मलंगी / राजनारायण बोहरे
मैंने एक नज़र चारों ओर देखा, तो पाया कि वहाँ केवल बच्चे ही नहीं थे, बल्कि मोहल्ले-भर की औरतें भी जुट आई थी।
बीजुरी वाली जीजी द्रवित होती हुई कह रही थीं, "इस बेचारी ने जिंदगी-भर सबकी सेवा कि है, जाने कौन-सा पाप हो गया कि ऐसे कष्ट भोगना पड़ रहे है।"
तुनककर जमुना बोली थी, "पाप नहीं ंतो क्या था वह? छिनारपना तो सबसे बड़ा पाप है। इसने तो सारे जिहाज तोड़ दिए थे, कुछ दिनों से। अब उसी की फल भोग रही है।"
बरोदिया वाली, मुँगावली वाली और टकनेरी वाली काकी ने जमुना कि इस बात पर असहमति जताई थी और वे बीजुरी वाली जीजी की बात का समर्थन करने लगी थी। बच्चे भी चुप न थे, वे भी उसके गुण गाए जा रहे थे।
उसके, यानी कि मलंगी के!
मलंगी, यानी कि हमारे मोहल्ले की किसी एक की नही, सबकी पालतू कुतिया। धूसर रंग की, कद्दावर और भरपूर स्वस्थ इस कुतिया पर हम सबको नाज़ था।
मोहल्ले का हर बच्चा उसे सिर्फ़ अपनी कुतिया कहता था और इस मुद्दे पर परस्पर झगड़ बैठते थे। ऐसे ही एक बार मेरा पिक्कू से झगड़ा हो गया था। पिक्कू ने मुझे टोला मारा, तो मँझले भैया ने उसमें लठिया हँचाड़ दी थी। इधर हम उसके लिए लड़ रहे थे और मलंगी किसी मस्त मलंग की तरह बच्चों के साथ खेल रही थी। मलंगी हम बच्चों के संग पुलकती हुई खेलती थी। हम लोग मलंगी को रोटी का टुकड़ा दिखा के कभी दौड़ लगाने, कभी लंबी छलाँग लगाने के लिए उकसाते रहते थें।
मलंगी को हमने बहुत छोटी उम्र से इसी मोहल्ले में देखा है। मलंगी की माँ चम्पी भी हमारे मोहल्ले की प्यारी कुतिया थी, जिसके लिए हर रसोई में हर घर में खाना सुरक्षित रखा जाता था और यही हाल मलंगी का है। तब मलंगी बहुत छोटी थी कि उसकी माँ चम्पी एक दिन नगरपालिका वालों के परोसे गए ज़हर के गुलाबजामुन खा गई। शाम तक चीखती हुई देह त्याग गई और मलंगी अनाथ हो गई थी। हम सब लोगों के मन में अनायास ही मलंगी के लिए वात्सल्य उमड़ आया था। सब उसे ढूढ़ कर अपने घर बुलाने लगे। फिर तो उसे पता लगा तो सुबह से दोपहर तक वह बारी-बारी से हर घर में जाती और अपना खाद्य ग्रहण करती और जब पेट भर जाता, तो मस्जिद के मौलवी के दरवाजे पर छाँ-पछार लेट जाती।
मैं भेलसा रोड़ पर पहुँचा, तो जाने क्यों एक अजनबी कुत्ता मुझ पर भौंकने लगा। कुत्ते को हड़काने के लिए मैंने एक पत्थरिया उठाई और ज़ोर से मारी। फिर क्या था, कैंऊ-कैंऊ के स्वर में रोते उस कुत्ते ने जाने कैसी आवाजें निकालीं कि आनन-फानन में जाने कहाँ से घिर आए ढेर-सारे कुत्तों ने मुझे घेर लिया।
मैं घबरा उठा था। कई कुत्ते मेरी तरफ़ बढ़ रहे थे, खासकर टोला खानेवाला कुत्ता तो मुझ पर छलाँग ही लगाने को उद्यत था कि अचानक जाने कहाँ से मलंगी प्रकट हुई और उस कुत्ते पर चढ़ बैठी। बाक़ी कुत्ते एक बारगी सन्नाटे में रहकर टुकुर-टुकुर मलंगी को ताकने लगे थे। पर अगले ही पल मोर्चा बदल गया। उधर मलंगी ने कुत्तों के व्यूह को तोड़ते हुए जो दौड़ लगाई, तो यह जा और वह जा। वह उड़न-छू हो गई थी। उस दिन से मैं मलंगी का अहसानमंद हो गया था, मौका मिलने पर अपने हिस्से का दूध भी उसे पिला देता।
