मल्टीप्लेक्स साम्राज्य में 'कहानी' और 'तोमर' / जयप्रकाश चौकसे

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मल्टीप्लेक्स साम्राज्य में 'कहानी' और 'तोमर'
प्रकाशन तिथि : 26 मार्च 2013


महाराष्ट्र के सिनेमाघरों के संगठन ने सरकार से प्रार्थना की है कि मुंबई जैसे महानगर में जहां लाखों लोग कुछ समय के लिए आते हैं, आधी रात के बाद फिल्म शो की इजाजत दी जाए। उत्तर भारत में कुछ स्थानों पर गुरुवार की आधी रात से ही अगले दिन प्रदर्शित होने वाली फिल्म के शो शुरू हो जाते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में सितारा जडि़त फिल्मों के शो प्रात: 6 बजे शुरू हो जाते हैं। सरकार की दुविधा यह है कि आधी रात को बार बंद होने का नियम है और रात दस बजे के बाद लाउड स्पीकर का प्रयोग प्रतिबंधित है। इन हालात में आधी रात के बाद फिल्म प्रदर्शन की आज्ञा कैसे दी जा सकती है। महानगरों की जीवन शैली अजीब है, वहां रात शुरू होती है आधी रात को। न्यून नीली-सी रोशनियों की बांहों में शहर मचलता रहता है। गश्त लगाने वाली पुलिस आधी रात के बाद सड़क पर घूमते हुए लोगों से सवाल पूछती है। यह संभावित अपराध को रोकने के लिए जरूरी है। अब इस तरह के शो की इजाजत मिलने पर आदमी यह कह सकता है कि वह फिल्म देखकर आ रहा है या फिल्म देखने जा रहा है। आज के युवा की इच्छा से प्रेरित एक विज्ञापन फिल्म में प्रियंका चोपड़ा कहती हैं कि रात के कारण आनंद में व्यवधान नहीं लगाया जा सकता। अत: ऐसे अनेक सुविधा-संपन्न लोग हैं, जिनके लिए पूरा जीवन ही बिना किसी रुकावट के आनंद है और उनकी सतत मनोरंजन पाने की इच्छा है। दूसरी ओर महानगरों में जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं, अत: मल्टीप्लैक्स बनाने वाला चाहता है कि उसका व्यवसाय दिन-रात उनके लिए मुनाफा कमा सके।

महानगरों में दड़बेनुमा घरों में रहने वाले अनेक लोग प्राइवेसी के लिए तरसते हैं और इस समस्या से प्रेरित बासु चटर्जी ने अमोल पालेकर अभिनीत फिल्म बनाई थी। अत: सारी रात चलने वाले सिनेमाघर उन लोगों की मदद कर सकते हैं, जो कुछ क्षण प्राइवेसी में बिताना चाहते हैं। गर्मी के मौसम में अपने दड़बे में दुखी व्यक्ति चंद रुपए खर्च करके वातानुकूलित सिनेमाघर में चैन की सांस ले सकता है। एक टैक्स फ्री फिल्म कम दाम के टिकट पर दशकों से चल रही है और प्राय: युवा प्रेमी उसे देखने जाते हैं। देश में जितनी अधिक समस्याएं हैं, उतनी अधिक मनोरंजन और सनसनी के लिए भूख बढ़ती जाती है। शराब, शबाब और मनोरंजन व्यवसाय पर आर्थिक मंदी का असर कम पड़ता है। टेलीविजन पर २४ घंटे चलने वाले कार्यक्रमों के बावजूद यह भूख कायम है। संभवत: कार्यक्रमों के फूहड़ और अतार्किक होने के कारण भूख कायम है।

आर्थिक उदारवाद से जन्मा मल्टीप्लैक्स फलता-फूलता जा रहा है और मात्र कुछ वर्षों में ही उनकी स्क्रीन संख्या दो हजार पार कर गई है। अनुमान है कि कुछ ही वर्षों में उनकी संख्या तीन हजार हो जाएगी। कुछ प्रांतों में मल्टीप्लैक्स के कारण एकल सिनेमाघर समाप्त हो गए हैं, जैसे पंजाब का मनोरंजन व्यवसाय पूरी तरह मल्टीप्लैक्स आधारित है। अनेक प्रांतों में एकल सिनेमाघरों ने अपने यहां दर्शक के लिए सुविधाएं बढ़ा दीं और आज भी मध्यम वर्ग तथा गरीब वर्ग एकल सिनेमा में वाजिब धन देकर फिल्में देखता है। उद्योग और सरकारों को एकल सिनेमाघरों को अधिक सहायता देना चाहिए ताकि अवाम फिल्में देख सके।

मल्टीप्लैक्स संस्थानों में कुछ ही वर्षों में एकाधिकार बन जाएगा या उनका संगठन किसी एक संस्था को अधिकार देगा कि वह निर्माता और वितरक से ध्ंाधे की शर्तें तय करे। मल्टीप्लैक्स में सुपर सफल सितारों की फिल्मों को मुनाफा बराबर बांटने की शर्त पर दिखाया जाएगा। परंतु सिताराहीन फिल्मों को केवल 30 प्रतिशत कमाई देने की शर्त पर दिखाया जाएगा। इस तरह की व्यवसाय नीति सार्थक फिल्मों की राह में रुकावट बन जाएगी। आप कल्पना कर सकते हैं कि 'पानसिंह तोमर', 'विकी डोनर', 'शंघाई' और 'कहानी' जैसी फिल्मों को टिकट खिड़की पर आए धन का मात्र तीस प्रतिशत मिलेगा और 'राउडी राठौर', 'सिंघम' तथा 'दबंग' को सम्मानजनक शेयर मिलेगा तो निर्माता किस तरह की फिल्म बनाना पसंद करेगा। आज अनेक सिताराविहीन फिल्में तैयार हैं, परंतु उनका प्रदर्शन नहीं हो पा रहा है। अब क्या पता उनमें भी कोई 'कहानी' हो, कोई 'तोमर' हो, कोई 'डोनर' हो।

दरअसल आर्थिक उदारवाद से जन्मे मल्टीप्लैक्स ही नहीं, वरन विकास के मॉडल में भी यही दोष है कि हर क्षेत्र में गुणवत्ता का विनाश हो रहा है। अति प्रचारित 'विकसित' प्रांतों में किसानों की आत्महत्या की खबरें हैं, परंतु विकास के नशे में गाफिल मीडिया इसे महत्व नहीं देता। कुपोषण से होने वाली मृत्यु द भी विगत वर्षों में बढ़ गई है। विकास ध्वज लगे चुनावी रथों के पहियों के नीचे क्या कुछ कुचला गया है, इसे अनदेखा किया जा रहा है। इसी तरह प्राइवेट शिक्षा संस्थान के डंके पीटे जा रहे हैं, जबकि राजीव गांधी द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में नवोदय स्कूलों के परिणाम बेहतर हैं और इसी परिणाम से प्रेरित मंत्री कपिल सिब्बल ने छह हजार नवोदय स्कूलों के लिए बजट की मांग रखी है। सारांश यह कि गुणवत्ता की उपेक्षा सभी क्षेत्रों में की जा रही है और जिस मल्टीप्लैक्स को उच्च श्रेणी के प्रदर्शन और सुविधाओं के लिए सराहा जा रहा है, वही सार्थक फिल्मों को रोकने जा रहा है और भविष्य में 'कहानी' और 'तोमर' की संभावना ही निरस्त कर देगा।