मसला हुआ फूल / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा
1
नाम था उसका यूरा। वह छह वर्ष का हो चुका था और उसके जीवन का सातवाँ साल चल रहा था। यह दुनिया उसके लिए बेहद जीवंत और आकर्षक थी। इस जगत के बारे में वह बहुत कम जानता था। हाँ, दिन के नीले आकाश और उसमें चुपचाप तैरते सफ़ेद, रुपहले-से और सुनहरे-से बादलों के बारे में वह काफ़ी जानता था। कभी घास पर और कभी छत पर लेटे-लेटे वह अक्सर उन्हें देखा करता था। लेकिन तारों के बारे में वह बहुत कम जानता था क्योंकि जल्दी सो जाता था। बस, एक हरे-से चमकीले तारे के बारे में ही वह ठीक से जानता था, जो उसके सोने से पहले ही दिखाई देने लगता था। वह तारा सबसे पहले दिखाई देने लगता है और शायद पूरे आकाश में वह अकेला ऐसा तारा है, जो इतना बड़ा दिखाई देता है।
उस बच्चे को सबसे अधिक जानकारी थी अपनी धरती के बारे में। उसे घर के अहाते और उसमें बने बगीचे, घर के बाहर से निकलने वाले रास्ते की ख़ूबियों, उनकी मिट्टी, पत्थर और घास के अनेक रहस्य मालूम थे। मिट्टी, पत्थरों आदि के बीच दबीं छोटी-छोटी चीज़ें, जो आमतौर पर लोगों को अपनी ऊँचाई के कारण दिखाई नहीं पड़तीं, यूरा की अमूल्य धरोहर होती थीं। जब यूरा सोने के लिए जाता तो बीते दिन की अंतिम मधुर स्मृति के रूप में वह धूप में तपा पत्थर का कोई टुकड़ा या मिट्टी का नरम-गरम ढेला अपने साथ बिस्तर में ले जाता और उसी के साथ सोता। उसकी माँ जब उसे शहर घुमाकर लातीं तो उसका ध्यान मोटर-गाड़ियों और घोड़ागाड़ियों पर कम और चौड़े-चौड़े खड़ंजों के रास्तों पर बिछे बड़े, चौकोर समतल पत्थरों पर ज़्यादा जाता था। वे पत्थर उसे धरती का ही एक दूसरा रूप लगते और उनकी छवि उसके दिमाग़ में हमेशा के लिए अंकित हो जाती थी।
घरों की चारदीवारी या रास्ते के किनारे की बाड़, पेड़, कुत्ते और लोग सब कुछ उसे बहुत बड़े-बड़े लगते, पर इस बात से न तो उसे आश्चर्य होता और न ही किसी तरह का डर लगता। यह सब उसे बेहद दिलचस्प लगता था और जीवन में रोज़ होने वाले तरह-तरह के बदलाव उसे चमत्कार से लगते थे।
लोगों की अच्छाई-बुराई, गुण-अवगुण देखने का उसका अपना पैमाना था। वह जानता ही नहीं था कि क्या होती है अमीरी और ग़रीबी। अपने पराये का भी उसे ज़्यादा ज्ञान नहीं था। सिवा इस बात के कि उसके सारे खिलौने उसके अपने थे, उसके मम्मी-पापा उसके अपने थे, जो उसे बेहद प्यार करते थे।
वह बहुत से ऐसे लोगों को जानता था, जो उससे उम्र में बड़े थे और उससे उम्र में छोटे भी थे। लेकिन इन लोगों में वह अपने से छोटे लोगों की बात ज़्यादा अच्छी तरह से समझ पाता था। उनकी वह अधिक कद्र इसलिए करता था क्योंकि उनके साथ कोई भी बात की जा सकती है। जबकि बड़े लोग बेतुकी बातें ही ज़्यादा करते हैं, जो उसकी समझ में नहीं आतीं। कभी-कभी तो उनका बर्ताव ऐसा होता है कि यह समझ नहीं आता कि वे सचमुच में बौड़म हैं या उसे छोटा जानकर बेवक़ूफ़ बन रहे हैं। वे ऐसी चीज़ों के बारे में बातें करते हैं, जो सबको मालूम हैं या फिर वे उससे ऐसे अहमकाना सवाल करते हैं जिनका जवाब देते हुए उसे ख़ुद भी अहमक बन जाना पड़ता है। ज़ाहिर है कि ऐसे लोगों के पास से यूरा का जल्दी से जल्दी खिसक लेने का मन करता था।
उस बच्चे के भीतर-बाहर, चारों तरफ़, दो बहुत ही ख़ास लोग थे, जो बड़े भी थे और छोटे भी, जानकार भी थे और बेवक़ूफ़ भी, अपने भी और पराये भी। ये दोनों थे - उसके माँ और बाप।
बेशक वे दोनों बहुत अच्छे हैं, नहीं तो, वे उसके माता-पिता नहीं होते। वे हर तरह से दिलचस्प और सबसे हट के हैं। एक बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है कि उसके पापा इतने जानकार और ताकतवर हैं कि वह उनसे डरता है। जब वे अपनी बड़ी-सी हथेली में उसका हाथ पकड़कर उसे अनोखी चीज़ों के बारे में बताते हैं तो उसे बड़ा मज़ा आता है। माँ पिताजी की तरह बड़ी नहीं हैं। कभी-कभी तो वे बहुत छोटी लगती हैं। माँ बहुत दयालु हैं। उसे देखकर ही वे उसके मन की सारी बातें जान लेती हैं, वे प्यार से उसे चूमती हैं। और कोई ग़लती हो जाने पर कभी उसे डाँटती नहीं हैं। माँ से तो वह इतना हिला-मिला हुआ है कि अपने मन की सारी बात उनसे करता रहता है। जब पापा घर में होते हैं तो यूरा उनके सामने न रोता है और न ही कोई ज़िद करता है। पापा के सामने अपने मन से कुछ भी करना ख़तरे से खाली नहीं होता है। लेकिन वह जब माँ के साथ होता है तो रोना-धोना और ज़िद करना भी उसे सुखद लगता है और उनसे वह इतना ख़ुश रहता है कि ऐसी ख़ुशी उसे न तो खेलने से ही मिलती है, न डरावनी कहानियों से और न हँसी-ठहाकों से।
यूरा सबसे कहता है — मेरी माँ बहुत सुन्दर है। वे इतनी प्यारी हैं और सब उन्हें चाहते हैं।
जब कोई आदमी मेरी माँ को देर तक घूरता है तो मुझे उस आदमी पर ग़ुस्सा आने लगता है और मैं परेशान हो जाता हूँ कि वह मेरी माँ को कहीं मुझसे छीन न ले। मैं उस आदमी की आँखों के सामने खड़ा हो जाता हूँ। मैं तब कहीं नहीं जाता और माँ के आस-पास ही घूमता रहता हूँ। माँ मुझे वहाँ देखकर परेशान हो जाती हैं और मुझसे बार-बार कहती हैं :
— तुम यहाँ क्यों घूम रहे हो ? जाओ, जाकर खेलो, बेटा !
