मर गई कोयल / कुसुम भट्ट

Gadya Kosh से
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मेधा ने दीवार घड़ी देखी, अभी सात ही बजे थे, इस ठिठुरती ठण्ड में अलसुबह कौन हो सकता है? धप्-धप् हाथ मार रहा दरवाजे पर...? आवाज़ सुनकर मेधा अलसाई-सी उठकर पल भर सोचने लगी; फिर पाँवों में स्लीपर डाल घिसटते कदमों से खीझती हुई कुन्डी खोलने लगी। यह चपटी नाक वाला कांचा भी न इस क़दर ढीठ कि बेवक्त मूँह उठाकर आ जाता है। कितनी बार बोल चुकी मेधा कि दोपहर में आया कर कांचा... तभी न बताऊँगी तेरे लायक काम; पर कालोनी का चैकीदार जिसे उसने दयावश मुँह लगा रखा था। कभी-कभार मदद कर देती उसकी पुराने कपड़े देकर या घर का काम कराते हुए कुछ रूपये थमा देती। इतनी सुबह...! दरवाजे पर माँ थी। गुडहल-सी आँखें लिये चुपचाप अन्दर चली आई... मेधा हैरान!

"बेटे-बहू से फिर खटपट हुई?" मेधा माँ के लिए चाय लाई, बच्चे सो रहे थे। बर्फवारी के दो महीने जब स्कूल भी बन्द रहते हैं, माँ को इस ठण्ड में चैन कहाँ?

चाय लाकर वह माँ के हाथ में थमाती इससे पहले माँ सीधे बेडरूम में जाने लगी चुपचाप... "माँ! इधर ही बैठते हैं," मेधा हड़बड़ा गई, माँ कमरे की अस्त-व्यस्त हालत देख हमेशा कि तरह बड़बड़ाना शुरू कर देगी। "गाँव की लड़कियाँ, इस समय तक जंगल से घास के गठ्ठर ला चुकी होंगी, तू कितनी आलसी है मेधा... सात बजे तक बिस्तर से नहीं उठती।" मेधा को याद आता-भाइयों को नौ बजे तक भी सोता देख माँ कोमल स्वर में कहती, "सोने दो उन्हें... लड़के हैं... अपनी मर्जी के मालिक... जब मन होगा उठेंगे..."

लेकिन आज माँ ने कुछ नहीं कहा, पारा ठण्डा है माँ का-मेधा ने सोचा! चय को छुआ, गनीमत थी कि गरम थी हमेशा कि माँ की तरह "कितनी बार कहा कप में न दे मुझे चाय।"

माँ के स्वभाव के कारण मेधा माँ से जुड़ाव महसूस न कर सकी चाहते हुए भी। जब भी देखो मेधा में कुछ न कुछ खोट नज़र आते रहे। मेधा कि सोच, विचारधारा पर अपनी सोच, विचारधारा का पत्थर रखती रही बचपन से अब तक। अगर उसे घास ही काटना था, तो शहर में क्यों शादी की उसकी? जो कार्य मेधा और उसकी बहनों के लिए ज़रूरी थे, भाइयों के लिए वहीं काम तुच्छ होते।

मेधा को लगता-वह दड़बे के भीतर मुर्गी का चूजा है, जिसे बाहर निकलते ही हलाल कर दिया जाएगा या झपट लेगी बिल्ली या कोई और जानवर...! अलबत्ता पिता के सामने मेधा हमेशा सहज महसूस करती। पिता के कारण ही वह प्राइमरी टीचर बन सकी थी, जिसका कोई मूल्य माँ की दृष्टि में नहीं था। वह चाहती कि अपनी आमदनी से मेधा छोटे भाइयों की पढ़ाई पर ख़र्च करे; वे भाई जो किताब से बैर रखते और नशे की चीजों से प्यार करते।

माँ ने मेधा के प्रश्न का जवाब नहीं दिया; अलबत्ता चाय समाप्त कर उसे गहरी दृष्टि से देखा, "मेधा, तू इसी वक़्त मेरे साथ चल सकती है?"