मलंगी का मामा 'टीपू' कद्दावर नस्ल का बड़ा फुर्तीला कुत्ता था। पर वह उन दिनों बूढ़ा हो चला था, सो खारे-कुआँ को लाँघ जाने की कला का प्रदर्षन उसने बंद कर दिया था। हम बच्चे इससे कुछ निराष से थे। क्योंकि हमारे मोहल्ले का खारा कुआँ दस फीट चौड़ा कुआँ था, जिसे एक ही छलाँग में लाँघ जाने का कौषल टीपू ने जाने कब प्राप्त कर लिया था। जब भी मोहल्ले के बाहर का कोई बच्चा आता, हम लोग टीपू को दौड़ाते हुए कुआँ तक लाते और लाँघ जाने को उकसाते। टीपू सहज रूप से कुआँ लाँघ जाता। यह हमारे लिए बड़े गर्व की बात थी। फिर एक दिन टीपू मर गया तो हमें लगा कि टीपू के साथ ही यह कला भी समाप्त हो जाएगी।
किसन और मुन्ना ने एक दिन यह कला मलंगी को सिखाना शुरू किया, तो सब बड़े खुष हुए थे। बाद में एक दिन मलंगी को भी यह कौषल प्राप्त हो गया, तो हम सब बच्चे फिर से गौरवान्वित हो उठे थे। अब हम फिर से दूसरे मोहल्लेवालों और बाहर के मेहमानों के सामने मलंगी का यह कौषल दिखाने लगे थे।
मलंगी धीरे-धीरे तगड़ी होती जा रही थी और उसी अनुपात में उसकी आवाज़ में क्रूरता बढ़ रही थी। वह दिन-भर यहाँ-वहाँ सोती हुई दिखती, पर रात को पूरी निष्ठा से जागकर मोहल्ले की चौकीदारी करती। वह भूल जाती थी कि हम लोग कितने निष्ठुर हैं, जो दिन में उस पर लाड़ दिखाते है और रात में बाहर निकाल देते है, चाहे झमाझम पानी हो चाहे कड़ाके की जाड़ा।
एक रात किसन के घर की बाहरी दीवार मेें कोई बदमाष सेंध लगाने के चक्कर में था कि मलंगी ने दबे पाँव आकर उसका हाथ उपने जबड़े में ले लिया था। पता नहीं कैसे वह उठाईगीरा अपना हाथ छुड़ाकर भागा, लेकिन मलंगी ने भौंक-भौंक कर पूरा मुहल्ला ज़रूर जगा दिया था। दिवार के पास पड़ी सब्बलिया, ज़मीन पर फैली खून की बूँदें और दीवार में बनाया गया छोटा-सा छेद मलंगी की चौकसी की दास्ताँ बयान कर रहा था। हम स ब फिर मलंगी के कृतज्ञ हुए थे।
सितंबर का महीना आया, तो जाने कहाँ-कहाँ से ठट्ठ के ठट्ठ कुत्ते हमारे मोहल्ले के चक्कर काटने लगे थे। वे सब मलंगी के इर्द-गिर्द लम्बी अपनी लम्बी जीभ लटकाते घिरे करते थे। हम सब बच्चे दहषत में थे, लेकिन मलंगी बड़ी निष्ंिचत और लापरवाह-सी दीखती थी, उलटे इतराती थी। खामख्वाह किसी भी कुत्ते पर खोंखिया कर चढ़ बैठती और देर तक भौंकती रहती। हमारे मोहल्ले के बुजुर्गों को इन दिनों मलंगी बड़ी दुष्मन-सी लगती थी। वे पाराषर मोहल्ला के कल्ला कुत्ता, रूसल्ले के नीचे के पंगा और पुराने बाज़ार के मोती कुत्ता से तो पहले से ही नाराज थे, जो कि रात-बिरात अकेले निकलते किसी भी यात्री को नोचने-खसोटने को उद्यत रहा करते थे। ऐसे बिगड़ैल कुत्तों को अपने मोहल्ले में भला कौन पसंद करता सो जिसका मौका लगता ऐसे कुत्ते को ठोंक ही देता उनके साथ कभी-कभी मलंगी में भी लठिया पड़ जाती थी।
फिर एकाएक सारे कुत्ते गायब हो गए। बीजुरी वाली जीजी ने प्रसन्न होते हुए सिरोंज वाली चाची को बताया था कि मलंगी अब गर्भवती है, जल्दी ही पाँच-छः पिल्लों को जन्म देगी।