तब मुझे अपनी माँ को उस आदमी के पास ही छोड़कर वहाँ से जाना पड़ता है।
कभी-कभी मैं दूसरे कमरे से कहानियों की कोई किताब ले आता हूँ या फिर अपने रंग और चित्रों में रंग भरने वाली किताब लेकर उनके पास आकर बैठ जाता हूँ। यह देखकर माँ मेरी तारीफ़ करती कि मैं कितना अच्छा हूँ और तस्वीरों में कितने अच्छे रंग भरता हूँ। लेकिन कुछ ही देर बाद मुझे फिर टोक देती हैं और कहती हैं :
— यूरा बेटा, अपने कमरे में जाकर रंग भरो न। देखो, तुमने फिर मेज़पोश पर पानी गिरा दिया है। रँग भरते समय तुम कोई न कोई गड़बड़ हमेशा कर देते हो।
अगर कोई आदमी माँ के पास दिन में आता और माँ यूरा को दूसरे कमरे में जाने के लिए कहतीं तो यूरा को इतना बुरा नहीं लगता था। लेकिन कभी-कभी कोई अजनबी आदमी शाम को उस समय माँ से मिलने आता जब यूरा के सोने का समय हो गया होता तो यूरा को लगता कि वह माँ को इस ख़तरनाक आदमी के साथ अकेला छोड़कर कैसे सो जाए। यूरा देर तक जागता रहता। यहाँ तक कि माँ उसे कई बार देखने के लिए आतीं और फिर माँ भी अपने कमरे में जाकर सो जातीं। यूरा को यह अहसास होता कि माँ के कमरे की बत्ती बुझ गई है, माँ भी सो चुकी हैं और घर में एकदम शान्ति है। परन्तु उसके मन में एक धुकधुकी-सी लगी रहती कि वो बाहरी आदमी वापस चला गया है या अभी घर में ही है और वहीं सो गया है।
पापा कभी-कभी उसे और माँ को घर में ही छोड़कर टूर पर चले जाते थे। ये अजनबी लोग तभी उनके घर आते थे। माँ जिस सहजता और लगाव के साथ इन अजनबी आदमियों से बात करती थीं, उसे सुनकर और माँ की भावभंगिमा देखकर यूरा को ऐसा लगता था कि माँ इन लोगों को पसन्द करती हैं और वे लोग किसी न किसी रूप में उसके पिता की जगह लेने वाले हैं। घर के ऐसे माहौल में वह थोड़ा ग़ुस्सैल हो गया और अपनी उम्र से ज़्यादा सयाना और समझदार दिखने लगा। बड़े लोगों के बीच दिखाई देने वाले रिश्तों की समझ भी उसे आने लगी थी। वह समझने लगा था कि क्यों उसके पापा जब घर लौटते हैं तो उसके साथ लाड़-प्यार करते हैं और हमेशा कोई न कोई तोहफ़ा लेकर आते हैं। जबकि घर में आने वाले दूसरे अजनबी आदमी उसकी ज़रा भी परवाह नहीं करते और उसे देखकर, बस, तकल्लुफ़ के साथ उसका अभिवादन करते हैं।
यूरा अपने पापा की बहुत कद्र करता था, उन्हें अच्छी तरह से समझता था और थोड़ा-थोड़ा उनसे डरता भी था। कभी-कभी वह अपने पापा को देखकर रोने लगता था। उसके पापा यह समझते थे कि वो कई दिन बाद घर लौटे हैं, इसलिए यूरा जज़्बाती हो गया है और वे उसे प्यार से चुप कराने लगते थे। वह अपने पापा को अपने रोने की वज़ह हरगिज़ नहीं बताता था और जब वे यह पूछते थे कि वह क्यों रो रहा है तो ठीक से उनकी बात सुनते-समझते हुए भी, बात समझ में न आने या सुनाई न देने का बहाना बनाया करता था।
यूरा को अपने माँ-बाप का यह रहस्य भी मालूम था कि बहुत ही ख़ूबसूरत दिखने वाले उसके माँ-बाप के बीच में आपसी रिश्ते अच्छे नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे से बेहद नाख़ुश हैं और उनके बीच बनती नहीं है। वे यह बात सबसे छिपाते हैं। यूरा भी यह बात किसी के सामने नहीं आने देता। वह सबसे ऐसे बर्ताव करता जैसे उसके घर में सब कुछ ठीक-ठाक है। उसने माँ को ड्राइंग-रूम या बैड-रूम में कई बार रोते हुए देखा है। यूरा का कमरा माँ-बाप के कमरे के एकदम पास है। एक बार सुबह-सवेरे उसने पापा की ग़ुस्से से भरी आवाज़ सुनी। वे माँ से ऊँची आवाज़ में कुछ कह रहे थे और माँ धीमे-धीमे रो रही थीं। वह अपनी साँस रोके बहुत देर तक चुपचाप लेटा रहा। उसे उनकी बातों से डर लगने लगा। घर में खींच-तान का माहौल बन गया था। यूरा इस माहौल को सहन नहीं कर पा रहा था। उसकी आया कमरे में उसके साथ ही सो रही थी। उसने आया से पूछा :
— दादी, ये लोग क्यों लड़ रहे हैं ?
आया ने डरते-डरते जवाब दिया :
— सो जा, बेटा, सो जा। बड़े लोगों की बाते बड़े ही जानें। जब तुम बड़े हो जाओगे तो तुम भी समझने लगोगे।
— मैं तुम्हारे पास आकर सो जाऊँ, दादी ?
—अरे बेटा, तुम इतने बड़े हो गए हो, क्या अब मेरे साथ बिस्तर पर सोते अच्छे लगोगे !
