मरुयात्रा / शैवाल
अँधेरा चीलर भरी काली कथरी की तरह पसरा हुआ है। पीपल के नीचे दो-चार सुअर कूँ- कूँ करते फिर रहे हैं।' कमेटी हॉल' से सड़क तक जैसे कोई चुन-चुनकर बीरानगी के तख्त बिछा गया है। आसपास अंधकार में मिच-मिच आँखों से कुछ ढूँढ़ता हुआ जतन उठकर बैठ गया है। बगल की खाट पर सुपरवाइजर घोड़े बेचकर सो रहा है। और कोई नहीं है। अर्जुनवा घर भाग गया है। साला रिलीफ में भी भागने से नहीं डरता। शिवनन्दन को कल दो-चार बार उल्टी हुई तो उसे अस्पताल में दाखिल करवा दिया। पानी-वानी चढ़ने के बाद तबीयत कुछ ठीक हुई तो फुसककर कहने लगा, "मुझे यहीं पड़ा रहने दे, जतन। रिलीफ में नौकरी बच जाएगी..." उसकी आँखों में पता नहीं कैसा तो भय तैर उठा था। अपनी नौकरी को एक भद्दी सी गाली देकर जतन सिरहाने वीड़ी ढूँढ़ने लगा है। बीडी मिल जाने पर उसके दोनों किनारों को फूंककर साफ किया है, फिर तेजी के साथ लाइटर जलाकर सुलगा लिया है। सुपरवाइजर के कंठ से निकलती घर्र-घर्र की आवाज कुछ धीमी पड़ गई है। कुछ सुअर 'कमेटी हॉल' के पिछवारे से अगुआरे भाग आए हैं। उनके भागते पैरों की थपथपाहट गूँज रही है। उस आवाज के साथ एक और आवाज नत्थी हो गई है- मद्धम-मद्धम रोने की। आवाज बगल की मुसहरी से आ रही है। ... शायद करक्की के पेट का बच्चा खत्म हो गया- जतन ने एक अंदाजा लगाया है। या हो सकता है कि मुनेसरा-बहू ससुराल से भाग आई हो...। जतन ने पाँव उतारकर स्लीपर पहन लिया है। चबूतरे के नीचे तक पैर घसीटते हुए आया है, अंदाजा लगाने के लिए। लेकिन बात साफ नहीं हुई है। तब उसने कंठ साफ कर आवाज दी' कीन रो रहा है, ऐं... काहे के लिए रे?' दो क्षणों तक उत्तर की प्रतीक्षा में रहा है वह, फिर आगे बढ़ आया है।
अधगिरे घर की दहलीज पर बैठा हुआ एक साया तेजी से उठकर भीतर चला गया है। दूसरा घुटने में मुँह दिए बैठा रहा है। तीसरा साया दूसरे से सटकर सान्तवना देते हुए रो रहा है," तुमको अपने बाप की कसम है परमेसरा, सबर कर... मत रो..." जतन को खड़ा देख तीसरी आकृति उठकर खड़ी हो गई है। जतन ने टार्च जला लिया है। फिर पूछ बैठा है, "क्या हुआ है, ऐ परमेसरा-माय?" परमेसरा- माय ने नाक छिनककर हाथ दीवार में पोंछ लिया है। फिर रुआँसी आवाज में कहने लगी है, " बाढ़ में सुअरवा बहकर चला गया था बाबू... तो उसी के पीछे गया था परमेसरा... आज लौटा है... सुअरवा नहीं मिला, सो उसी के लिए रो रहा है..." " साला! सुअर के लिए रोता है।" जतन ने तनिक ऊँची आवाज में उसे डाँट दिया, " चल जा, घर में, सो रह।" बोलकर वह खुद अंदर घुस गया है, सर झुकाकर। ओसारे में जलती हुई ढिबरी के पास बैठी आकृति सचेत हो गई है। "ऐ सुकनी। ढिबरी इधर ला, वीड़ी जलाएँगे।" कहते हुए जतन ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया है। इधर-उधर देखकर उसने हाथ नीचे सरका दिया है। फिर फुसफुसाकर कहा, " जल्दी आना, देर मत लगाना... समझ गई?" आकृति की देह की थरथराहट ढिबरी की लौ में तब्दील हो गई है। फिर जतन लंबे-लंबे डग भरता हुआ बाहर निकल आया है...