अब सहज थी माँ।

मेधा असमंजस में पड़ गई-माँ को क्या हो गया। बच्चे घर में अकेले, पति दौरे पर।

"बल मेधा ही जा सकती है मेरे साथ..." माँ ने गहरी उसांस भरी।

"बल? किसने कहा माँ?" मेधा माँ को एकटक ताकने लगी। मेरे वास्ते माँ की संवेदना, वात्सल्य, कहाँ सूख जाता है। अपने ही मानस में विचारों का आलोड़न करने लगी।

"मैं थोड़े ही कह रही हूँ, श्रीधर और सेतु चाहते हैं..."

"लेकिन जाना कहाँ है माँ?"

माँ ने लम्बी साँस ली-"कोयल चली गई मेधा... अपने घर चली गई।" खिड़की से बाहर देखते हुए माँ ने अनन्त आकाश पर नज़र डाली-"जब उसे रहना ही नहीं था, तो मेरे भुला को" ... माँ ने आँसू भीतर सोख लिए तब खिड़की से गरदन घुमाई।

मेधा हतप्रभ! बड़ी देर में सहज हुई माँ को देख बल पड़ गए उसके ललाट पर। तो किसने कहा था मामा को कि उसके लिए लड़का न देखो... बड़ी हो गई लड़की, उसकी मनपसंद का लड़का मिल गया और क्या चाहिए... छोटी जाती का है... पर होगा तो नेकर ही। मेधा माँ का ध्यान उसके उद्दण्ड बेटों की ओर लगाना चाहती थी, जिन्हें माँ अपने कलेजे का टुकड़ा कहती।

मेधा ने गर्दन घुमाकर माँ की आँखों में देखना चाहा। वहाँ ज्वालामुखी का लावा पिघन रहा था। सच ही कहते हैं तेरे भाई कि मेधा दीदी में अक्ल नाम की चीज है ही नहीं। "ओई मूर्ख! भूसा भरा है तेरे दिमाग़ में। कोयल दुनिया से ही चली गई... कोयल मर गई... मेधा चीरकर ले गई मेरे भुला का कलेजा। कैसे जियेगा मेरा भुला... उसकी सबसे लाडली थी को...य...ल।"

मेधा को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसे नहीं हो सकता। एक साल पहले देखा था उस सांवली, ठिगनी, युवा होती लड़की को... जिसके आकर्षक सलोने चेहरे पर दो काली-कजरारी बड़ी-बड़ी बोलती आँखें थीं और आवाज़ सचमुच कोयल-सी मीठी। मामा ने कहा भी था कि-"इसका नामकरण तीन वर्ष में किया मैंने, पहले तो इसको हम सब तारा बुलाते थे, लेकिन बाद में लगा कि इतनी मीठी, सिर्फ़ कोयल का ही स्वर हो सकता है।"

मेहमानों का ख़्याल रखती, चिड़िया-सी चहक-चहक कर ऊपर नीचे-दौड़ती, उसकी पीठ पर लम्बी मोटी, काले बालों की चोटी लहराती। जब वह सुरीली आवाज़ में पूछती, " दीदी, आपकी चाय में मीठा कितना डालूँ या नहाने के वास्ते गरम पानी कर दूँ-तब उसकी आँखों को देखकर लगता इतनी सजल आँखें इस क़दर भाव प्रवण कि कवि इन पर रच दे महाकाव्य। कभी-दीदियों, लाल चावल के साथ चैसू बना लूँ आज... देश में सिलबट्टे पर पिसा चैसू कहाँ मिलता होगा। मेधा के साथ उसकी छोटी बहने मीनू और मीतू भी थीं। तीनों बहनों की तिगड़ी के साथ कोयल भी आ बैठती। तीनों बहनों का बृहद संवेदना से भरा मन और हँसी बंजर ज़मीन में फूल खिलाने जैसा उन्मुक्त वातावरण छा जाता जहाँ वे जातीं। शायद इसीलिए कोयल बता पाई थी अपने मन की बात। खोल पाई थी गाँठ-उनके बीच; और मेधा ने ही ज़्यादा उकसाया उसे उसके प्रेमी से विवाह करने के लिए। मामा तो कट्टर थे। गाँव में भी जातिवाद का ज़हर चरम सीमा पर था। फिर भी मामा अपनी इस सातवीं बेटी को सबसे ज़्यादा चाहते थे।