यह सुनकर भी यूरा आया के बिस्तर पर आकर लेट गया।
यूरा और आया दोनों ही फुसफुसाकर अँधेरे में ही धीरे-धीरे देर तक बातें करते रहे।
अगली सुबह यूरा को दोनों माँ-बाप ख़ुश और सन्तुष्ट दिखे। यूरा ने पहले तो उन पर विश्वास करने का नाटक किया, लेकिन फिर उसे लगा कि वे दोनों सच में बहुत ख़ुश हैं। लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही उसने अपने पापा को टसुए बहाते देखा। यूरा जब अपने पापा की कैबिनेट के सामने से गुज़र रहा था तो उसने देखा कि उस कमरे का दरवाज़ा थोड़ा खुला हुआ है और अन्दर से किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही है। उत्सुकतावश जब उसने कमरे के भीतर झाँककर देखा तो पाया कि उसके पापा सोफ़े पर पेट के बल लेटे हुए हैं और ज़ोर-ज़ोर से सिसक रहे हैं। उस कमरे में उनके अलावा और कोई नहीं था। यूरा चुपचाप अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर इधर-उधर चक्कर लगाकर वह वापस फिर वहीं आ गया। पापा के कमरे का दरवाज़ा अभी भी पहले की तरह थोड़ा खुला हुआ था, लेकिन वे अब ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे। यूरा के दिल में अपने पापा के रोने की डरावनी और गम्भीर छवि अंकित हो गई। उसने किसी को भी यह बात नहीं बताई। वह पिता को और ज़्यादा प्यार करने लगा था। वह समझ गया था कि इस भयानक घटना पर चुप्पी साधना ज़रूरी है ताकि उसके और पापा के अलावा और किसी को भी इसकी भनक तक न लगे।
और सच में उस वाक़ये का यूरा ने कभी किसी से ज़िक्र नहीं किया। उसके पिता ने इस बात पर कभी ग़ौर ही नहीं किया कि यूरा उनसे विशेष लगाव रखता है। और सच में ज़िन्दगी गुलज़ार थी, इसलिए किसी तरह के दिखावे की कोई ज़रूरत भी नहीं थी।
यूरा के घर की ऊँची छत से दूर-दूर तक जो भी कुछ दिखाई देता था उससे उसके दिल के तार गहरे जुड़े थे। चाहे वह दूर चमकने वाला सूरज हो या अहाते में उगने वाली हरी-हरी घास, जिससे निकलने वाली हरेपन की ख़ुशबू उसे बहुत भाती थी। उसे अपनी वह लम्बी-सी लग्गी बहुत पसन्द थी, जिसके ऊपरी कोने पर उसने हँसियानुमा एक चाकू बाँध रखा था। जब वह रात को सोने के लिए बिस्तर में लेटता तो घर का अहाता, घर के आसपास का रास्ता, बारिश के दिनों में पड़ने वाली वर्षा की तिरछी बौछारें, घर के पास बना पोखर, जिसके पानी में हमेशा सफ़ेद झाग दिखाई देते थे — ये सब उसके मन पर छा जाते। वह जैसे आसपास की प्राकृतिक छटाओं के साथ ही बिस्तर पर लेटता था और उसकी यह छोटी-सी दुनिया उसके साथ ही उसके छोटे-से बिस्तर में समा जाती थी। उसे जब नींद आती तो उसके साथ ही सब कुछ सो जाता और उसके आँख खोलते ही यह सब भी जग जाता।
और एक सबसे मज़ेदार बात तो यह थी कि घर के बगीचे में शाम को वह अपनी छड़ी जिस जगह पर गाड़ता, अगली सुबह तक वो वहीं पर रहती थी। घर के कोठार में वह अपनी क़ीमती चीज़ें छुपा देता था, जैसे लकड़ी की गिल्लियाँ, काँच की गोलियाँ और हड्डी की बनी गोटियाँ। टीन के डिब्बे में छुपाकर रखी गईं ये सभी चीज़ें एकदम वैसे ही सुरक्षित रहतीं, जबकि इस बीच एक पूरी रात बीत चुकी होती। वह सोचता था कि ये सभी चीज़ें ख़ुद अपनी जगह बदल सकती हैं, जैसे बगीचे में गड़ी छड़ी रात के अँधेरे में कहीं भी आ-जा सकती है। टीन के डिब्बे में रखी चीज़ें उसे छोड़कर किसी दूसरे लड़के के घर जा सकती हैं। लेकिन हर रोज़ सुबह जब वह कोठार में जाता तो उसे यह देखकर आश्चर्य के साथ-साथ सुखद अनुभूति होती थी कि उसकी चीज़ें उसे छोड़कर कहीं नहीं गई हैं। सूरज, जिसने कल शाम को उससे विदा ले ली थी अगले दिन सुबह-सुबह फिर उसका स्वागत करने के लिए आ जाता और खिलखिलाकर उसे जगाता। उसका मन होता कि वह ज़ोर-ज़ोर से हँसे और ज़ोर-ज़ोर से गाए।
कभी-कभी कोई न कोई उससे उसका नाम पूछता, तो वह तुरन्त हँसकर तेज़ आवाज़ में जवाब देता :
— यूरा।
लेकिन लोग उसका पूरा नाम जानना चाहते थे। तब वह थोड़ा तनाव में आ जाता और कहता :
— यूरी मिख़अईलविच।
थोड़ा और सोचकर वह अपना पूरा नाम बताता :
— यूरी मिख़अईलविच पुशकरयोफ़।
2
यूरा के घर में वो एक ख़ास दिन था। उस दिन उसकी माँ का जन्मदिन था, इसलिए शाम को घर में एक बड़ी दावत होने वाली थी। माँ सुबह से ही बेहद मसरूफ़ थीं। ढेर सारे मेहमान आने वाले थे। सैनिक-बैंड को भी बुलाया गया था। घर के अहाते और बगीचे में और घर की पूरी बालकनी में रंग-बिरंगी रोशनी का इन्तज़ाम किया गया था। उससे पहले दिन शाम को यूरा को पूरी छूट मिल गई थी। रात के नौ बजने के बावजूद किसी ने उससे यह नहीं कहा था कि सोने का समय हो चुका है, बिस्तर पर जाओ। लेकिन वह ज़्यादा देर तक घर में घूम-फिर नहीं पाया और उसे थोड़ी देर में ही गहरी नींद आ गई। अगले दिन सुबह पौ फटते ही उसकी आँख खुल गई। वह बिस्तर पर उठ बैठा और कोई चमत्कार देखने की उम्मीद में अपने कमरे से बाहर भागा। परन्तु यह देखकर वह निराश हो गया कि अभी तक सब सो रहे थे। यहाँ तक कि उसकी आया, बावर्चिन और नौकरानियाँ भी सो रही थीं। घर का मुख्य दरवाज़ा भी बंद था और उस पर साँकल लगी हुई थी। यूरा को पूरा विश्वास था कि अब तक घर और बगीचे की सजावट हो चुकी होगी, लेकिन इस बात का कोई नाम-ओ-निशान भी नहीं था कि आज उनके घर में मेहमान आने वाले हैं। यूरा दरवाज़े की साँकल खोलकर बाहर आया। सब कुछ वैसे का वैसा था जैसा कल शाम को उसने देखा था। हाँ, कोठार के पीछे उसे अपनी घोड़ागाड़ी का कोचवान इफ़मेन गाड़ी धोता नज़र आया। वह अपनी लाल कमीज़ की आस्तीनें कोहनियों से ऊपर चढ़ाए बाल्टी के पानी से रगड़-रगड़कर गाड़ी को धो रहा था। गाड़ी धुलती देखकर यूरा का दिल खिल गया और उसे इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि शाम को घर में पार्टी ज़रूर होगी।