जहानाबाद से बंधुगंज तक की पक्की सड़क से एक डगर नीचे उतरती है, आम के बगीचे में। एकड़ भर का क्षेत्र है। उतार के करीब काली थान है। नीम का छाँहदार पेड़। बगल में तिलंगी गोसाई का खेमा। खेमे के आगे बाँस से लटकी ध्वज जैसी लालटेन और नरची। भीतर ढेर सारी लुगदी पर तिलंगी की जवान बेटी पसरी रहती है- नरची के चिलम में दहकती टिकिया की तरह। डगर यहाँ से टेढ़ी हो जाती है। फिर बौनों की तरह मुँह बिगाड़े मुसहरपट्टी के झोंपड़ों की कतार शुरू हो जाती है। विसायन गंध... भागते सुअर... ताड़ के 'ताड़कोल' पर सूखने के
लिए पसरे कपड़े उसके बाद 'कमेटी हॉल' है, रामदास बाबा का चबूतरा है, पीपल का पेड़ है- फिर डगर चढ़ाव पर उठती हुई 'तड़बन्ना' (ताड़ का बगीचा) में खो जाती है। इसी 'तड़बन्ना' में जतन तहसीलदार का 'वैसक्खा' कटता है। चार लबनी ताड़ी कंठ से नीचे उतरती है तो हृदय में पुनिया का चाँद उग आता है और सुग्गाठोरनी राजमुनी का कर्जा चुकाते हुए पक्की आवाज में हाँक लगाने लगता है
ससुर मोरा दिहलन सर-सर धोतियाँ सार मोरा दिहलन धेनु गाव। आऽ ऽ सास मोरा दिहलन नन्हकी गोरड्या लऽ हाँ पूता जिया से लगावऽ ।। फिर मदमाती दोपहरी अर्थ समझाने लगती है, "नन्हकी गोरड्या का मतलब बूझता है रे टेना? नहीं? नन्हकी गोरइया माने तुम्हारी बहू... पतर ओठ राजमुनी, जिसको तुम्हारी सास ने यह कहकर दिया था कि हे पूत ! इस नन्हकी गोरड्या को अपने कलेजे से लगा लो, यह तुम्हारा आसरय खोजती है। यही कहा था ना रे? कि दोसर बात कहा था...कि भुवनवाँ के हाहापुर के बैंगले में बेसवा बनाकर रख आना? बोल न रे ससुरा ।" टेना आज तक कुछ नहीं बोला। लेकिन इस वर्ष बाढ़ में बहकर आई लाशों ने सारे प्रश्नों का उत्तर दुनियावी भाषा में दे दिया स्साला। जिस औरत को लाल लुग्गा, ललका टिकुली और कमरकसनी से लगाव है, उस औरत को आसरय की क्या जरूरत है। उसमें और छिनाल फलगू में कोई फर्क है रे? ना, कोई फर्क नहीं। रजमुनियाँ टेना का चैन खा गई और हहाती फलगू हरितवर्णा धान के खेत निगल गई। कुछ शेष नहीं रहा, अनन्त-अछोर रेत के सिवा। अब तड़बन्ना में कोयल नहीं गाएगी। सिर्फ निचाट सुनेपन के हाथों छाती कूटता विलास महतो का विलाप गूंजेगा रैनिया मयावन लगाऽ हऊ हो मरीवा ऽऽ.. इस गीत के सिवा विलास महतो के कंठ से कुछ नहीं फूटता। सामने पड़ जाने पर भी किसी से कुछ नहीं बोलता। घर से भी कम निकलता है। जब निकलता है तो सर झुकाकर रामदास बाबा के चबूतरे पर आता है, चुपचाप बैठ
जाता है। आदमी से विलास महतो क्या कहेगा कि एक ढकनी चावल लो... बाल- बच्चे पेट बजाते पड़े हैं... औरत बदहोश पागल हो गई है... और जवान बेटी सरसुती को अधरात में साला बेंगुची नटुआ ले भागा? कौन सी बात कहने के काबिल है और सब कोई तो जानता है यह सब ।
