मर्जी / पद्मजा शर्मा
"हर शाम लीपा पोती... रात को थक कर चूर हो जाना। छोड़ क्यों नहीं देती यह सब? कोई दूसरा, इज्जत वाला काम क्यों नहीं कर लेती?"
"दूसरे काम की गारंटी है?"
"गारंटी तो जीवन की ही नहीं है... मजदूरी करोगी?"
"ठेकेदार की गारंटी है?"
"बार में डान्स करोगी?"
"खड्डे में से निकाल कर कुएँ में नहीं धकेल रही हो?"
"झाड़ू-पौंछा करोगी?"
"घर मालिक की गारंटी है?" वह हंसती है।
थोड़ी देर बाद वह कहती है "उँह, धंधे का टेम है। खोटी मत करो। ग्राहक चले जाएंगे।"
"शादी बना लो। घर मालकिन बन जाओ. फिर परिवार, समाज, सम्मान सब मिलेगा। सब सपने पूरे होंगे।"
"बेचारी मालकिन और उसके सपने। उसका मालिक तो सुबह शाम मेरे पास पूंछ हिलाता घूमता रहता है। एक खास बात सुनो। अभी तक तो मेरे सामने मर्द याचक की मुद्रा में हैं। घर बसते ही उसकी मुद्रा बदल जायेगी। अभी तो वह मेरी गर्जें करता है। कितना मिठास है उसकी बोली में? पर बाद में वह लात घूँसों से बात करेगा। ताने मारेगा। अहमक हो जाएगा। प्यार के नाम पर हर रोज बलात्कार करेगा। सच बताना क्या तुम खुश हो अपने जीवन से? क्या रत्ती भर भी मिला तुम्हें जो तुमने चाहा? क्या तुम्हाने सपने पूरे हुए? तुम क्यों समाज सेवा के नाम पर दिन भर भटकती रहती हो? अपने घर को ठीक से संभालना ही सच्ची समाज सेवा नहीं है? सच तो यह है कि औरत को हर हाल में मरना ही पड़ता है। चाहे मालकिन हो, चाहे कुछ और। जब मरना ही है तो अपनी मर्जी से अपनी शर्तों पर क्यों न मरा जाए."