इफ़मेन ने यूरा की तरफ़ नज़रें घुमाई तो यूरा का ध्यान उसकी घनी, काली और घुँघराली दाढ़ी की तरफ़ गया। यूरा ने बड़े सम्मान के साथ उसका अभिवादन किया।
इसके बाद तेज़ी से जन्मदिन मनाने की तैयारियाँ होने लगीं। घर के अहाते और बगीचे की सफ़ाई की जाने लगी। घर तक आने वाले रास्ते की सफ़ाई भी होने लगी।
नौकर-नौकरानियाँ तेज़ आवाज़ में बतिया रहे थे। एक नौकरानी कालीन को घर की बाड़ पर लटकाकर झाड़ू से उसकी धूल झाड़ रही थी। जब तक आया ने यूरा को नाश्ता करवाया बगीचे में बाँस लगाकर उन पर लालटेने टाँगने का काम शुरू हो चुका था। बैठक में रखे फ़र्नीचर की जगह बदली जा रही थी और इस काम के होते-होते कोचवान इफ़मेन घोड़ों को गाड़ी में जोतकर पार्टी के किसी ज़रूरी काम के लिए रवाना हो गया था।
यूरा बड़ी मुश्किल से किसी एक काम पर अपना ध्यान लगा पाया। उसका मन कई काम करने का हो रहा था। तभी उसके पापा ने उसे आवाज़ लगाई। वह एकदम भागकर पापा के पास आया। आज उसे पापा बहुत अच्छे लग रहे थे। वे उसके साथ हँसी-मज़ाक कर रहे थे। यूरा ने उनसे कहा कि वह लालटेनें लटकाने का काम करना चाहता है। तब उन्होंने यह काम उसे ही सौंप दिया और उसकी सहायता करने लगे। सीढ़ी पर चढ़ने-उतरने में दोनों बाप-बेटा एक दूसरे की मदद कर रहे थे। वह सीढ़ी पुरानी हो चुकी थी, इसलिए उनके चढ़ने-उतरने से चरमरा रही थी। जब उन्होंने आख़िरी लालटेन टाँगी तो सीढ़ी अचानक टूट गई और वे दोनों धड़ाम से नीचे घास पर आ गिरे, पर उन्हें कोई चोट नहीं आई। यूरा तो एक झटके से उठ खड़ा हुआ, लेकिन उसके पापा अपने दोनों हाथ सर के नीचे दबाए घास पर ही लेटे रहे। यूरा डर गया कि कहीं पापा को चोट तो नहीं लग गई। लेकिन पापा आँखें मिचमिचाते हुए आसमान की तरफ़ देख रहे थे। वे एकदम गुलिवर की तरह लग रहे थे और संजीदा हो गए थे। वैसे ही संजीदा, जब लिलिपुट में वहाँ के नन्हे-नन्हे निवासियों ने गुलिवर को बन्दी बना लिया था। शायद पापा को भी कोई नाग़वार बात याद आ गई होगी।
यूरा अपने पापा को हँसाने के लिए उनके मुड़े हुए पाँव पर बैठ गया और बोला :
— पापा, आपको याद है, मैं जब छोटा था, तो आप घोड़ा बनकर मेरे साथ खेलते थे और कभी-कभी मुझे अचानक इस तरह गिरा दिया करते थे जैसे घोड़ा गिरा देता है …
यूरा की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि पापा ने उसे पहले की तरह ज़मीन पर गिरा दिया। यूरा की नाक घास में धँसी हुई थी। पिता की इस हरक़त पर वह नाराज़ हो गया। अब उसके पापा ने उसे मनाने के लिए उसकी बग़ल और पेट में गुदगुदी करनी शुरू कर दी। यूरा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। पापा ने भी हँसते हुए यूरा को एक पाँव से पकड़कर अपने एक हाथ से ऊपर उठा लिया और उसे झुलाते हुए बालकनी में ले गए। अचानक माँ ने जब यह देखा तो वे बुरी तरह से डर गईं और पापा पर चिल्लाने लगीं :
— अरे ! आप यह क्या कर रहें हैं ! इसका सर सुन्न हो जाएगा। उसके ख़ून का बहाव सर की तरफ़ बढ़ जाएगा।
माँ का उलाहना सुनकर पापा ने यूरा को नीचे उतार दिया। इतनी ही देर में उसका मुँह पूरी तरह से लाल हो गया था, उसके बाल बुरी तरह से बिखरे हुए थे। लेकिन उसे सचमुच बेहद मज़ा आया था।
दिन तेज़ी से बीत रहा था। दोपहर हो चुकी थी। माँ बार-बार इफ़मेन को किसी न किसी काम से बाहर भेज रही थीं। अभी से गहमा-गहमी शुरू हो चुकी थी। बीच-बीच में कुछ लोग बाहर से कोई न कोई पैग़ाम लेकर आ रहे थे। शहर की अलग-अलग दुकानों से घर में तरह-तरह के ज़ायकेदार केक आने शुरू हो गए थे। माँ ने सन्देश भेजकर दर्ज़िन को बुलवाया था। शायद उन्हें अपनी पोशाक ठीक करवानी थी। जैसे ही दर्ज़िन उनके घर पहुँची माँ उसके साथ अपने कमरे में कहीं छुप गईं। ऐसा लग रहा था कि उनके घर शाम को होने वाली पार्टी को लेकर पूरे शहर में हलचल है। यूरा भी इतरा रहा था। उसका भी रंग-ढंग पूरी तरह से बदला हुआ था। उसकी चाल ही बदल गई थी। उसे देखते ही यह पता लग जाता था कि यही ‘बर्थ-डे-लेडी’ का बेटा है। सुबह से घर में डोलते-डोलते यूरा पूरी तरह से थक चुका था। वह आराम करने के लिए बिस्तर पर लेट गया और तुरन्त ही नींद ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया।