पानी जिस दिन बहकर निकल गया था, उस रात जतन 'मैदान' के लिए 'तड़वन्ना' में गया था। टार्च जलाया था, जगह देखकर बैठने के लिए। फिर एक कोने में खड़ी छाया-मूर्ति को देखकर ठिठक गया था। "कौन है?" "अरे बोलती काहे नहीं है। मुँह में लासा लगा है।" "हम सुकनी हैं।" "इहाँ क्या करती है?" एक बेमानी सा प्रश्न दाग दिया था उसने। दरअसल सुकनी पर तहसीलदार काफी दिनों से गुस्सा था। परमेसरा-माय बराबर आकर तेल-पानी लगा जाती थी, लेकिन इससे जतन को सन्तोष नहीं होता था। एक दिन उसने सुकनी के लिए इच्छा जाहिर की थी। परमेसरा-माय ने सर झुकाकर कहा था, "बेटी है बाबू... हम क्या कहेंगे उसको... भेज देती हूँ, आप ही फुसला लीजिएगा।" आध घंटे बाद उसने सुकनी को भेज दिया था। सुकनी कमरे में दाखिल होकर ताड़ की तरह खड़ी हो गई थी... और ताड़ के छिले हुए शीर्ष से ताड़ी छूने लगी थी। जतन का मगज नाचने लगा था। उसने करीब खड़े होकर लसफुस आवाज में प्रलोभन देना शुरू किया था, "रानी बना दूँगा सुक्को... कित्ता पैसा चाहिए, बोल। लाजो परी, हम तुम्हारे लिए ताजमहल बनवा देंगे।" जलन उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में भरकर चूमने को झुका था... कि एकाएक तेज झोंके के साथ बिस्तर पर गिर गया था। उसने समझा कि नखरा कर रही है, इसलिए फिर उठा। जमीन पर बैठकर उसकी पिंडलियों को सहलाने लगा था। तभी ताड़े के शीर्ष से आग बरसने लगी थी, "हरामी ! माय से भी परेम
करेगा और बेटियों से... बुढ़ापे में इतना आग है तुम्हारे अन्दर... मोयकवरा! सीधे नरक जाएगा- नरक।" जाने ऐसी कितनी बातें बोलती हुई 'अग्निदेवी' लोप हो गई थी। और जतन का मन दूँठ बबूल की तरह हर-हर जलने लगा था... स्मृतियों से वापस लौटकर जतन की आवाज और कड़वी हो गई थी, "पूछ रहा हूँ, कि इहाँ क्या कर रही है? कोई यार आएगा मिलने... किसुन भगवान राधा से मिलने आएँगे?" जतन की आवाज में व्यंग्य था- कटु व्यंग्य। सुकनी चुप खड़ी थी। जतन ने लोटा जमीन पर रख दिया था। गर्म-फनकती हथेली से उसका कन्धा छुआ था और समझ गया था कि राख के ढेर पर हाथ पड़ गया है। उसने राख में हाथ घुसेड़ दिया था... यहीं कहीं नागमणि होगा ना... पछिया हवा हहाकर दूसरी ओर बहने लगी थी। राख का छोटा पहाड़ जतन के कंथों पर गिरकर पिघलने लगा था, "हम तुम्हारी गाय हैं वावू... बड़ी भूख लगी है... एक जुरी भात दे दो..." जतन ने अधबुढ़ाई बाहों के बीच राख के पहाड़ को भींच लिया था। चिरौरी भरी आवाज में फुसफुसाया था, "तुम्हारी चरण पखारूँ रे राधा रानी ! चुप रह, सुगा... घर चल..." पछिया के अंक में राख का पहाड़ लौटने-लौटने को हुआ था, तभी तड़बन्ना के एक छोर से करैत की तरह ती-ती करता अलाप उठा था, "रैनिया भयावन लागऽ हऽ हो मीरवाऽऽ..." जतन को समर्पित होती सुकनी मद्धम स्वर में सिसकने लगी थी... और पछिया अगिनमाय की लाश पर लकड़ी लादने लगी थी हे अगिन माय! सब पापी को छमा करना... छमा करना मीरा...
अँधेरे में करवट बदलते हुए जतन का मन कसमसा गया है। ऐसा महसूस हुआ जैसे रजमुनिया छाती पर चिबुक रख गुदगुदाने लगी है- ऐ होलीवाले बुढ़ऊ देवर!