अशोक के विवाह पर गए थे वे सब माँ के साथ। उन दिनांे माँ सात भाई वीरा बहन जैसी थी। सात समुद्र पार से आई हो वर्षों बाद जैसे। माँ पर शुरू होती मामा कि दिनचर्या रात ग्यारह बजे तक समाप्त होती माँ पर ही। "दीदी, अब सो जाओ।" माँ के पाँव छूकर कहते, "हों भुला... हों मेरा भुला" ... माँ भी भावुक होकर मामा को ढेरों आशीष देती।

"खूब फूले फले मेरा भुला, तूने तो मुझे स्वर्ग का सुख दिया। बल... ऐसा भुला नसीब से मिलता है।"

भोर के उजास में अभी शुक्रतारा चमक रहा होता नील गगन पर। मामा, पुरसुकून की चित माँ के बिवाई फटे पाँवों में मस्तक रखते, "दीदी प्रणाम!" पावांे में चुभन का आभास होते ही माँ हड़बड़ा कर पाँव खींच लेती "कौन है रे...?"

मामा ज़ोर से कहते-"मैं हूँ दीदी... तेरा भुला..." माँ अलस कर बैठ जाती, "तो तू है ...भुला... पर इतनी सुबह उठ क्यों गया तू मला?" मामा के सिर पर हाथ फेरती माँ। "तुझे तो नींद ठीक से आई न दीदी... लगा न कि अपने घर में है तू उस जगह उस माटी में? जहाँ तूने जन्म लिया, पली बढ़ी...?" एक साँस में मामा कह गए सब।

माँ ने कमरे के चारों कोनों में नज़र दौड़ाई, खिड़की से बारह देखा-झपनीले पेड़ वैसे ही थे वर्षों बाद भी। बगीचा जस का तस, अखरोट का बूढ़ा पेड़ भी जीवित अब तक। माँ ने तृप्ति की साँस भरी। "हाँ मेरा भुला, वर्षों बाद इतनी मीठी नींद आई। लगा-माँ-बाबा सिरहाने खड़े हैं।" माँ के साथ मामा भी भावुक हो उठते औरा माँ-बाबा कि स्मृतियों को पोसते, तभी मामा को याद आता कि चूल्हे पर चाय की केतली चढ़ा कर आये थे। मामा आनन-फानन में सीढ़ियाँ उतरते। मामी टोकती, "कोयल के पिताजी! चाय सूख गई।" फिर कोयल उठतीं और सबके वास्ते चाय बना कर लाती। मामा कि लड़कियाँ एक बड़े हाल में ज़मीन पर बिस्तर बिछाकर देर तक लेटी रहतीं। रात भर उनके मरगिल्ले से बच्चे चें पेें करते उन्हें सोने न देते। पाँचों लड़कियाँ भरी जवानी में बुढ़ापे की ओर उन्मुख हो गई थीं। एक लड़की थी तीसरे नम्बर की जो ठीक-ठाक हालत में दिखी, लेकिन उसका मोटा मुस्टण्डा दारूबाज पति जिसके हाथ में पौवा ही रहता, वह झूमता रहता... वह साढू बिरादरी को सुनाते हुए गुनगुनाता, "पीता हूँ हाँ मैं पीता हूँ, अपनी ही पीता हूँ... अपनी ही खाता हूँ। मामा गर्व से कहते," अपना टैक्टर है जंवाई का, शहर में प्लाट भी लिया है, बल... कार लेने की सोच रहा है... बस्स एक ही ऐब है..."

