मलयज की मृत्यु पर / निर्मल वर्मा
विश्वास नहीं होता कि मलयज जहाँ हमारे बीच थे, वह जगह अब खाली है; वह विचित्र, अनूठी, अकेली जगह थी, जहाँ से उन्होंने दुनिया, जीवन की रचना को देखा था। हमें कभी इतनी फुरसत नहीं मिली, कि हम उस जगह तक पहुँच पाते - सिर्फ उनके लेखन -मात्र लेखन से हम थोड़ा बहुत अंदाजा लगा लेते थे कि मलयज वहाँ हैं, जहाँ से उनकी निगाह चीजों को चमका जाती है। वह अब उस तारे की तरह है, जो सहसा बुझ जाता है, किंतु उसकी रोशनी अनंत समय तक हमारे आसपास, हमारी दुनिया, हमारे सोच के औजारों पर चमकती रहती है... वह एक दुबले-पतले, लाइम-लाइट से घबरानेवाले, हमेशा पिछली पंक्ति में बैठनेवाले व्यक्ति थे, एक ऐसे लेखक जो अपने बारे में कुछ नहीं कहते थे, इसलिए हम भी उनके बारे में चुप रहते थे। लेकिन जब भी उनका कुछ लिखा हुआ आँखों के सामने पड़ जाता, कोई सोचती हुई-सी कविता, कोई कविता को छूती हुई सोच - किसी मित्र को लिखा हुआ पत्र - तो हम चौंक से जाते, अचानक याद आता, यह तो मलयज हैं, इतना पारदर्शी और पवित्र गद्य, इतनी महीन सोच, रचना के प्रति इतना चौकन्ना, चौतरफा लगाव-भला इस तरह का बींधता, भेदता, चमकीला, तहों को छीलता चिंतन और किसका हो सकता है?
विश्वास नहीं होता, कि अब हम चौंकेंगे नहीं, स्तब्ध नहीं होंगे। यह सोचना असंभव लगता है कि छोटे-छोटे अंतरालों के बीच अचानक प्रगट होनेवाले मलयज अब एक कभी न खत्म होनेवाले अंतराल में चुप रहेंगे... चुप वह अक्सर रहते थे; सिर्फ लिखने में उनका स्वर सुनाई देता था, एक महीन और मर्मज्ञ आवाज; वह उन कम, बहुत कम लेखकों में थे, जिनकी रचनाएँ पढ़ते हुए मुझे उनकी आवाज सुनाई देती थी - तीखी और तल्ख आवाज नहीं - बल्कि एक अजीब शांत संयम में सधी हुई, संयम जो बाँध की तरह अपने नीचे न जाने कितनी उत्तेजना, कितना उन्मेष, कितना पैशन भींचे रहता है, ठंडा और तटस्थ संयम नहीं, बल्कि विचारों की गड़गड़ाहट के बीच एक बिजली की तरह कौंधता हुआ, आसपास के अँधेरे, अभेद्य कानों को आलोकित करता हुआ - एक असह्य तनाव में अंदर उठता हुआ, खुद अपने को रोकता, नियंत्रित करता हुआ। इसका सबसे सजीव और सटीक उदाहरण उनका अंतिम लेख है - मुक्तिबोध पर। छोटी, महत्वपूर्ण बातें, जिन्हें हम लेखक का ऑब्सेशन मान कर टाल जाते हैं, नजरअंदाज कर जाते हैं, वही मलयज की निगाह में एक अभूतपूर्व रहस्य, एक अप्रत्याशित सत्य उजागर करती हैं। वह हमें घसीट कर ऐसे कोने में ले जाते हैं, जहाँ से हमने किसी रचना को पहले नहीं देखा था। मलयज की आधुनिकता उनकी निगाह में बसती थी, मांसल और सजीव और साफ जिसके रहते वह आज की रचना को निरायास पिछली सब कृतियों से जोड़ लेते थे। वह रचना के साथ-साथ चुपचाप उल्टे पाँव उस अँधेरी माँद में चले जाते थे, जहाँ वह सबकी आँखों से छिप कर जन्म लेती है।