यह सूचना हमारी मंडली के लिए बड़ी आल्हादकारी थी, हम सबको पाँच-छः खिलौने जो मिलने जा रहे थे। हम सबने अपने-अपने घरों में प्रसव के लिए सुरक्षित कोने तलाष कर लिये थे और वहाँ मलंगी को घुमा भी लाए थे। मोहल्ले की सारी औरतें और बच्चे व्यग्रता से मलंगी की प्रसव पीड़ा कि प्रतीक्षा कर रहे थे। हम सबने उसके संभावित प्रसूतिगृहों में रोटियाँ इकट्ठी करना शुरू कर दिया था। कहावत है कि प्रसव के तुरंत बाद कुतिया को भूख लगती है और ऐसे में वह अपना एकाध पिल्ला खा जाती है। हम नहीं चाहते थे कि मलंगी का एक भी पिल्ला कम हो, इसलिए मलंगी की प्रसवोत्तर भूख के लिए पर्याप्त खाना जुटाने के बाद हम निष्ंिचत थे।
प्रसव के लिए मलंगी ने बीजुरी वाली जीजी का घर चुना। छः पिल्लों को जन्म दिया उसने। बीजुरी वाली जीजी बड़ी खुष हुई और उन्होंने हम बच्चों को इस उपलक्ष्य में एक दावत दे डाली थी।
हम लोग सुबह-षाम मलंगी के पिल्लों को देखने ज़रूर जाते थे। नर्म, गुदगुदे और नन्हे-नन्हे वे पिल्ले हम सबको बड़े प्यारे लगाते थे। बीजुरी वाली जीजी ने बताया कि मलंगी उन बच्चों को दूध नहीं पिलाती थी, इससे बच्चों के बचने की गुंजाइष बहुत कम था। यही हुआ। रूई के फोहों से उन पिल्लों को बचा। बच जाते तो सभी अच्छे कुत्ते बनाते, क्योंकि हरेक पिल्ला बीसा था। यानी कि बीस नाखूनों के साथ जन्म लिया था, हरेक पिल्ले ने।
फिर कई सालों तक ऐसा ही हुआ, पिल्ले ऐसे ही जन्म लेते और ऐसे ही म जाते। हम लोगों को बहुत दुःख होता, बीजुरी वाली जीजी तो रोती भी थी। पर मलंगी इस सबसे बड़ी बेपरवाह थी। मस्जिदवाले मौलवीजी कहते थे-इसका तो नाम ही मलंगी है। मलंगी यानी कि मस्त मलंग-सी रहनेवाली मादा। सचमुच मस्त मलंग की ही तरह तो थी मलंगी। मोहल्ले के लोग उसे आवारा भी कहते थे, तो कोई सड़क छाप कुतिया भी कहने से न चूकते। पर उसको कोई फ़र्क़ न पड़ता, वह सबके प्रति वफादार थी।
मलंगी की वज़ह से हमारे कभी बाहर से कोई आवारा और खूँखार जानवर नहीं आ पाया। अपने नुकीले पंजे, तीखे दाँत और क्रूर आवाज़ से वह घुसपैठिए में दहषत पैदा कर देती थी। लेकिन उस बार एक ऐसा प्राणी हमारे मोहल्ले में घुस आया, जो ज़मीन पर नहीं, मकानों और पेड़ों पर छलाँग लगाता था। इस कारण उसको मलंगी का भी बिलकुल भय न था।
काले मुहँ का एक लंगूर जाने कहाँ से भटक कर हमारे मोहल्ले में आ धमका था और सबकी नाक में दम किए था। वह धड़ाधड़ छप्परों पर कूदता, हमारो कबेलू फोड़ता, छतों पर सूखते अनाज-दालों को बर्बाद करता और अचार तथा मुरब्बों के मर्तबान भी फोड़ डालता था। सब परेषान थे और उससे निपटने के नए-नए उपाय खोज रहे थे।
अभी बीसेक दिन पहले की बात है, कल्याण ने लंगूर को एक नीचे से छाप्पर पर बैठा देख मलंगी को भी उठाकर ऊपर बैठा दिया था और मलंगी को लंगूर पर छू कर दिया था। मलंगी लंगूर पर झपटी तो लंगूर यह जा और वह लंगूर तो लंगूर ही था, वह एक डाल पर चढ़ा और दूसरी से होकर एक बड़ी ऊँची छत पर जा पहुँचा। मलंगी बेचारी नीचे बैठी टाँपती रह गई थी और वह ऊपर बैठा दाँत दिखा रहा था।
फिर तो दो दिन तक ऐसा ही खेल चलता रहा। मलंगी नीचे बैठी रहती और वह ऊपर बैठा अपन अजीब-अजीब करतब करता रहता।