दूसरी लड़कियाँ अपना परिचय देने में हिचकतीं, पीले रूग्ण चेहरे वाली लड़कियाँ ज़िन्दगी की चिथड़ी चादर को जाने किस धैर्य से टांके लगा रही थीं। मेधा को लगा कि इन लड़कियों को जिन्दा कहे कोई या मुर्दा किसे कहे। पल-पल की मौत कैसे देख पाती हैं ये। पता चल ही गया था कि दो लड़कियों को टीबी हो गई थी, बेरोजगार पति उस पर लत-शराब-बीड़ी-तमाखू-गुटखा-खैनी, हे प्रभु! क्या होगा इनका। दूर-दराज के गाँवों में ब्याही लड़कियाँ सूखे खेतों में दिर भर फ़सल उगाने की जुगत करतीं पर अन्त में भर पेट भी न मिलता अन्न।

मामा फ़ौज से रिटायर्ड हुए थे, ग्राम विकास की योजनायें आईं, तो मामा जुट गए आर्थिक संसाधन जुटाने में। मेहनत रंग लाई थी। पहले भी मामा कि तनख्वाह और उर्वरक ज़मीन में इतना तो हो जाता कि ठीकसे खा-पी सकंे।

विवाह की अगली सुबह बेटियों को विदा कर दिया गया। जितना बन पड़ा, मामा ने बेटियों को दिये तोहफे, साड़ियाँ, आटा, चावल, मिठाई, बच्चों के कपड़े थोड़े-बहुत नगद रूपये भी... पर इससे क्या होता... सिर्फ़ इतना ही कि लड़कियाँ रोते-रोते भी याचक की मुद्रा में कहतीं "बस्स पिताजी... बहुत दे दिया हमें" ... करूण स्वर में फूटती उनकी रूलाई दूर तक साथ देती... मोडऋ से मुड़-मुड़ पीछे देखतीं, उनका अनकहा शब्द... शब्द उस आँगन में गिरता जिसे सबके साथ मामा-मामी सुनते-भीतर कहीं खंरोच लगती... तभ उन्हें अपने गुदड़ी के लाल नज़र आते और वैभव अपना। वे गहरी साँस लेकर आसमान को देखते, लड़कियों का खोटा भाग्य। कोई क्या कर सकता है।

मेधा देखती-माँ अपने भुला को तनिक उदास न देख पाई थी! तुरन्त बोली, "तू क्यों दुःखी होता है भुला... तूने तो ठीक घर-वर देखकर ही पीले किए थे न बिटलों (लड़कियों) के हाथ। खेती बाड़ी थी, जंवाई भी कुछ न कुछ धन्धे में लगे ही थे... बाक़ी उसकी मर्जी" माँ ने भी आसमान को ताका। वहीं से ब्रह्मा भाग लिखते हैं बल...

"धरती पर तो पुनरावृत्ति होती है न...?" मेधा ने कहा तो अकबकाये मामा ने मेधा के ओजस्वी चेहरे पर देखा था और अप्रत्याशित उसकी आँखों में उठे प्रश्नों का सामना न कर पाये थे। उनकी गरदन झुक गई थी, बल्कि वह यह देख डर भी गए थे कि जिस प्रश्न को अपनी मरगिल्ली बीमार बेटियों की आँखों में खोजते रहे थे वह फ़न उठाकर यहाँ मिला था। ...

