मसान : बनारस की आंतों में फिल्माई प्रेम-कथा / जयप्रकाश चौकसे

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मसान : बनारस की आंतों में फिल्माई प्रेम-कथा
प्रकाशन तिथि :31 जुलाई 2015


कल शाम इंदौर के एक मल्टीप्लैक्स में फिल्मकार नीरज की 'मसान' फिल्म देखी। कला फिल्म के रूप में प्रचारित अनेक अंतरराष्ट्रीय फिल्मकारों से सराही गई फिल्म के प्रदर्शन के छठे दिन हाॅल लगभग भरा हुआ था और दर्शकों ने अनेक दृश्यों की सराहना वैसी ही की जैसी 'बजरंगी भाईजान' और अन्य सितारा जड़ित फिल्मों में की जाती है। इस तरह की अनेक फिल्मों में पहले तीन दिन में दर्शक कम संख्या में आते हैं और फिर प्रशंसा सुनकर दर्शक संख्या बढ़ जाती है परंतु मल्टीप्लैक्स में मंगलवार तक के आय के आंकड़ों के आधार पर फिल्म को हटाने का निर्णय ले लिया जाता है। वातानुकूलित मल्टी को चलाने का खर्च बहुत अधिक होता है और उनके निर्णय व्यवहारिक होते हैं। इस तरह की फिल्मों को एकल सिनेमाघर में नहीं प्रदर्शित किया जाता है और मल्टी भी इसे एक या दो शो से अधिक नहीं देते। अगर 'मसान' को चार शो प्रतिदिन के हिसाब से अनेक सिनेमाघरों में लगाया जाता तो यह सफल फिल्म सिद्ध होती, क्योंकि पहले क्षण से लेकर अंतिम क्षण तक दर्शक इससे जुड़े रहते हैं। उपरोक्त बातें समालोचना का विषय नहीं है परंतु यह देश और समाज का मुद्‌दा है कि सिनेमा को लेकर लोक‌‌प्रिय भ्रांतियों के कारण कई सार्थक फिल्में अनदेखी रह जाती हैं। अत: अधिकतम की पसंद पर आधारित उद्योग दरअसल लघुतम दर्शक ही देख पा रहे हैं और इस मायने में क्या इसे मायनॉरिटी उद्योग कह सकते हैं। इतना अधिक 'अन्य विषय' पर लिखने का यह कारण भी हो सकता है कि मैं फिल्म पर लिखने से बचना चाहता हूं, क्योंकि मेरी भाषा, लेखन क्षमता का बौनापन इस विराट फिल्म के सामने बहुत शिद्‌रदत से उभरकर आ रहा है। सबसे पहली बात कि जिस बनारस को टेलीविजन पर दिखाया जाता है और नेताओं का चुनावी अखाड़ा है या जिसकी कीर्ति धरमगाथा का हिस्सा बन गई है, वह बनारस 'मसान' में कहीं नजर नहीं आता। 'मसान' में बनारस की अंतड़ियों को दिखाया है।

जन्म की शंख ध्वनी से दूर, भक्ति के महान सोपानों से दूर, मृत्यु के तांडव स्थल की यह कथा जन्म-मृत्यु के अनंत चक्र के भीतर घटित मानवीय प्रेम और करुणा की फिल्म है। मानवीय प्रेम और करुणा ही इस अनंत चक्र पर मनुष्य की विजय है। इसमें तथाकथित व्यावसायिक फिल्मों की तरह संयोग हैं परंतु अटपटे नहीं लगते, क्योंकि उनमें निहित हैं 'दिव्य न्याय' नामक किंवदंती से उत्पन्न 'फील गुड' तत्व। मसलन बस दुर्घटना में मरी एक अनन्य प्रेमिका की अंगूठी जिसे उसका प्रेमी गंगा में फेंक देता है और एक 'दिव्य गोताखोर' बालक उसे उस बामन को देता है जिसे एक हृदयहीन पुलिस वाला ब्लैक मेल कर रहा है गोयाकि हमारी पाषाण-सी व्यवस्था के शोषण का भरन उस अंगूरी से प्राप्त धन से होता है। हमें यह संयोग अच्छा लगता है, क्योंकि उस निर्मम व्यवस्था के प्रति हम हृदय में उमड़ते-घुमड़ते क्रोध का शमन होता है। आजकल हमने अपने आक्रोश के शमन के ऐसे छिछोरे तरीके खोज निकाले हैं जैसे टेलीविजन पर भौंकते, गुर्राते एंकर अब हमें वही संतोष देते हैं, जो कभी सलीम-जावेद का अमिताभ बच्चन देता था।

बहरहाल, फिल्म का प्रारंभ चकबस्त के शेर से होता है जो देर से आए दर्शकों के कारण मैं पढ़ नहीं पाया। चकबस्त की उन अनपढ़ी पंक्तियों की कुछ 'बहनें' इस तरह हैं, मीर- 'जिंदगी क्या है, अनासिर में जहूरे तरकीब, मौत क्या है इन्हीं अजदां का परेंशा होना।' मीर फिर कहते है, 'मौत एक मांडगी का वक्फा है याने आगे चलेंगे दम लेकर।' निदा फाजली, 'जो आता है वो जाता है, ये दुनिया आनी जानी है, यहां हर शह मुसाफिर है, सफर में जिंदगानी है।' इसी तरह 'राहे रौ अदम का कोई मिले तो रोक के उसे पूछेंगे सब जाते हैं आंखे बंद किए' गोयाकि मसान भरोसेमंद है। इन शेरों से कृपया यह अनुमान नहीं लगाएं कि 'मसान' निराशावादी है। मसान नामक प्याज के सारे छिलके उतारो तो वह विशुद्ध प्रेम-कथा है और अंतिम दृश्य में प्रेम के नैराश्य में डूबते दो पात्र इलाहाबाद में एक नाव में बैठकर संगम दर्शन को जा रहे हैं और संवाद है, 'कहते हैं संगम दो बार जाना चाहिए, एक बार अकेले, दूसरी बार किसी के साथ।' उन पात्रों क मिलन का संकेत है। नायिका का आत्महत्या कर लेने वाले अपने प्रेमी के घर उसके माता-पिता से मिलने जाना और उसके द्वारा प्रताड़ित होना इस भावना प्रधान कथा का शिखर है। यह प्रेम कथा उन सब संस्थाओं का विरोध करती है जो मनुष्य के प्रेम में बाधाएं उत्पन्न करती हैं। अत: यह युवा हृदय के प्रेम, डर संशय और निर्णय की कथा है। दुष्यंत कुमार का एक गीत तो है परंतु अनगिनत शवों अग्निदाह के समय दुष्यंत की इन पंक्तियों का इस्तेमाल भी हो सकता था 'वह देखो उस तरफ उजाला है, जिस तरफ रोशनी नहीं जाती' मैंने अपनी 'शायद' में इन्हें इस्तेमाल किया था - ऐसे ही एक दृश्य में।