मलंग शामें, सुरंग रातें ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 जून 2013
आजकल का लोकप्रिय तथ्य है कि यह दौर जवानों का है और उनकी पसंद का ही माल हर क्षेत्र में बनाया और बेचा जा रहा है। भारत में युवा लोगों का प्रतिशत दुनिया में सबसे अधिक है। बाजार तंत्र युवा केंद्रित है और अनेक कंपनियां 40 वर्ष के अनुभवी के बदले 20 वर्ष के अनुभवहीन युवा को अवसर देती हैं। मनोरंजन जगत में हर दौर में दर्शक की औसत आयु पांच से बीस वर्ष तक ही रही है। अत: बाजार का सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् युवा ही है। दरअसल, इतिहास के हर दौर में युवा वर्ग ही विद्रोही और क्रांतिकारी रहा है, क्योंकि यह वय ही विरोध की है, परंतु भगत सिंह के युवा साथियों के देशप्रेम के दौर में गांधी युवा नहीं होते हुए भी सबसे अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं। सरदार पटेल ने राज्यों को देश का हिस्सा बनाने का महत्वपूर्ण कार्य अपनी जवानी में नहीं किया था। सारांश यह है कि युवा वय का जोश और ऊर्जा तथा सोचने की शैली किसी भी वय का व्यक्ति अपने हृदय में संजोए रख सकता है, जैसे कुछ लोग ताउम्र बचपन की मासूमियत को अपने हृदय में अक्षुण्ण रखने में सफल होते हैं। अत: वय के नाम पर किया गया साधारणीकरण सर्वकालीन सत्य नहीं है। आज बाजार ने अपने स्वार्थ के लिए इसका शोर मचाया हुआ है, क्योंकि उन्हें सेल्समैन चाहिए, जिसके माध्यम से वे बाजार को घर में प्रवेश दिला दें।
बहरहाल, इसी युवा मस्ती-मंत्र के आधे-अधूरे ज्ञान की सहायता से अनेक फिल्में गढ़ी जा रही हैं और उसी तर्ज पर मार्केटिंग भी हो रही है। इसका ताजा नमूना रणबीर कपूर-दीपिका अभिनीत युवा निर्देशक अयान मुखर्जी की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' प्रदर्शित हुई है, जिसके सारे गाने पहले ही लोकप्रिय हो चुके हैं। हम इन युवा केंद्रित फिल्मों से युवा मन को समझने का प्रयास करें तो शायद सही आकलन नहीं कर पाएंगे, क्योंकि यह युवा वय का फॉर्मूला स्वरूप है। फिल्म के नाम पर ही गौर करें कि क्या सचमुच सारे युवा दीवाने हैं, फिर इतना सारा काम कौन कर रहा है? बहरहाल, इस फॉर्मूला सोच का सारांश यह है कि युवा बदतमीज है, बेबाक है और प्रेम का अर्थ इसके लिए वासना है। वह अधीर है तथा गैरजिम्मेदार है। युवा निहायत ही बेतकल्लुफ, बेफिक्र और बेमुरव्वत इंसान है और 'रात गई बात गई' का मंत्र जपता है। उसे पहली नजर में प्यार होता है, परंतु आखिरी रील में इकरार करता है तथा बीच की रीलों में नकारता रहता है। अब 'ना ना करके प्यार तुम्हीं से कर बैठे' कोई चार दशक पुरानी फिल्म का गीत है।
यह सच है कि युवा अनौपचारिक हैं और सीधे 'सम' पर आते हैं। वे आलाप नहीं लेते, परंतु यह तो हर कालखंड में हुआ है। युवा की भाषा में गालियों का बहुत इस्तेमाल होता है, परंतु हर कालखंड में युवा गालियां देते रहे हैं। हमने तो गजल की तरह गालियां तरुन्नम में पढ़ी हैं। आज का युवा अनौपचारिक और व्यावहारिक है तथा मौज-मस्ती उसे पसंद है, परंतु वह सोमवार से शुक्रवार तक मेहनत भी करता है और ऐसा भावनाहीन भी नहीं है, जैसे उसके लोकप्रिय स्वरूप में प्रचारित किया जा रहा है। निर्मम प्रतिद्वंद्विता ने कुछ लोहा जरूर उसके व्यक्तित्व में भर दिया है, परंतु वह मोम की तरह पिघलता भी है। सारांश यह है कि तथाकथित युवा केंद्रित फिल्में इस वय के साथ न्याय नहीं कर रही हैं और उन्हें युवा मन का 'गाइड' नहीं माना जा सकता। विजय आनंद की 'गाइड' जरूर युवा रही है और चिरकालीन युवा फिल्म है।
युवा को यात्रा पसंद है, परंतु यात्रा हर युग के युवा को पसंद रही है। यहां तक कि हजारों साल पहले महानायक यूलिसिस भी यात्रा करता था और जेम्स जॉयस का सेल्समैन बवासीर पीडि़त यूलिसिस भी यात्रा करता है। यात्राएं एवं पलायन से कई सभ्यताओं का विकास हुआ है। अनगिनत लोग काम और स्वर्ण अवसर की खातिर बहुत भटके हैं। अमेरिका को तो संवारा ही अन्य देशों से आए हुए लोगों ने है। वातानुकूलित स्टूडियो का युवा सड़क के युवा से अलग होता है।
बहरहाल, इस फिल्म में गीत-संगीत कर्णप्रिय है और सक्षम सितारों ने काम भी अच्छा किया है। सितारा रणबीर कपूर के कंधे पर यह फिल्म कुछ सफलता पाएगी, परंतु यह फिल्म उनका नया शिखर नहीं है, जैसी 'बर्फी' थी या 'वेकअप सिड' थी या 'रॉकस्टार' थी। भूमिका के सीमित अवसरों के साथ उन्होंने न्याय किया है, परंतु कुछ दोहराव के कारण पौने तीन घंटे की फिल्म इस मायने में युवा विरोधी है कि यह अधीर आदमी दो घंटे ही बैठ पाता है। इन तथाकथित युवा फिल्मों में माता-पिता के पात्र अच्छे रचे जाते हैं। आज का युवा मलंग नहीं है, दरवेश नहीं और बाजार केंद्रित दुनिया सराय नहीं है, परंतु उनकी रातें जरूर सुरंगकी तरह हैं।