ममा, मेधा से बचने का प्रयास करने लगे थे, जब तक वह वहाँ रही थी। विवाह का तामझाम निपट चुका था। मामा, माँ को अपना स्वर्ग दिखाने ले गए थे-पीछे तीनों बहनें भी साथ मंे कोयल के घर गईं थीं। मामा गर्व से बता रहे थे, "इतना बड़ा घर तेरे भुला ने अपने दम पर बनाया दीदी। बाबा का घर तो उजड़ चुका था।"

माँ तपाक से बोली थी, " बाबा ने भी तो अपने ही दम पर हवेली बनाई थी भुला... तू भी जानता है कि बाबा राजमिस्त्री, बढ़ई, लकड़हारा, हलवाहा, किसान, मिठाईवाला, पत्थर तोड़ने वाला मजदूर, जानवरों का व्यापार करने वाला व्यापारी, कोल्हू में तेल पेरने वाला तेली, सभी कुछ तो थे। उनके जैसे गुण तो शायद ही पूरे हांे तुझमें।

मामा झेंप गए थे और हाँ हूँ करते आगे बकरी-भेड़ों के ओबरे में घुस गए-"पचास बकरियाँ हैं दीदी और दस भेडंें। इनमें दो बड़े लगोठे हैं, जिनकी क़ीमत बीस हज़ार है प्रति। लगोठा! ल्ेकिन कोई बात नहीं... मेहमानों के वास्ते इस एक की गर्दन कटनी ही है कल।"

आगे बड़े तबेले में दुधारू भैंसें... छानी के नीचे बँधी जरसी गाय, पन्द्रह लीटर दूध इसकी थनों में एक वक़्त उतरता है। आगे दड़बे हैं मुर्गियों के। सरकार लोन दे रही है, तो फायदा भी उठायेंगे हम गाँव वाले। इधन ये खरगोश, अब नीचे उतर चलो-दो सीढ़ियाँ, ये देखो बैलों की जोड़ियाँ, छप्पर के नीचे सफेद हंस जैसे बड़े-बड़े दो जोड़ी बैल जिन्हें दूसरे गाँव वाले भी अपने खेतों में हल जोतने ले जाते हैं और किराया देते हैं। "

माँ का सीना गर्व से फूल उठा था। "मेरा भुला, तूने तो बाबाजी का नाम रोशन कर दिया बल।" मामा अनसुना कर आगे बढ़ते रहे-"इधर अपनी देशी गाय है श्यामा और कजरी।" मामा को देख माँऽ-माँऽ काली गाय रंभाने लगी थी, तो मामा ने उसके शरीर पर हाथ फेरा। "जानती है दीदी! श्यामा अपनी कावेरी की वंशज है, जिसके एक थन को तू दूध दुहते समय मेरे मुँह में निचोड़ती थी।"

"सच्ची... भुला!" माँ औचक देखने लगी श्यामा को और उसके सिर पर हाथ फेरती हुई आँखों से आँसू छलक पडे़-"कावेरी तो हमारी माँ थी भुला, माँ तो चली मनुष्य चोले को छोड़, पर लौट आई थी कावेरी के रूप में। प्रकृति के खेल भी निराले होेते हैं भुला।" तीनों दीदी भुला कि बात सुनकर हैरान थीं कि आख़िर दोनों के बीच इस क़दर जुड़ाव। अपने भाई तो बहनों को राह का काँटा माने हुए थे।

दोनों का स्नेह दुलार जाने कब तक चलता, यदि मामी घाद न मारती तो कोयल! अपने पिताजी को घर भेज दे। लगोठा लेने के लिए दूर के लोग बैठे हैं। "मामा ने सुना तो चिल्लाकर बोले," कोयल की माँ! वह लगोठा देवी के नाम का है समझी! मेरी दीदी के वास्ते बलि दुर्गा... रान पट्टी चढ़ाऊँगा... प्रसाद बँटेगा गाँव भर में... समझी ना...? "माँ सातवें आसमान पर हो गई, लेकिन बड़प्पन दिखाने के लिए बोली थी," रहने दे भुला... बेच दे न लगोठा। इससे इस कोयल का इलाज़ करा... देख न... कितनी दुबली है बेचारी... कोई बीमारी है, खाये जा रही है भीतर ही भीतर। " कोयल लपक कर आगे बढ़ गई थी, शायद उसकी पीड़ा भी उतर आई थी, आँखों में मचलने लगी थी।