सो गयो? सुन ऽ... कलसी गाँववाली जोगिन बान मारने लगी है रे... विलोस (ब्लाउज) खोल दूँ? सनसनाहट-सी व्याप गई है पूरे बदन में। खून बाढ़ के पानी की तरह भुतहा रफ्तार में हायँ-हायें करने लगा है।... हाय राजमुनी ! कौन जानता था कि इस दहाड़ में तुझे जोगिन का बान लग ही जाएगा... तेरे चरण पखारू रे, राधारानी!... काहे को चली गई थी भुवनवा के यहाँ? ... पिछले साल इसी बरसात के मौसम में भुवनवा ने उत्पात मचाया था। रात के वक्त 'पचान' पिए हुए आया था और चिग्घाड़ने लगा था, "साला ! कहाँ गया रे टेनमा? झोंपड़ी उखाड़कर भाग... बरना लाठी करके मैं से निकाल लूँगा... इसके माँ के नेहर जाऊँ! देह पर चर्बी चढ़ गई है जूठा अनाज खाते-खाते... सुबह से बुला रहा हूँ रजमुनिया को कि दस दिन मलकिनी को तेल- पानी लगा जा... लेकिन काहे को सुनेगी ई छिनार... सघन काजल जैसी रात में चीखती-चिल्लाती रजमुनिया को भुवनवा खींचकर ले गया था। टेना झोपड़ी के दरवाजे पर खड़ा उसी दिशा में देखता रह गया था, असहाय-अनाथ की तरह। क्या करता... भुवन मालिक से लड़ाई लेता... उजड़ता... सड़क पार करती रजमुनिया भुवनवा को कोस रही थी, "तुमको हैजा हो जाए रे जरलहबा, काली मइया तुमको उठा लें रे," फिर मार खाकर फटी-फटी आवाज में गौगियाने लगी थी, "अरे बप्पा रे! जुअनजरौना... ई-ई का करता है रे हरमिवा... वेसवा समझ लिया है रे... आँय..." फिर एक तेज आर्तनाद हवा में व्याप गई थी बचइहऽ... अक 5... कोई बचइहऽ हो मीरा ऽऽ.... और उसके बाद सब कुछ शान्त हो गया था। तीन दिनों के बाद रजमुनिया भुवनवाँ के यहाँ से लौटकर आई थी, थोड़ी देर के लिए। टेना ने इन तीन दिनों में कुछ नहीं खाया था। कचहरी के बरामदे में अँगोछा विछाकर सोया रहा था। जतन ने कई बार उकसाया था कि मुखिया के पास जाकर नालिश करे। लेकिन टेना पर कोई असर नहीं हुआ था। नुची-चिथी आवाज में बोला, " भुवन बाबू मालिक हैं... रजमुनिया को ले गए तो क्या हुआ... घर-दुआर और ई जिनगी, सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है न...।"
“साला! कायर।" उसकी बात सुनकर जतन का पूरा शरीर तमक उठा था। रजमुनिया जतन को एकान्त में ले गई थी। साड़ी-झुल्ला उतारकर फेंक दिया था। नाखून और दाँतों के निशान देखकर जतन का सर झुक गया था। काँपती आवाज में राजमुनी ने पूछा था, " मालिक, आप भी कुछ नहीं कर सकते? आप भी डरते हैं उससे ?" उस दिन से कुछ खाया नहीं गया था। सोचता रहा था कि क्या करे वह ? मुखिया से जाकर शिकायत करे? लेकिन वह उसका मर्द तो नहीं है। फिर भुवनवा के खिलाफ कोई क्या बोलेगा... वह बड़े-बड़े मिनिस्टर तक पहुँच रखता है... हर वक्त सिक्स राउंडर जेब में लेकर चलता है... दिन-दहाड़े खून कर देता है... साक्षात् आग है... जतन को कुछ नहीं सूझा था तो एक महीने की छुट्टी लेकर भाग गया था। लोटा था और किसी काम से गाँव के भीतर गया था, तो देखा था कि रजमुनिया भुवनवा के गोशाला में सानी दे रही है, गोबर उठा रही है। जतन को सामने पाकर वह एक क्षण के लिए निष्क्रिय हो गई थी। फिर दूसरे क्षण अजीव-सी हँसी हँसकर बोली थी, "सुना कि मलकिनी को बच्चा हुआ है?" "हूँ।"उसने सिर हिलाकर कहा था। "बड़की बेटी का वियाह ठीक हो गया?" "उहूँ।" "भुवन मालिक को खोजते हैं?" "ना।" जतन ने सूखे होठों को तर करते हुए अपनी तरफ से एक सवाल पूछा था, " सव ठीक है ना, राजमुनी?" सुनकर राजमुनी की आँखों का एक कोना भीग गया था। हाथ से गोबर छुड़ाने का प्रयास करते हुए बोली थी, " रामदास बाबा की किरपा है।" बोलकर सर झुकाए हुए घर के भीतर चली गई थी।