जब यूरा की नींद खुली तो उसके मिज़ाज बदल चुके थे। माँ ने उसे नहाने के लिए कहा। नहाने के बाद उसे ज़िन्दगी बेहद ख़ूबसूरत लगने लगी। यूरा ने समारोही पोशाक पहन ली थी। रेशमी लाल कमीज़ और नीचे काली पतलून। बेहद ख़ूबसूरत लग रहा था वह। माँ ने उसके क़रीब आकर उसकी बलैयाँ लीं। जश्न की तैयारियाँ अभी भी चल रही थीं। यूरा एक बार फिर से उस भागदौड़ में शामिल हो गया।
तब तक सैनिक-बैण्ड वाले आ गए थे। उन्हें देखते ही यूरा चहकने लगा।
यूरा ने देखा कि उसके पापा और माँ बगीचे में अंगूर की बेलों की छतरी तले बैठे हुए हैं। माँ का सिर पापा के कंधे पर टिका हुआ है और पापा का एक हाथ माँ के गले में है। पापा बेहद संजीदा लग रहे हैं। माँ भी थोड़ा गम्भीर हैं। अचानक माँ पापा के बराबर से उठीं और बोली :
— छोड़ो मुझे, मुझे जाना है।
— देखो, तुम यह बात याद रखना।
पापा ने इसके अलावा जो कुछ भी कहा, वह यूरा के पल्ले नहीं पड़ा। परन्तु पापा का संजीदा चेहरा देखकर उसके दिल में एक अजीब-सी बेचैनी होने लगी।
— जाने दो उस बात को, तुम भी कितने बदतमीज़ हो।
यह कहकर माँ ज़ोर से हँसी। लेकिन पापा का चेहरा गुलिवर की तरह ही गम्भीर और उदास बना रहा। यूरा को यह देखकर बेहद बुरा लगा।
जल्दी ही यूरा इस घटना को भूल गया क्योंकि थोड़ी ही देर बाद बड़े जोश-ओ-ख़रोश से जश्न शुरू हो गया। मेहमान इतने ज़्यादा थे कि मेज़ पर एक भी कुर्सी ख़ाली नहीं बची थी। लोग ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। ख़ूब हँसी-ठठ्ठा हो रहा था। तब तक बैण्ड बजना शुरू हो गया। मेहमानों का एक गुट घर के बाहर बगीचे के कोने में सिगरेट पी रहा था और ऊँची आवाज़ में बतिया रहा था। पार्टी में आने वाले मेहमानों से यूरा घर के मुख्य दरवाज़े के पास ही मिल लेता था। वह उन्हें ग़ौर से देखता और सब लोगों को घर के अन्दर छोड़ने जाता। कुछ लोगों के साथ उसकी जान-पहचान और दोस्ती भी हो जाती।
ऐसे ही उसकी दोस्ती एक अफ़सर के साथ हो गई। यूरा को यह देखकर थोड़ी हैरानी हुई कि उस अफ़सर ने यूरा को अपना नाम मीत्चिंका बताया। जबकि मीत्चिंका लाड़ में बच्चों को कहते हैं। उनका असली नाम तो मिखअईल था। फिर उन्होंने मीत्चिंका क्यों बताया ? शायद वे मुझसे दोस्ती करना चाहते हैं। उनकी कमर पर एक तलवार बँधी हुई थी, जो चमड़े के मोटे खोल में थी। यूरा ने जब तलवार देखने की इच्छा जताई तो उन्होंने यूरा को बताया कि यह तलवार खोल से बाहर नहीं निकलती है। तलवार के हत्थे पर एक रुपहला रिबन बँधा हुआ था। घर में घुसकर मीत्चिंका ने अपनी तलवार एक कोने में खड़ी कर दी और वे लोगों से मिलने-जुलने लगे। मीत्चिंका के पास ही एक और अफ़सर खड़े थे, जिन्हें यूरा पहले से जानता था। उनका नाम था - यूरी मिखअईलविच।
यूरा एक और यूरी मिखअईलविच को जानता था, जो अक्सर उसके घर उस समय आते थे जब पापा घर में नहीं होते थे और यूरा के सोने का समय होता था। यूरा सोने के लिए अपने कमरे में चला जाता था और ये यूरी मिखअईलविच उसकी माँ के पास रह जाते थे। यूरा डरता था कि ये यूरी मिखअईलविच कहीं उसकी माँ को कोई नुकसान न पहुँचाएँ।
मीत्चिंका यूरी मिखअईलविच के साथ जन्मदिन की बधाई देने के लिए यूरा की माँ के पास पहुँचे। माँ पहले ही कुछ लोगों से घिरी हुई थीं। सब उन्हें बधाई दे रहे थे और उनका हाथ चूम रहे थे। यूरी मिखअईलविच बार-बार अपनी बड़ी-सी मूँछों पर ताव दे रहे थे। माँ के पास पहुँचकर उन्होंने माँ का हाथ चूमा। यह देखकर यूरा को बहुत बुरा लगा, पर तभी मीत्चिंका ने भी यूरा की माँ को जन्मदिन की बधाई देकर उनका हाथ चूमा। यह देखकर यूरा का मन शांत हो गया।
शाम गहराने लगी थी और मेहमानों की आवाजाही भी बहुत बढ़ गई थी। नए मेहमान सीधे उनके घर में घुस जाते और माँ को बधाई और शुभकामनाएँ देने लगते। कुछ लोग बधाई देने के बाद बगीचे में निकल आते और किसी न किसी गुट में शामिल हो जाते। तभी अचानक शहर के कॉलेज से कुछ छात्र-छात्राएँ वहाँ पहुँचे। लड़कियों ने सामान्य पोशाक पहन रखी थी और लड़कों ने सफ़ेद रंग की जैकेट। लड़कों की जैकेट के बाईं तरफ़ कटार रखने की जेब बनी हुई थी, जिसे देखकर यह लगता था कि वे शायद सैनिक स्कूल में पढ़ते हैं। सारी लड़कियाँ यूरा के पास आकर इकट्ठी हो गईं और उन्होंने उसे घेर लिया। यूरा इतना हैंडसम लग रहा था कि एक लड़की से न रहा गया और उसने यूरा को चूम लिया। बस, फिर क्या था, सारी लड़कियाँ उसे एक-एक करके चूमने लगीं। उनमें नीना नाम की एक ख़ूबसूरत लड़की भी थी। वह यूरा को अहाते में लगे झूले के पास ले गई और झूला झुलाने लगी। झूला झूलते हुए अचानक यूरा का सन्तुलन बिगड़ गया और वह ज़मीन पर गिर पड़ा। गिरने से उसका एक घुटना थोड़ा छिल गया था, जिसमें ख़ून उभर आया था। गिरने और चोट लगने के बावजूद यूरा ज़रा भी नहीं रोया और उसका दर्द बड़ी जल्दी ही ग़ायब हो गया। उसी समय उसके पापा एक ख़ास मेहमान के साथ बगीचे में खड़े थे। उसे झूले से गिरता हुआ देख उन्होंने दूर से ही उससे पूछा :
— बेटा, तुम्हें चोट तो नहीं लगी ?