एकाएक मामा कि सारी खुशी, उल्लास काफूर हो गया था। वहीं पत्थर पर बैठ चुके मामा को माँ ने बहुत कुरेदा, अपनी क़सम दी, तो फूट पड़े थे मामा-"कैसे कहूँ दीदी, अपनी कोयल पर बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है। देवता ने बतलाया कि जिन्न्ा लगा है लड़की पर। अजीब हरकत करती है... कोली के लड़के के साथ जंगल में घूमती है। अब तो इन्टर पास भी कर लिया, फिर जाने कब दौड़ी चली जाती है उधर। दोनों साथ पढ़ते रहे बचपन से। आना-जाना भी था अपने बाप कमलू कोली के साथ हरामी का... लोग कहते हैं यही ले गया था उसे ज्येष्ठ की दोपहर डुमगाठ...वहीं चिपट गया होगा जिन्न्ा! वरना संस्कारों मंे पली लड़की ऐसी बेशर्म... बेहया होती! छीः..." माँ के दमकते चेहरे पर डर की छाया कूद पड़ी थी। रिरिया कर बोली थी-"पूजा नहीं, ... क... क्या...?"

मामा बोल उठे, "इस घर की खुशियों को ग्रहण लग चुका है दीदी! कितना रुपया तो इसी जिन्न्ा कि भेंट चढ़ गया। कभी खाडू़, कभी बकरा, कभी मुर्गा, थक चुका हूँ-देते... इधर लड़की रिरियाती है, विवाह करूँगी, तो सोमू कोली से ही... क्या कोई लड़की अपने समाज में ऐसी देखी थी कभी? डिमरी ब्राह्मण की बेटी कोली के संग? ... इच्छा होती है कि मरोड़ दूँ दोनों की गरदन... पर क्या जी पाऊँगा इसके बिना?" फूट-फूट कर रोते हुए मामा फिर बैठ गए थे।

मेधा के सामने स्वप्नीली आँखों वाले सोमू का चेहरा घूमने लगा जो उस पासपोर्ट साइज की फोटो में था, जिसे कोयल ने काँपते हाथों से एक अँधेरे कोने में मेधा कि हथेली में थमाया था, जिसे देखते ही मेधा किलक उठी थी-"वाह! लड़का तो एकदम हीरो-सा लगता है। वह टी॰वी॰ सीरियल के 'न आना इस देश लाडो' के कारण जैसा...-" मेधा ने कोयल का हाथ दबा दिया, तो अँधेरा कोना कोयल की आँखों की चमक और चेहरे की दीप्ति के कारण रोशन हो गया था। मोबाइल की रोशनी से कोयल का चेहरा पढ़ने लगी थी वह, "मेरी मदद करो मेधा दीदी! पापा को राजी करो मेधा दी... निशब्द कहे कोयल के मन की पीड़ा आँखों से ढुलक रही थी।" सोमू पी॰सी॰एस॰ की तैयारी कर रहा था मेधा दी। ..."मेरी खातिर फ़ौज में भरती हुआ। ..."

"ओऽ मेधा! तू तो अभी तक यहीं बैठी है। पता है ने पहली बस छूट गई तो..." माँ गुसलखाने से निकल झल्लाने लगी-"तू ज़िन्दगी भर आलसी रहेगी।"

मेध उठी, " नहीं जाऊँगी माँ।

माँ की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। "मगर क्यों? तू तो कोयल से बहुत स्नेह रखती थी न...? कोयल की मौत का अफ़सोस नहीं तुझे...?"

"जिन्दा रहकर भी क्या करती माँ... रोज़ मरती... हर पल... अच्छा हुआ... एक बार मर गई... " मेधा कि आँखों से दो मोटी बूंदें गिर उसके सीने में बिला गईं। ...

माँ उसे आँखें फाड़े देखे जा रही थी।