उस दिन के वाद राजमुनी रात में कभी जतन के पास नहीं आई। टेना झोंपड़ी में रहता था- ताड़ी पीकर टर्र, और राजमुनी भुवनवा के बंगले में गुम रहती थी। मालकिन किसी स्त्री रोग से पीड़ित थी, सो बिस्तर से उठ ही नहीं पाती थी। राजमुनी मालिक और मालकिन- दोनों की सेवा करती थी। सब ऊपर से खुश दिखते थे या अन्दर का दुख दिखलाना नहीं चाहते थे। दिखलाने से भी क्या होता। वाढ़ आने के एक दिन पहले जतन ने देखा था कि राजमुनी झोंपड़ी के बाहर बेहोश पड़े टेना को उठाने की कोशिश कर रही है। जतन यूँ ही चला गया था वहाँ। "ऐसे ही एक दिन मर जाएगा, हरामी।" रजमुनिया ने गुस्से में आकर कहा था। फिर जतन की ओर देखकर पूछा था, "क्या तो नदिया का पानी ढेर बढ़ गया है। सुना कि कोई पुल भी टूट गया है?" "हँऽ, हमको भी ऐसा ही सुनने में आया।" बोलकर जतन आसमान देखने लगा था। थोड़ी देर के लिए बारिश रुक गई थी, लेकिन आसमान वैसे ही सफेद प्रेत की तरह दाँत विदोड़कर डरा रहा था।... साला टेना कीचड़ में सने हुए कुत्ते जैसा लग रहा था- केंचुला खाकर फेन उगलता कुत्ता। जतन ने घिनाकर थूक फेंका था। फिर राजमुनिया की मदद करने लगा था... ओसारे में कथरी पर टेना को डालकर राजमुनी हाँफने लगी थी। उसके पेट का उभार देखकर जतन मुस्कुराया था। पूछा," कितने महीने का है?" रजमुनिया लजा गई थी। बुदबुदाकर बोली थी, "बेसरम, अब तो पेट से निकलेगा।" "तुम्हारी मालकिन को भी गर्भ है ना?" "उसके तो पेट में ढेला हयऽ।" रजमुनिया ने मुँह विचकाकर कहा था, "पिछली बार भी सब वोलिस की वच्चा है, वच्चा है... लेकिन एक ठो कीड़ा भी पैदा नहीं हुआ।" टेना आँखें खोलकर टुकुर-टुकुर देखने लगा था, इसलिए रजमुनिया ने इस प्रसंग को बन्द कर दिया था। ताख पर से कटोरा उतारकर उसके सामने रखकर
बैठ गई। फिर विफरकर कहने लगी, "ई खाना हमरे बाप के लिए रख दिहिस है का? खाली ताड़ी पीकर टर्र रहता है वेसरम।" जतन डग भरता हुआ बाहर निकल आया था। वारिश फिर तेज हो गई थी। उसके बाद अगले दिन तक पानी बरसता रहा था। चुनुकपुर का पुल टूट गया था। भारधू का बाँध टूट गया था। पानी रेलता हुआ सब ओर फैल गया था। अनठेल पानी, साँप और गन्दगी। जतन कचहरी के बरामदे में चौकी पर चौकी, फिर टेवल और टेबल पर कुर्सी रख बैठ गया था- अकेले भूत की तरह। पानी निकल जाने के बाद सबसे पहले जिस आदमी के दर्शन हुए थे, यह टेना था। सर मुड़ाए, कच्छा पहने टेना कचहरी के बरामदे में आकर खड़ा हो गया था। "ई माथा काहे को मुड़ाया है रे?" टेना थका-थका-सा बैठ गया। घुटने के बीच सर रखकर रोते हुए बोला था, "रजमुनिया गंगा लाभ कर गई, मालिक।" सुनकर जतन पत्थर हो गया था। अवाक् निष्प्रभ... टुकुर-टुकुर देखता रहा था उसे। टेना से ही पता लगा कि उस दिन टेना को खाना खिलाकर, बारिश में भींगती हुई वापस चली गई थी राजमुनी और आज सुबह उसकी फूली हुई लाश गोविन्दपुर के सामने लगी हुई मिली है। पता नहीं कैसे वह गई। भुवन बाबू, उनकी मालकिन और पैदा हुआ बच्चा - सब तो सुरक्षित हैं। बच्चे की सुनकर जतन ने पूछा था, "मालकिन को बच्चा हुआ है?" " हूँ।" टेना ने नाक सुड़सुड़ाते हुए कहा था, " बड़ा सुन्दर है।" जतन के मस्तिष्क में एक प्रश्न रेंग गया था और राजमुनी का बच्चा कहाँ गया कि भुवनवा ने बच्चा हथिया लिया... कहीं इसीलिए राजमुनी को मारकर बहा तो नहीं दिया?