पर उस बूढ़े को हँसते हुए और कुछ बोलते हुए देखकर यूरा ने कोई जवाब नहीं दिया।
अचानक फिर से बैण्ड बजना शुरू हो गया था। यूरा की तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं था। घर की बालकनी से वह लिंडन के पेड़ पर जा चढ़ा था और पेड़ की एक डाल पर बैठकर वहाँ से पूरा नज़ारा देख रहा था। नीचे मेहमान कहकहे लगा रहे थे और उनसे बात करते हुए माँ ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रही थीं। अचानक यूरा ने अँगूठा चूसना शुरू कर दिया था। यह उसकी पुरानी आदत थी, जो कई साल पहले ही छूट चुकी थी। लेकिन अब उसने अनजाने में अँगूठा मुँह में डाल लिया था और उसे चूसने लगा था। इस बैण्ड में पाइप बजाने वाला बड़े जोश में था। उसका पाइप ऐसे चिंघाड़ रहा था कि दूसरे संगीत वाद्यों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। उस बड़े-से पाइप को देखकर यूरा के मन में आया कि इस बाजे से तो किसी सैनिक का हैलमेट बनाया जा सकता है।
यूरा पेड़ से नीचे उतर आया। तब तक मेहमान गुटों में बँट चुके थे। अँधेरा उतर आया था। लालटेनों की धीमी रोशनी में एक गुट नाच और गा रहा था। माँ भी इसी गुट में शामिल थीं और पूरे जोश के साथ नाच रही थीं। माँ को देखकर उसे लगा — कितनी ख़ूबसूरत हैं मेरी माँ और कितना बढ़िया डान्स करती हैं। माँ का नाच ख़तम होने के बाद यूरा दूसरे गुटों की तरफ़ आगे बढ़ गया। कहीं हँसी-मज़ाक हो रहा था तो कहीं राजनीतिक बहस। यकायक यूरा एकदम उदास हो गया। अचानक यूरा को अपने पापा याद आ गए और वह सब गुटों के पास जाकर उन्हें ढूँढ़ने लगा। पापा कहीं दिखाई नहीं दिए। तभी घर के अन्दर से शोर-शराबे की आवाज़ सुनाई दी। यूरा ने सोचा, पापा घर में ही होंगे। वह भागकर घर में घुस गया। यहाँ खाने की मेज़ के चारों तरफ़ बहुत सारे लोग इकट्ठे थे और ताश की बाज़ी चल रही थी, लेकिन पापा कहीं नहीं थे। संगीत अभी भी पहले की तरह ही बज रहा था, लेकिन अब ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज़ कहीं दूर से आ रही है। यूरा शान्त हो गया। वह ऊपर से तो शान्त दिखाई दे रहा था, लेकिन अन्दर ही अन्दर बहुत बेचैन था।
3
रात गहराने लगी थी। मेहमानों को घर लौटने की कोई जल्दी नहीं थी। यूरा फिर अहाते में निकल आया था। वहाँ जल रही लालटेनें सितारों की तरह जगमगा रही थीं। लालटेनों की हलकी पीली रोशनी घर की दीवारों पर पड़ रही थी। घर का कोना-कोना अँधेरे में जुगनुओं की तरह जगमगा रहा था। घर की एक खिड़की पर लाल चिमनी जल रही थी। अँधेरे में चमकती उस लाल खिड़की ने यूरा के घर को एक जादुई घर बना दिया था। यूरा अपने घर पर मोहित हो गया।
बगीचे में चारों तरफ़ अँधेरा छाया था और उस अँधेरे में मेहमानों की आवाज़ें गूँज रही थीं। सारे मेहमान भूत की तरह लग रहे थे। यूरा के बगीचे में भूत इधर-उधर घूम रहे थे। भूतों के कहकहे सुनाई दे रहे थे और कुछ लाल धब्बे नज़र आ रहे थे। यूरा ने देखा कि जब कोई सिगरेट का कश लगाता है तो सिगरेट जलने का लाल बिन्दु नज़र आने लगता है। तभी चार-पाँच सफ़ेद भूत यूरा को अपनी तरफ़ आते दिखाई दिए। वे ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। जब वे थोड़ा पास आ गए तो यूरा ने इन भूतों को पहचान लिया। ये शहर के कॉलेज से आये छात्र थे, जो अपनी सफ़ेद जैकेट की बदौलत अँधेरे में भी झिलमिला रहे थे।
अब यूरा भी ऐसा ही भूत बनना चाहता था ताकि वह सबको देख सके और उसे कोई न देख सके। वह चुपके से रसोई की छत पर चढ़ गया। छत पर बनी खिड़कियों से वह रसोई में झाँकने लगा। रसोई में काम करते हुए बावर्ची उसे नज़र आ रहे थे, लेकिन वे उसे नहीं देख पा रहे थे। उसके बाद उसने दूसरी खिड़की से अपने माँ-बाप के बैड-रूम में झाँका तो पाया कि सोने के कमरे में बिस्तर लगे हुए हैं। यूरा के कमरे में भी बिस्तर बिछा हुआ था। अगला कमरा जिसमें ताश की बाज़ी जमी हुई थी, उसने अपनी साँस रोककर पंजों के बल ऐसे पार किया मानो वह हवा में चल रहा हो। उसके बाद वह फिर वापस बगीचे में उतर आया। उसकी यह हरक़त किसी ने नहीं देखी थी। नीचे उतरकर यूरा ने गहरी साँस ली और फिर आगे बढ़ गया। वह लोगों के क़रीब से गुज़र रहा था, चाहे तो वह उन्हें हाथ से छू सकता था। वह सबसे इतना बचकर आगे बढ़ रहा था कि किसी को इसकी हवा तक न लगी। सब अपनी बातों में मशगूल थे। नीना को क़रीब से जानने-समझने के लिए वह बड़ी देर तक उसकी बातें सुनता रहा। नीना को शायद इसका आभास हो गया, तभी नीना ने उसे ज़ोर से पुकारा :
— अरे यूरा ! क्या तुम यूरा हो ?
