मल्लिका शेरावत पर विवाद / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 मई 2013
मल्लिका शेरावत को प्रारंभिक सफलता मिले एक दशक हो चुका है और वे जब उद्योग में आई थीं, तब सत्रह की नहीं थीं। जैकी चेन के साथ छोटी-सी भूमिका उन्हें कान ले गई थी और अपने प्रचार विभाग द्वारा वह न केवल हर वर्ष वहां निमंत्रित हैं वरन हॉलीवुड की राजधानी लॉस एंजिल्स की मानद नागरिकता भी उन्हें प्राप्त है। उनको उपलब्ध धन के स्रोत पर परदा पड़ा है, बदन के मामले में भले ही वे कुछ बेपरदा रही हैं। उनका जीवन लीक से हटकर है। वह तलाकशुदा मां होने के बाद फिल्मों में आई हैं और शायद खाप पंचायतों के लिए जानी जाने वाली हरियाणा की जानी-पहचानी आधुनिका हैं। आज उनका संक्षिप्त अभिनय कॅरियर समाप्त जैसा है, फिर भी इस समय कुछ अंग्रेजी भाषा के संपादकीय पृष्ठ की चाय की प्याली में तूफान की तरह छाई हुई हैं।
उन्होंने कान में बयान दिया कि भारत महिलाओं के विषय में रूढि़वादी और दकियानूसी है तथा स्थिति नैराश्य से भरी है। इस बयान पर प्रियंका चोपड़ा भड़क गई हैं और राखी सावंत ने तो उन्हें नग्नता के द्वीप में बसने की सलाह कुछ ऐसे अंदाज में दी है, मानो स्वयं बुर्कानशीं रही हैं। शेरावत का विरोध कुछ लोग इस बात पर कर रहे हैं कि अपने देश की कमतरी पर विदेश में बयान नहीं देना चाहिए। इन्हीं लोगों ने महान गुणवत्ता वाली 'स्लमडॉग मिलियनेयर' में भारत की झोपड़पट्टी के प्रदर्शन को भी अशोभनीय माना था, जैसे फिल्म के बनने से दुनिया को एशिया की विशालतम झोपड़पट्टी धारावी के बारे में मालूम पड़ा। टेक्नोलॉजी के कारण आज किसी भी देश में कुछ भी गोपनीय नहीं रहा, यहां तक कि अवचेतन में बैठी जहालत भी उजागर हो चुकी है। हमारी गरीबी, अशिक्षा इत्यादि के सारे आंकड़े पूरी दुनिया को मालूम हैं। अत: विदेश में जहालत छुपाए रखने का आरोप निरर्थक है। हमारे निर्भया या दामिनी जैसे जघन्य कार्य से उत्तर-ध्रुव में बसा व्यक्ति भी अनभिज्ञ नहीं है।
दरअसल, शेरावत से चूक यह हुई है कि भारत एक देश नहीं है, इसमें अनेक देश बसे हैं और अनेक गुजश्ता सदियां वर्तमान के क्षण में मौजूद रहती हैं। अत: प्रियंका चोपड़ा जिस भारत में रहती हैं, वह रूढि़वादी और दकियानूसी नहीं है और प्रतिदिन अनेक क्षेत्रों में महिलाएं भेदभाव का शिकार हैं, उस भारत में भी प्रियंका चोपड़ा नहीं रहतीं। यहां तक कि प्रियंका और राखी सावंत भी एक ही भारत में नहीं रहतीं। रूढि़वाद और दकियानूसी के शिकंजे में तड़पता भारत गूगल में भी नहीं दिखाई देगा, क्योंकि वह जहालत की गुमशुदा कंदराओं में बसा है और नेताओं के लिए अदृश्य दुनिया है। यह बात अलग है कि ये कंदराएं देश के अवचेतन में सदियों से विद्यमान हैं। हमारा इस हकीकत से इनकार उतना ही सतही है, जितना हमारा आधुनिकता से इकरार। हम सभी जानते हैं कि हमारी रूढि़वादिता और जहालत की जड़ें कहां हैं, परंतु उसे नकारते रहने की जिद ऐसी है जैसे सरेआम कत्ल व्यक्ति के पोस्टमार्टम को नकारा जाए। सांस्कृतिक पोस्टमार्टम से हमें परहेज है।
मल्लिका शेरावत ने स्वयं को आजाद कर लिया है और इसके लिए वह जद्दोजहद से गुजरी होंगी। दरअसल, मध्यम वर्ग की कस्बाई औरत जब प्रसाधन के तमाम बुर्जुआ साधनों को नकार करके अपने संपूर्ण स्त्रीत्व के साथ उजागर होती है तो श्रेष्ठि वर्ग के शासकों के पैरों के नीचे से जमीन निकल जाती है। वह कितनी कमजोर अभिनेत्री है और उसकी शोशेबाजी कितनी खोखली है तथा जीवन-मूल्य संदिग्ध हैं - इन सब बातों से उसके स्वतंत्र हो जाने के साहस को किसी आवरण से दबाया नहीं जा सकता। हम मनुष्यों को ब्रांड की तरह नहीं देख सकते या उसके व्यक्तित्व पर किसी लेबल को चस्पा करके हम स्वयं को गरिमा मंडित कर लेते हैं। झोपड़पट्टी समान जगह से आई अनपढ़ राखी सावंत ने भी स्वयं को सफल बना ही दिया और वह भी श्रेष्ठि समाज के कांच के मकान पर पत्थर से आकर गिरी है। ये महिलाएं भले ही किसी आदर्श से संचालित नहीं हैं, परंतु पुरुषप्रधान दकियानूसी समाज की दुखती रग बन जाती हैं।
एक पक्ष शेरावत के अपने विरोध को इस आवरण में छुपाना चाहता है कि दुनिया के सभी देशों में बलात्कार होते हैं, लिंग-भेद के आधार पर भेदभाव है। महिलाओं की इस दशा के अंतरराष्ट्रीय होने से भारत में उसके साथ सतत हो रहे अन्याय के तथ्य का लोप नहीं हो जाता या मात्र प्रचारित तौर पर सनसनी पसंद करने वाली शेरावत के कहने से भी इस परम सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता।
हम एक देश के रूप में कब वयस्क होंगे और सच का सामना करने लायक होंगे। निरंतर बचपना, टुच्चापन और सांस्कृतिक अहंकार के प्रदर्शन से हकीकत बदल तो नहीं सकती।