टेना अनाथ-टूअर की तरह रोए जा रहा था... जतन उठकर बैठ गया। बीड़ी ढूँढ़कर, जलाकर पीने लगा है। रजमुनिया होती तो बच्चे की तरह मुँह से बीड़ी खींच लेती। फिर एक फूँक खींचकर खाँसने लगती... और उसका हाथ छाती पर रखकर मसलने लगती, "ई साला तो एकदम कलेजा जला दिहिस, फुत्रू बाबू।" कितने प्यार से रजमुनिया उसका घरइया नाम उचारती थी। अब भुवनवा कहता है, "साली ऊ तो छिनाल थी। उसको तो नई साड़ी और लाल टिकुली से मतलब था। कोई जबर्दस्ती ले गए थे हम उसको। ऊ तो मरद के सामने पतिवरता बनने के लिए चरित्तर दिखलाती थी। जाननेवाला जानता है कि उसने हमारा कितना धन टिकुली-सेनुर में बरबाद कर दिया। और अगर वह सती-साध्वी थी, तब कुएँ में कूद काहे नहीं गई... काहे को हमारे यहाँ अँचरा बिछाके पड़ी रहती थी।" भुवनवा लाल-लाल आँखों को मिचमिचाते हुए सम्पूर्ण सुन्दरकांड बाँच जाता है, लेकिन अपनी बीवी के बारे में नहीं कहता कि वह जिस मिनिस्टर का दलाल है, वह उसकी औरत का यार था। क्वाँरपन में उसी से पेट रह गया था दो बार। पेट गिराने के बाद डॉक्टर ने साफ-साफ कह दिया कि अब वह कभी माँ नहीं बनेगी, लेकिन भुवनवा साला अपनी रंडी जैसी औरत को मलकिनी कहते हुए थकता नहीं। क्या जमाना है। और उसे मलकिनी कहेगा काहे नहीं, खाना- पीना उसी की बदौलत चलता है, दस बीघा खेत और राजगृह में एक कीता मकान उसी के नाम से है। भुवनवा उसको रंडी बोलकर किस लोक में जिएगा... ई नवाब की जिन्दगी कैसे गुजारेगा... हूँऽ ऽ। यह सब सोचकर जतन का मस्तिष्क नाचने लगा है। वह बीड़ी फेंककर उठ बैठा है। फिर कमीज और धोती खोलकर, ताड़ के पंखे से हवा करने लगा है। दसेक मिनट बाद कोठरी के दरवाजे पर किसी को आते देखा है, तो कुछ शान्ति मिली है, उसे। स्लीपर पैरों में डालकर तेजी के साथ रपटता हुआ वहाँ पहुँचा है। फिर ताला खोलकर, सुकनी का हाथ पकड़कर अन्दर हो गया है...
"फिर साली देर से आई तू?" उसने उसे भींचते हुए पूछा है। सुकनी कुछ नहीं बोल सकी, "ग्गे माय," के सिवा। नजदीक ही कहीं सियार बोलने लगा है... "परमेसरा अभी जाग रहिस है।" सुकनी ने उसके होठों से अपने होठों को अलग करते हुए कहा है। "जागने दे। उस साले को सुअर के सिवा कुछ नहीं सूझता।" उन दोनों के होंठों के बीच सियार की आवाज आकर फँस गई है- हुआँ ऽऽ...हुआँ ऽऽ... "कल परमेसरा के लिए भी खिचड़ी चाहिए..." "दुर साली ! अब इस वक्त खिचड़ी खिचड़ी क्या कर रही है? और कोई बात नहीं सूझती?" जतन खीझकर बक गया है। फिर राख के बीच 'नागमणि' ढूँढ़ते हुए बुदबुदाया है, "कल इसडिआ आ रहा है और इसको खिचड़िए सूझ रहा है... सबके सब किस्सा और लाड़ो को बस भतारे का किस्सा..." सुकनी का शरीर ढीला पड़ गया है जैसे उल्टी नाव पर सवार आदमी होश खो देता है। वह जतन की सारी कार्रवाइयों से दूर होकर बर्फ बन गई है। जतन क्या कह रहा है, यह सब कुछ उसके कान में नहीं पड़ रहा है। जड़ होते जा रहे मस्तिष्क और नींद से बोझिल मन में सिर्फ दो-चार आवाजें गूंज रही हैं- हुआँऽऽ... हुआँऽऽ... खिचड़ी... माय... परमेसरा... दोपहर हो गई है। एस.डी.ओ. साहब के आने का ' टैम' हो गया है। कल की अपेक्षा खिचड़ी सेंटर के आगे भीड़ भी ज्यादा जुड़ गई है। सुअर कभी-कभी भीड़ के बीच से गुजरकर इस दिशा से उस दिशा में भागे जा रहे हैं। पीपल से उतरकर रामदास बाबा के चबूतरे पर कौवों की जमात बैठ गई है। सुपरवाइजर की कुर्सी के पास एक औरत मुँह में आँचल ठूंसकर रो रही है। "काहे को रो रही है हमारे पास?"