यह सुनते ही यूरा की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। उसने तुरन्त अपनी साँस रोक ली और झाड़ी के पीछे लेट गया। इस तरह वह नीना से बच निकला। पूरी तरह से भूत की भूमिका में आने के लिए वह झाड़ियों के पीछे सरक-सरककर आगे बढ़ने लगा। वैसे भी आगे रास्ता ख़तरनाक लग रहा था। इस तरह इस खेल में उसे समय का अंदाज़ा नहीं रहा। बीच-बीच में बैण्ड अभी भी बज रहा था। सब लोग यूरा को भूल चुके थे, यहाँ तक कि उसकी माँ भी। अब यूरा अकेले घूमते-घूमते परेशान हो चुका था। ओस गिरने लगी थी। ठण्ड बढ़ गई थी। ओस से भीगी घास में उसे सर्दी लग रही थी और करौंदों की झाड़ियों के काँटें भी चुभ रहे थे। उसे अँधेरे में कुछ नहीं सूझ रहा था। वह क्या करे ! और क्या न करे ! हे भगवान !
यूरा समझ गया था कि किसी को भी उसकी परवाह नहीं है। इसीलिए कोई उसे याद नहीं कर रहा है। तभी उसे सामने की तरफ़ हलकी-सी टिमटिमाती रोशनी दिखाई दी। वह उस रोशनी की तरफ़ बढ़ने लगा। रोशनी के पास पहुँचकर वह उस जगह को पहचान गया। यह वही जगह थी, जहाँ शाम को उसके पापा-मम्मी बैठे हुए थे। वहाँ दो लालटेनें टँगी हुई थीं, जिनमें से एक ठीक से जल रही थी और दूसरी ज़रा-सी टिमटिमा रही थी। उसने सिर घुमाकर सारे बगीचे पर नज़र डाली। वहाँ लगी बाक़ी सारी लालटेनें बुझ चुकी थीं। टिमटिमाती लालटेन की लौ के हिलने से चारों तरफ़ सब कुछ हिलता-सा जान पड़ रहा था। तभी उसने माँ और यूरी मिखअईलविच को बातें करते सुना। माँ कह रही थीं :
— अरे छोड़ो, तुम क्या पागल हो गए हो ? चारों तरफ़ लोग हैं। यहाँ कभी भी कोई आ सकता है।
— और तुम ?
— आज मैं छब्बीस साल की हो गई हूँ। मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी जवानी ढल रही है।
यूरी मिखअईलविच ने उसकी बात पर कोई ध्यान दिए बिना कहा :
— तुमने अभी बताया कि उसे हमारे बारे में कुछ नहीं पता। क्या सच में उसे कुछ नहीं मालूम है ? उसे इस बात का अंदाज़ तक नहीं है ? अच्छा, क्या यह सभी से इतनी ज़ोर से ही हाथ मिलाता है ?
— यह तुम कैसी बात कर रहे हो ? ज़ाहिर है कि वह सबसे ऐसे हाथ नहीं मिलाता होगा।
— उसके बारे में सोचकर मुझे ख़राब लग रहा है।
— उसके लिए ? तुम्हें क्या ख़राब लग रहा है !
और वह अजीब तरह से हँस पड़ी। यूरा समझ गया कि वे दोनों उसी के बारे में बात कर रहे हैं। परन्तु वह यह नहीं समझा कि आख़िर यह सब है क्या और माँ ऐसे क्यों हँस रही हैं ?
यूरी मिखअईलविच ने आगे कहा :
— अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगा।
— अरे क्यों मेरी तौहीन करने पर तुले हो ! मेरा हाथ छोड़ दो। मुझे चूमने की हिम्मत न करो। छोड़ो मुझे ! जाने दो !
उन दोनों के बीच फिर चुप्पी छा गई। यूरा ने पत्तों के बीच से झाँककर देखा कि वह माँ को बाँहों में भरकर चूम रहा था। उन लोगों ने और भी कुछ बातें कीं, पर यूरा के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। वह माँ को पुकारना चाहता था, पर माँ को इस हालत में देखकर शब्द उसके मुँह में ही रह गए और वह बुदबुदाकर, बस, एक ही शब्द दोहराने लगा — माँ… माँ… माँ ! दोनों देर तक प्रेम करते रहे और यूरा बेबस-सा उन्हें ताकता रहा, जब तक कि वे वहाँ से चले नहीं गए।
अपने पापा को ढूँढता हुआ यूरा एक कमरे में पहुँचा, जहाँ वे उस ख़ास, बूढ़े-गंजे मेहमान के साथ बैठे हँसी-मज़ाक कर रहे थे। वे सज्जन अपने हाथ हवा में हिला-हिलाकर यूरा के पिता पर नाराज़गी जताते हुए कह रहे थे — तुमने यह ठीक नहीं किया, तुम्हें ऐसा सलूक नहीं करना चाहिए था, बस, बदचलन लोग ही ऐसा करते हैं, अब मैं तुम्हारे साथ बात नहीं करूँगा।
यूरा के पापा ने मुस्कुराते हुए अपने हाथ आगे बढ़ाए और वे कुछ कहना चाहते थे परन्तु बूढ़े मियाँ कुछ सुनने को तैयार ही न थे, उलटा वे और ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे। वे ठिगने थे और यूरा के पापा बहुत लम्बे और सुन्दर थे, मग़र उनकी मुस्कान उस गुलिवर जैसी थी, जो अपने वतन और वहाँ रहने वाले ख़ुद के जैसे लंबे-लंबे लोगों को याद करके दुखी हो रहा था। यूरा ने दिल ही दिल में यह बात फिर से दोहराई , ‘मुझे पापा से माँ की वह बात छुपानी है कि यूरी मिखअईलविच उन्हें चूम रहा था। वैसे तो मैं पापा बहुत चाहता हूँ, अब उनसे और अधिक प्यार करना है।’ अचानक वह उन गंजे और बूढ़े मियाँ पर टूट पड़ा और पूरी ताक़त से उन्हें अपने नन्हे हाथों से घूँसे मारते हुए चीख़-चीख़कर कहने लगा :
— आप मेरे पापा को डाँट क्यों रहे हैं… ?
