते--- वर्ष में एकाध बार. वह क्षण उसके लिए रोमांचक होता है---- अतीत की गुंजलक में खोये किसी सुखद क्षण की भांति ही.
वे भी ऐसे क्षण में----- जब महिन्दर उनसे मिलने आता है---- सारे दुख भूल जाते हैं----वे उस क्षण को मुट्ठी में बन्द कर लेना चाहते हैं---- चाहते हैं कि महिन्दर उनके पास ही बैठा रहे---- उनसे बतियाता रहे---- लेकिन उसे भागने की चिन्ता रहती है----- कभी किसी दफ्तर के काम से तो कभी एम्बेसी के चक्कर में----- वे मन मसोसकर रह जाते हैं.
आश्रम में आते समय उन्होंने सोचा था कि महिन्दर को यह अन्यथा अवश्य लगेगा---- लेकिन जब उनकी इस सूचना पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की तब वे अन्दर से और अधिक टूट गये थे और सोचते रहे थे कि गलती उन्हीं की है---- सही संस्कार नहीं दे सके वे उसे---- और इसे ही नियति मानकर वे आश्रमवासियों के साथ सब कुछ भूलने का प्रयत्न करन लगे थे. सब कुछ भूल भी गये थे---- लेकिन उसके बाद भी अपने रक्त को देखने की लालसा उनके अन्दर से कभी न मिट सकी. महिन्दर के आने का समाचार उन्हें उसी प्रकार पुलकित कर देता, जिस प्रकार किसी बच्चे को लाली-पॉप मिलने की आशा.
लेकिन इतने दिनों से उसका कोई समाचार---- सूचना न पाकर वे परेशान रहने लगे हैं. उनकी परेशानी-वेकली वेणुगोपाल समझते हैं और जब-तब उन्हें समझाने लगते हैं---- “कर्नल वख्तावर सिंह---- इस मोह को त्याग दो---- जब यह आश्रम ही अपना घर और यहां के लोग पारिवारिक सदस्य हैं तब उस झूठे मोह से अपने को बांधे रहना मरीचिका ही है---- आकाश कुसुम की आशा में आंखें फोड़ते रहने की दारुण प्रक्रिया से मुक्ति पाओ कर्नल---- देखो मैं कितना खुश रहता हूं---- क्योंकि मैं उस मोह से---- बेटे-बेटी, जिनके पास हमारे लिए समय नहीं है---- मुप्त हो चुका हूं---- तुम भी----."
"काश! मैं भी ऐसा कर पाता वेणु!" वे दीर्घ निश्वास ले वेणुगोपाल को चुप करा देते हैं हर बार.
सफेद शूट में वह युवक अपनी पत्नी सहित उनके बिल्कुल पास से गुजर गया. उन्हें आश्चर्य हुआ, उसने उनकी ओर मुड़कर भी नहीं देखा. उनकी नजरें उसी पर टिकी थीं--- एक बार वह उनकी ओर देखे तो पता चले कि वह महिन्दर है या कोई अन्य---- वे उस युवती का चेहरा नहीं देख पाये थे. वे सोचने लगे, ’अगर महिन्दर है तो बच्चे कहां हैं --- हो सकता है पढ़ाई की वजह से न लाया हो…’ आगे वे कुछ सोच पाते इससे पहले ही किसी ने पीछे से उनके कंधे पर हाथ रखा---- उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, वेणुगोपाल थे--- मुस्कराते हुए.
"कहो कर्नल क्या सोच रहे हो?"
"कुछ नहीं वेणु----." वे अचकचा गए.
"आज बलविन्दर कौर के बेटा-बहू आए हैं मिलने ---यू के से--- पूरे दो साल बाद----."
"अच्छा ---- वो सफेद शूट में----." वे उठ खड़े हुए, लेकिन उन्हें लगा कि वे चक्कर खाकर गिर जायेंगे. वेणु ने उन्हें संभाल लिया. क्षणभर तक वे खड़े रहे, फिर एक दीर्घ निश्वास ले बोले, "चलो कहीं घूम आते हैं वेणु."
और वे शिथिल कदमों से चल पड़े.