"आप ही माय-बाप हैं, सरकार।" वह आँचल उठाकर कहती है। फटे हुए ब्लाउज से बाहर आया दप-दप करता ’स्वर्ण गोला’ जतन की आँखों के आगे आग उगल देला है। वह "हरे राम" कहकर पास-आ बैठता है। सुपरवाइजर से फुसफुसाकर कहता है, "पुअर ब्यूटी ! गरीबी भी क्या चीज होती है, हाकिम।"
सुपरवाइजर को लगता है कि जतन का मुँह ’सत्यनारायण बाबा का चुक्का’ हो गया है- रतनवा के माय... स्वाहा ! ... काली थान की गोसाईंन — स्वाहा ! फुनरिया की बहू — स्वाहा !
जतन बीड़ी सुलगाकर पूछता है, "कहाँ घर है... रे!"
"जी, सरकार ! मोदनगंज, बाबू।"
"मोदनगंज !" जतन आश्चर्य भरे स्वर में पूछता है, "हम तुमको नहीं पहचान रहे हैं।"
"जी सरकार! यहाँ हमारा नेहर है।" वह नाक से सीटीनुमा आवाज निकालते हुए कहती है, "ससुराल एकंगर है... उहाँ से मरदबा भगा दिहिस..."
"काहे भगा दिहिस?"
"करम की बात है, बाबू!" वह जमीन पर बैठते हुए कहती है, "दू गो बाल-बच्चा है। सो यहीं बस गए... नारा-टिकुली बेचते हैं... दफादार साहब के खाली मकनमा में रहते ....?"
"दफ़ादार के यहाँ काहे रहती है?"
"अब क्या करें मालिक। आसरय मिल गया है..."
जतन बीड़ी का सुट्टा खींचकर मुसहर टोली की तरफ देखता है। सुक्को खड़ी है दरवाजे पर। आज उसको ज्यादा खिचड़ी चाहिए। जतन सर फेरकर भीड़ को देखता है। आज एस०डी०ओ० भी आ रहा है।
अन्तर्द्वन्द्व में फँसा जतन बीड़ी फेंक देता है। फिर हाथ भाँजकर कहता है, "तुमको खिचड़ी नहीं मिलेगा यहाँ, ओकरी-सेंटर पर जाओ।" बोलकर वह तेजी के साथ सड़क की ओर बढ़ जाता है। वहाँ जमाहिर बाबू के घर पर काहे की भीड़ है, ए, मेडिकल कॉलेज का बैच है का? हैजा की सुई लेनेवाले हैं सब...। हैं?
जतन भीड़ को चीरकर भीतर पहुँचता है।
जवाहर बाबू के पिताजी क्रोधावेश में एक डॉक्टर को डाँट रहे हैं, "जवाहर बाबू सुई ले लें तो काहे? सड़क पर उनका मकान है इसलिए। कोई पूछने आए तो जमाहिर बाबू कह दें कि गाँव में सुई पड़ गया है? गाँव में काहे नहीं हेलते हैं... ऍ?"
एक डॉक्टर हाथ जोड़कर कहता है, "पहले इधर से ही शुरू करेंगे न?"
"काहे?" बूढ़े की देह काँपने लगती है, "गाँव में जाने में पानी लगता है... बाबू लोग को पैंट उतारना पड़ेगा... सो सबसे सस्ता जमाहिर बाबू हैं? चंडाल सब... सेवा करन निकले..."
वे हाथ फेंकते हुए घर में घुस गए हैं। डॉक्टर लोग पसीना पोंछते हैं। जतन आसमान की ओर सिर उठाकर देखता है... सूरज को पहचानने की कोशिश करता है। उसके दिमाग में कुछ शब्द रेंगने लगते हैं- खिचड़ी... सुक्को... सूरज... भीड़... काँय-काँय... सित्ताराम। एक पइसा भाय-बाप... जतन तेजी के साथ सिर झटक देता है। फिर डॉक्टरों के पास खड़ा होकर बातें करने लगता है।
जतन एक सिरे से खिचड़ी वॉटने लगा है... एक कटोरा... दो कटोरा... तीन कटोरा... दनादन नाम भी नोट करने लगा है- मुखला... टेंगना... गोरी की माय... परबतिया...ले स्साला ! तू भी ले...
झप झप की आवाज करते हुए दो-चार कर्काए बरगद के पेड़ से नीचे कूद आए हैं। जबर्दस्ती पत्तल पर चोंच रगड़ने लगे हैं। लड़कों ने उन्हें हाथ मारकर भगाया है।
जतन का हाथ रुक गया है। उसने बाल्टी ज़मीन पर रखकर अंगड़ाई ली है। बीस- पच्चीस पत्तलों पर मानवाकृतियाँ खिचड़ी में अपनी छाया खोजने लगी हैं। शेष भीड़ जतन का मुँह देख रही है, "बाबू, खिचड़ी बाँटिए न..."