खून और मांस और मिट्टी में लिथड़ी हुई; इसीलिए उनके यहाँ परंपरा बीते हुए समय को उघाड़ना नहीं, उस परिवेश को खोलना है, जहाँ आज और बीता हुआ कल एक साथ बसते हैं। इतिहास उनके यहाँ अमूर्त अवधारणा में नहीं, ठोस, स्पर्शवान, स्पंदित होते परिवेश में साँस लेता है, एक मांसल परिदृश्य में चमकता है। जरा मलयज के साथ चलिए, जहाँ-जहाँ वह रामचंद्र शुक्ल के पदचिह्नों पर चलते हुए उनके परिवेश में गए थे, धूल में, धरती में, कस्बे की धुँधलाती बस्तियों की तरफ... जहाँ हम एक तरफ शुक्ल जी की ओर जा रहे हैं, वहाँ दूसरी तरफ मलयज की तरफ लौट रहे हैं - उनके अंतर्मन की तरफ - वह एक कवि की दोतरफा यात्रा है, जहाँ वह आलोचक बनता है, एक आलोचक का अंतर्मंथन है, जहाँ विवेक-बुद्धि काव्यात्मक सत्य की उड़ान पर अपने पँख तौलती है। मुझे याद नहीं आता कि हमारे समय में किसी लेखक में कविता और आलोचना इतने निरायास, सहज ढंग से समन्वित होती थी, जितनी मलयज में। वह 'कवि-आलोचक' नहीं थे; वह सिर्फ एक प्रगल्भ, सजग लेखक थे जिनमें कविता और आलोचना अलग-अलग होते हुए भी धानुष-बाण की तरह जुड़े रहते थे, जिसमें जब कभी उनकी निगाह रचना के केंद्र-बिंदु पर निशाना बाँधाती है, तो असह्य तनाव में तना हुआ तीर लक्ष्य पर बिंधा हुआ काँपता-सा दिखाई देता है - तनाव और सफाई और शांत-संयम में मड़ा हुआ - टॉमस मॉन जिसे 'प्रिसाइज पैशन' कहते थे। मलयज सच्चे अर्थों में 'प्रिसाइज पैशन' के लेखक थे। इसलिए वह सही अर्थों में आधुनिक थे, यदि आज इस शब्द का कोई मतलब रह गया है, तो वह मलयज के लेखन में अनुप्राणित होता है।
मुझे कोई संदेह नहीं, कि यदि वह कुछ और वर्ष जीवित रहते, तो हम सबके लिए उनका आलोचनात्मक-चिंतन एक सबक होता, एक मॉडल और आदर्श कि कैसे एक हिंदी लेखक अपनी सृजन-यात्रा में आधुनिक दबावों को जीता है, भोगता है, समोता है। वह उतने ही सहज रूप से आधुनिक थे, जितना हम हवा में साँस लेते हैं - न उनमें कोई दिखावा था, न शहादत का भाव। मलयज की आधुनिकता उनके औजारों में निहित थी, जिनसे वह कविता रचते थे और रचना को तौलते थे। उनकी एकमात्र आलोचना-पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' एक अभूतपूर्व उदाहरण है, कि बिना किसी पूर्व निर्धारित दर्शन या सिद्धांत का सहारा लिए महज अपनी प्रखर विवेक शक्ति, सुरुचि संपन्नता और साहित्य के प्रति असीम जिम्मेदारी और प्रेम (हाँ, प्रेम, जो प्रतिबद्धता से बहुत अलग है) के आधार पर किसी रचना के मूल मर्म तक पहुँचा जा सकता है - और इस पहुँच के लिए यदि उन्हें चिंतन के उन औजारों का भी प्रयोग करना पड़े, जो सहज रूप से एक शिक्षित व्यक्ति को पश्चिम से मिलते हैं, तो वह उन्हें 'अछूत' मान कर अस्वीकार नहीं करते थे; किंतु उनकी आधुनिकता इन पश्चिमी औजारों में निहित नहीं थी, बल्कि जिस अपूर्व दक्षता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने इन औजारों को अपनी व्यक्तिगत, आत्मीय संवेदना और समझदारी में तपा कर पिघलाया था और उसे अपने निजी प्रयोग के औजारों में गढ़ा था, उनकी आधुनिकता उनकी इस मौलिक कल्पनाशीलता में निहित थी।