मोहल्लेवालों के साथ लंगूर का बर्ताव अब बड़ा उग्र हो गया था। अकेले-दुकेले निहत्थे आदमी को देख वह अब हमला भी करने लगा था। जो कुछ हाथ में मिलता, छीन लेता। कोई खाली हाथ होता, तो लंगूर जी-भर के नोचता-खसोटता और झट से ऊपर चढ़ जाता। कभी-कभी वह लोगों के आँगन में उतर आता और जो हाथ पड़ता, ले भागता।
एक दिन और अजूबा दिखा, लंगूर ऊपर छप्पर पर बैठा हुआ किसी के घर से उठाया गया रोटी गपक रहा था और नीचे बैठी मलंगी ऊपर मुहँ किए टुकुर-टुकुर उसे ताक रही थी। एकाएक लंगूर ने एक रोटी उठाई और मलंगी की ओर उछाल दी। एक-दो मिनट तक मलंगी कभी दायीं तो कभी बायीं आँख ऊँची करके रोटी को देखती रही, फिर उठी और सूँघ के मानो उसकी शुद्धता कि पड़ताल की, फिर बड़े प्यार से छोटे-छोटे टुकड़ों में स्वाद के साथ पूरी रोटी चबा गई। उस एक रोटी ने उन दो विजातीय प्राणियों के बीच मैत्री की शुरूआत कर दी।
अब लंगूर जो कुछ भी छीनता, बड़ी ईमानदारी से मलंगी को हिस्सा देता। अ बवह नीचे भी उतर आता और मलंगी के ऐन बगल में आकर बैठ जाता। उसके शरीर में से जुएँ बीनता। मलंगी अपनी लंबी निकाल लंगूर की पीठ चाटने लगती।
हम लोग बड़े बेबस और हैरान थे कि अब इसके विरूद्ध किसे भिड़ाएँ। इसने तो हमारा ही एक सदस्य तोड़कर अपने साथ मिला लिया। मोहल्ले के बुज़ुर्ग अब दिन-रात मलंगी को गरियाते रहते जो नोचने-खसोटनेवाले जंगली लंगूर से दोस्ती कर बैठी थी। हमारे घर-आँगन तक निर्द्वंद्व रूप् से घुस आनेवाली मलंगी हम सबको लंगूर के असर के कारण बदली-बदली नज़र आने लगी थी। हमारी गहरी आत्मीय रही मलंगी को ये क्या सूझा था कि वह बाहरी परिवेष के प्राणी को अपना मान बैठी थी।
मोहल्ले की औरतें मलंगी को बदचलन, धोखेबाज, आवारा, नकटी, छिनाल और न जाने क्या-क्या बदनाम उपाधियाँ दे रहीं थीं, जबकि मलंगी लंगूर के साथ बहुत मस्त थी। दोनों दौड़ते हुए किसी भी दिषा में चले जाते, फिर घड़ी-दो घड़ी बाद हाँफते-काँपते लौटते। उनकी आँखों में मादक चमक होती और हरकतों में भरी होतीं खूब-सी चुहलबाजियाँ। कभी वे दोनों छप्परों पर चढ़ जाते, तो एक मकान से दूसरे पर होते हुए तड़ज्ञतड़ कबेलू चटकाते फिरते। लंगूर तो भाग जाता पर मलंगी को ताड़ना मिलती। हम सबको मलंगी में भारी परिवर्तन दीखने लगा। लंगूर के साथ रहने के कारण अब उसमे बिना बात भौकने, हमला करने और ख़ूब लंबी दूरी के छप्परों पर छलाँग लगाने की प्रवृति आ गई थी।
आज सुबह की बात है। नगरपालिकावाले कुत्ता पकड़ने का पिंजरा लेकर हमारे मोहल्ले में घुसे। वे लंगूर को पकड़ने आए थे। हम बच्चे चिंतित थे कि लंगूर के चक्कर में मलंगी को भी न घेर लिया जाए। पिंजरे को एक बनाके रख दी, फिर मोहल्लेवालों से कहा था कि अपने-अपने छप्परों और छतों पर खड़े होकर लंगूर को हड़काओ। सब लोग लाठी लेकर अपने घरों के ऊपर चढ़ गए और लंगूर को बिदकाने लगे।