"हाकिम। खिचड़िया दीजिए ना..."
और इसी बीच जतन के पीठ पीछे कोई चीत्कार कर उठा है, "अरे बाप रे। उगे माय ..हमको नय बाबू।"
"जरी सन खाय दऽ, बाबू ..."
"जान ले लेलकऊ गे मइया..."
जतन के आगे बैठे हुए लड़के उठ उठकर भागने लगे हैं। भगदड़ मच गई है। सिंगसेरा का बेटा भय के मारे चार कदम दौड़कर गिर गया है... बदन् हिलाते हुए जमीन पर छटपटा रहा है। भुलुआ का ननका जड़वत आँखें फाड़े दक्षिण दिशा की ओर देख रहा है... लछमिनिया माय दौड़ते-दौड़ते चित्त गिर गई है। साड़ी घुटने से ऊपर चली गई है... कोए काँय-काँय करते हुए बरगद के पेड़ों पर चढ़ गए हैं... सुअर भी भागती हुई भीड़ के समानान्तर दोड़े जा रहे हैं... आखिर क्या हो गया।... प्रलय ? ... भूकम्प हो गया। ... कि फिर बाढ़ आ गई...हऽ?
जतन आँखें मूंदे खड़ा है। बुदबुदा रहा है- हे अगिन माय ! सब पापी को छमा करना... छमा करना मीरा !
जतन अपने कमरे में चुपचाप बैठ है। सुक्को का इंतजार कर रहा है। सामने खिचड़ी का हंडा पड़ा है। कितनी मुश्किल से बचा पाया है सुक्को के लिए। वैसा उपाय नहीं करता तो साली भीड़ सब खा जाती। यह साली सुक्को आ काहे नहीं रही है।
एस०डी०ओ० साहब आए तो रजिस्टर में कम नाम देखकर पूछ बैठे, "इतने कम आदमी क्यों आए?" जतन ने सर झुकाकर स्पष्टीकरण दिया, "क्या कहूँ, सर। उधर से सुई देनेवाले आ गए... भगदड़ मच गई... फिर कोई डर के मारे आया ही नहीं।"
एस०डी०ओ० साहब कुछ नहीं बोल सके। बोलते क्या। यह भी तो जरूरी सरकारी काम है।
इ साली सुक्को आ काहे नहीं रही है। कहाँ मर गई। वैसे सब कुछ अच्छा ही हुआ, जो आज हो गया। सुईवाले का डर बन गया। कल से खुद कम भीड़ जुटेगी। वरना सुक्को के लिए...।
"मालिक ! मालिक... दरवाजा खोलिए, मालिक !"
जतन का विचारक्रम भंग हो गया है। कोई दरवाजा पीट रहा है। इस वक्त साला कौन आ मरा ! जतन का तन-बदन जल गया है। तेजी के साथ उठा है। पैनो (लाठी) लेकर दरवाजे की ओर आया है।
"कौन हल्ला कर रहा रे ?" चीखते और गाली बकते हुए उसने दरवाजा खोल दिया है। सामने खड़ी आकृति दबी आवाज में बुदबुदाई है, "मालिक..."
जतन को एक झटका लगा है, आकृति को पहचान कर... ई तो परमेसरा है।
"क्या है, रे?"
"मालिक..." बोलकर परमेसरा की आवाज रुन्ध गई है। जतन ने उसके सर पर हाथ फेरकर स्नेह दर्शाया है। फिर पुचकार कर पूछा है, "भूख लगी है क्या?"
परमेसरा चुप फटी आँखों से सिर्फ उसे देख रहा है।
"खिचड़ी लेगा...ऐं।"
परमेसरा सूखे होंठों को चाटने लगा है। एकबारगी आँखों से टपककर पानी होंठों तक चला आया है...।
पछिया हवा हहाकर बहने लगी है। बरगद के पेड़ों पर कौए हा-हा-हा हँस रहे हैं। बरगद के नीचे, ख़ाली पत्तल आगे रखे हुए विलास महतो बैठा है...
जतन का मन एकाएक खीझ गया है। जम्हाई लेते हुए वह एक डग आगे बढ़ आया है। रूखे स्वर में पूछ बैठा है, "फिर कोई सुअरवा भाग गया क्या?"
परमेसरा थका-थका-सा अपनी जगह पर बैठ गया है। फिर सुअर की तरह री-रीं करते रोता हुआ बोला, "सक्को कुआँ में कूद गई, मालिक।"