मलयज 'भारतीय लेखक' नहीं थे, वह एक लेखक थे, जो भारतीय परिवेश में रहते थे, वह 'आधुनिक लेखक' भी नहीं थे, वह एक ऐसे लेखक थे जो आधुनिक समय में जीते थे; यही कारण था कि वह न आधुनिकता से ज्यादा आक्रांत थे, न भारतीयता से ज्यादा सम्मोहित। वह रचना के अलावा किसी बैसाखी को नहीं स्वीकारते थे और यह रास्ता लंबा और दुर्गम था। अन्य लेखक शॉटकट ढूँढ़ते हैं; मलयज ने अपने इर्द-गिर्द उन सब रास्तों को बंद कर दिया, जिन्हें शॉटकट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था। किंतु जिस रास्ते को उन्होंने चुना, उसे भी वह कहाँ पार कर सके? लगता है, वह कहीं रास्ता पार करते हुए हमारे पास आ रहे थे - और बीच सड़क पर ही कोई दुर्घटना हो गई और हम अब भी इस तरफ खड़े उनका इंतजार कर रहे हैं। शायद यही कारण है कि रह-रह कर पछतावे और आक्रोश से भरा एक अजीब-सा संदेह मन को कोंचता है कि उनका इस तरह जाना जरूरी नहीं था। वह बच सकते थे और हमारे बीच हो सकते थे यदि - डॉक्टर ठीक से उनका परीक्षण कर पाते, यदि समय से उन्हें दवा दी जा सकती, यदि तत्काल वह अस्पताल पहुँच पाते; यदि, यदि, यदि... भारत की भयावह स्थिति में पता नहीं कितने 'यदियों' के गड्ढे बिछे हैं, जहाँ लोग लड़खड़ा कर गिर पड़ते हैं; शायद यही कारण है मलयज की मृत्यु मुझे एकदम बेमानी, अर्थहीन, एब्सर्ड जान पड़ती है।
उनकी मृत्यु में अंत की अनिवार्यता नहीं, दुर्घटना की दहशत महसूस होती है। कुछ लेखकों की मृत्यु के बारे में सुन कर हम अपने भीतर यह ढाँढ़स बाँध लेते हैं, कि उन्होंने जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखना था, वह उनके पीछे था। उनकी मृत्यु एक लेखक से ज्यादा एक जाने-पहचाने ख्यातिसंपन्न व्यक्ति की मृत्यु जान पड़ती है - और शायद यह सच भी है। किंतु मलयज के साथ यह सच नहीं था। उन्होंने एक कठिन, मेहनत-भरी, संघर्षमय जिंदगी गुजारी थी; वह जिंदगी एक तरह की तैयारी थी - उस सबको लिखने की तैयारी - जिसकी बाट हम सब इतनी आशा और उत्सुकता से जोह रहे थे। शायद ही उनकी कोई ऐसी टिप्पणी, लेख, कविता - यहाँ तक कि उनके पत्र थे, जिन्हें मैं ढूँढ़-ढूँढ़ कर नहीं पढ़ता था और पढ़ते समय हमेशा कुछ अप्रत्याशित-सा अनुभव होता, पिछले अनुभवों से बिलकुल भिन्न; मलयज उन दुर्लभ लेखकों में थे, जिनके लेखक के बारे में कुछ भी 'प्रिडिक्ट' नहीं किया जा सकता था - इसलिए उनको पढ़ने का कौतूहल और उत्तेजना कभी मंद नहीं पड़ती थी।
आनेवाले वर्षों में पता नहीं कितने लेखकों को अकादमी पुरस्कार मिलेंगे, शिखर पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार - लेकिन कुछ लेखक होते हैं जिनका अमरत्व और जिनकी याद पुरस्कारों में नहीं - उस एक-दो इंच जमीन से जुड़ी होती है, जिसे उन्होंने अपने लेखन से आगे बढ़ाया है, पुरानी सीमाओं को लाँघ कर अजानी धरती पर जाने का जोखिम उठाया है। आनेवाले वर्षों में हम जब कभी रामचंद्र शुक्ल, निराला, अज्ञेय या शमशेर के बारे में सोचेंगे, तो हमारे चिंतन के बीच मलयज मौजूद रहेंगे; मलयज ने इन लेखकों के कृतित्व पर जो गहरा प्रकाश डाला था, वह आज स्वयं मलयज की स्मृति के साथ जुड़ गया है। हमारी सोच अनिवार्यत: मलयज के प्रति कृतज्ञता से जुड़ी होगी क्योंकि हर आनेवाली पीढ़ी को आधुनिक साहित्य के मर्म को समझने के लिए जाने-अनजाने जमीन के उस टुकड़े पर चलना होगा, जिसे मलयज ने अपने मुखर चिंतन और अपूर्व निष्ठा से तैयार किया था। यह क्या कम पुरस्कार है, मलयज के लिए न सही, हमारे लिए, हम सबके लिए?