लंगूर ने यह नजारा देखा तो वह घबरा गया और हड़बड़ाकर एक और को भाग निकला। मलंगी उसके पीछे-पीछे थी। बदहवास होकर भागता लंगूर मोहल्ेले के दायीं ओर मौजूद तिलौआ बाग़ की ओर बढ़ने लगा था। इसी क्रम मेे उसने जमुना कि अटारी से मोहन की अटारी पर छलाँग लगाई, फिर नीम की डाली पकड़ी व उस पर चढ़कर उस ओर को लपक गया था। इधर उसका अनुकरण करती मलंगी भी उसी जोष में दौड़ती हुर्इ्र आई और जमुना कि अटारी से मोहन की अटारी के लिए उछल पड़ी थी। पर लंगूर, लंगूर ही होता है और कुत्ता, कुत्ता। बीस फीट की ऊँची जमुना कि अटारी से तीस फीट ऊँची मोहन की अटारी के छप्पर पर दस फीट की गली फाँदकर छलाँग लगाना मलंगी के लिए भला कहाँ संभव था! सो अपनी ही झोंक में मलंगी उछल तो गई, मगर छप्पर तक पहुँचने के बजाय वह मोहन की दीवार से टकरा बैठी और दीवार पर रिसकती हुई, नीचे पक्की गली में आ गिरी थी।
गिरते ही उसने आर्तनाद किया था, जिसे सुन अपने-अपने घरों में बैठे हमस ब बच्चे चौंक उठे थे और आनन-फानन में नीमतले जुट आए थे। बच्चे ही नहीं औरतें और पुरूष भी एकत्रित हो गए थे वहाँ।
तब से सब लोग मलंगी को ही घेर के बैठे है। मेरी तंद्रा टूटी तो मैंने मलंगी को तड़पते ही पाया।
हमारे मोहल्ले में ढेर-अस्पताल के एक कंपाउंडर वर्माजी भी रहते है। अचानक बीजुरी वाली जीजी को यह ख़्याल आया, तो उन्होंने सबको याद दिलाया। फिर क्या था? सात-आठ बच्चों के साथ पिक्कू के दादा वर्माजी को बुलाने चल दिए।
वर्माजी ने शायद घर पर ही पूरा किस्सा सुन लिया था, सो वे अपने साथ दवाइयों का बैग लिये चले आए।
पाँच मिनट तक वे मलंगी के शरीर पर हाथ फेरते रहे, फिर अपना बैग खोला और एक इंजेक्षन निकाल लिया। सिरिंज में एक पीला-सा द्रव भर के उन्होंने मलंगी के कूल्हे में इंजेक्षन की सूई ठूँस दी। सूई बाहर निकाल के रूई से पोंछकर वे बैग में रखते-रखते रूक गए और कुछ सोचते हुए से एक शीषी और निकाल ली। दूधिया रंग का वह पदार्थ दुबारा इंजेक्षन में भर के वर्माजी ने एक बार और मलंगी को इंजेक्ट किया, फिर बीजुरी वाली जीजी से वोले, "चिंता मत करो जीजी, मलंगी ठीक हो जाएगी। दरअसल ऊपर से गिरने की वज़ह से इसकी कुछ पसलियाँ टूट गई है। उनमें दर्द हो रहा होगा और गिरने की दहषत भी होगी, इस वज़ह से रो रही है। मैंने इंजेक्षन लगा दिया है, अब आराम से सोएगी ये कल तक। कल दर्द भी कम हो जाएगा और इसका डर भी ख़त्म हो जाएगा।"
हमने संतोष की साँस ली। उधर नगरपालिकावालों ने लंगूर को पकड़ लिया था। इधर अगले चौबीस घंटे मलंगी सोती ही रही। बीजुरी वाली जीजी उसे उठवाकर अपने घर ले गई थी, सो हम बच्चे दूसरे दिन सुबह वहीं इकट्ठे हुए। वहीं बैठे-बैठे दोपहर ऐसे ही बीत गई।
यकायक मलंगी ने अँगड़ाई ली, तो हम उत्सुक हो उसे निहारने लगे। उसने आँखें खोंली, सिर उठाया और हमें देखकर भू-भू ं-ं ं के प्रेमभरे स्वर में आलाप लिया। मह बच्चे प्रसन्न हो उठे थे।
मलंगी ने दो-चार दिन के बाद दुबारा चलना-फिरना शुरू किया तो वह बिलकुल बदली हुई-सी नज़र आई। अब वह बीचवाली मलंगी न थी बल्कि वही पुरानी मलंगी थी, जो हमारे मोहल्ले की चौकीदार थी, हर घर की सदस्य थी और हम बच्चों की प्यारी सखी थी। वह अपने अंदाज़ में घर-घर पहुँचकर अपना हिस्सा पाने लगी और पूर्ववत् रात को अपनी ड्यूटी निभाने लगी।
पता नहीं लंगूर उसकी यादों में शेष था या नहीं, पर हम सब एक दुःस्वप्न की तरह लंगूर को भूल चुके थे।