उस कमरे में मौज़ूद लोगों में से यूरा की बात सुनकर कोई हँसा तो कोई चिल्लाया। पापा ने यूरा को कसकर अपनी एक बाँह में जकड़ लिया और दूसरे हाथ से उसका मुँह बंद किया और चिल्लाकर कहा :
— अरे, इसकी माँ कहाँ है ? उसे बुलाओ !
यूरा ने रो-रोकर घर सिर पर उठा लिया। उसकी सिसकियाँ बँध गईं और बीच-बीच में उसे हिचकियाँ भी आने लगीं। मग़र इस हाल में भी वह आँख के एक कोने से पिता पर नज़र रखे हुए था कि कहीं उन्हें माँ और यूरी मिखअईलविच वाली बात की भनक तो नहीं लग गई। और जब उसकी माँ कमरे में घुसी तो उस पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए वह और भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। माँ ने जब उसे अपनी गोद में लेना चाहा तो उनकी गोद में जाने की जगह वह उलटा पापा के सीने से कसकर चिपक गया। फिर पापा को ही उसे गोद में उठाकर उसके कमरे तक ले जाना पड़ा। शायद बाप का भी उसे अपनी गोदी से उतारने का दिल नहीं था, इसलिए जैसे ही वे उसे लेकर कमरे से बाहर निकले तो उसे बार-बार चूमते हुए कहने लगे :
— तू तो मेरा लाड़ला राजा बेटा है ! मेरा प्यारा बेटा !
लेकिन पीछे-पीछे आ रही बीवी से कहा :
— देखो तो इसे, यह कैसा हो गया है।
बीवी बोली :
— यह सब आपके ही किये-धरे का नतीज़ा है। आप लोगों ने इतनी ज़ोर-ज़ोर से कहा-सुनी करके बेचारे बच्चे को डरा दिया।
पिता ने हँसते हुए जवाब में कहा :
— हाँ, हाँ, यह है बड़ा ग़ुस्सैल ! मेरे नन्हे-मुन्ने, ग़ुस्सा तो तेरी नाक पर धरा रहता है !
अपने कमरे में पहुँचने के बाद यूरा ने ज़िद की कि उसके कपड़े भी उसके पापा ही उतारेंगे।
पापा ने कहा :
— ये लो, अब इसके नख़रे शुरू हो गए। बेटा, तुम्हें तो पता है कि मुझे यह काम ठीक से नहीं आता। माँ बदलेगी तुम्हारे कपड़े।
यूरा ने कहा :
— तो आप यहीं बैठिए।
माँ इस काम में बड़ी कुशल थीं। उसने जल्दी से उसके कपड़े बदल दिए। जब वह उसके कपड़े बदल रही थी, वह पूरे समय पापा का हाथ पकड़े रहा। बाद में उसने उन्हें चूमते हुए बड़ी चालाकी से पूछा :
— वो बूढ़े बाबा अब आपको फिर तो नहीं डाटेंगे ?
उसके पिता को यूरा की यह बात बहुत पसंद आई। उन्होंने मुस्कुराकर यूरा को प्यार किया और बोले :
— अरे नहीं - नहीं, बिलकुल नहीं। और यदि अगर कुछ होगा तो मैं उसे उठाकर घर से बाहर फेंक दूँगा।
— हाँ पापा, आप बहुत ताकतवर हैं, ऐसा ही करना।
— अच्छा ! चलो, अब तुम सो जाओ। माँ तुम्हारे पास रहेगी।
इस पर माँ बोली :
— मैं आया को भेज दूँगी। मुझे मेहमानों का खाना-पीना देखना है।
पिता ने नाराज़गी से कहा :
— तुम बच्चे के साथ रहो न ! खाना-पीना तो हो ही जाएगा।
— मेहमानों को ऐसे ही छोड़ देना बुरा लगेगा।
पिता ने ग़ौर से माँ की ओर देखा तो माँ ने अपने कंधे उचकाते हुए कहा :
— ठीक है, मैं यहीं रुक जाती हूँ। आप, बस यह देख लीजिएगा कि नौकरानी वाइन की बोतलें मेज़ पर इधर-उधर न कर दे।
माँ जब यूरा को सुलाती थी तो वह हमेशा उसे गहरी नींद आने तक उसका हाथ अपने हाथ में पकड़े रहती थीं, पर अब वह अपने हाथ घुटनों पर रखे कहीं दूर ताकते हुए ऐसे बैठी थी, जैसे वह कमरे में अकेली हो। उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए यूरा थोड़ा हिला, परन्तु माँ ने बस, इतना कहा :
— सो जा तू।
माँ ऐसे ही कहीं दूर ताकती रही। यूरा की आँखें नींद से बोझिल हो गई थीं। उसे नींद आने ही वाली थी कि माँ अचानक यूरा की ओर झुकी और उसे ज़ोर-ज़ोर से चूमने लगी। उसके होंठ गीले और गरम थे।
यूरा आधी नींद में बुदबुदाया :
— माँ, क्या तुम रो रही हो ?
— हाँ, मैं रो रही हूँ।
— मत रो माँ, मत रो।
— ठीक है, नहीं रोऊँगी।
माँ ने यूरा को फिर से बार-बार चूमा।
उनींदा यूरा फिर उठ बैठा और अपने दोनों हाथ माँ के गले में डालकर उससे चिपक गया। उसका गरम गाल माँ के आँसुओं से भीग गया।
आख़िर वह उसकी माँ है। उसका मन ही जानता है कि उस पर क्या गुज़र रही है !
मूल रूसी भाषा से हिन्दी में अनुवाद : सरोज शर्मा इस कहानी का मूल रूसी नाम है — त्स्वितोक पद नगोयु ( Цветок под ногою)