मसाला फिल्मों में नैतिकता का खूंटा / जयप्रकाश चौकसे

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मसाला फिल्मों में नैतिकता का खूंटा
प्रकाशन तिथि :09 जनवरी 2015


हिन्दुस्तानी सिनेमा की मुख्यधारा की मसाला फिल्में, नाच, गाने आैर मारधाड़ की फिल्में, अखिल भारतीय इस मायने में हैं कि सभी प्रांतों के अधिकतम दर्शकों की यह पहली पसंद है। पहले विदेशी दर्शक इसकी तर्कहीनता आैर गीत-संगीत की अधिकता के कारण नापसंद करते थे। परंतु अब इसकी सिनेमाई ऊर्जा के तो वो भी कायल हो गए हैं तथा 'शिकागो' जैसी फिल्म के निर्देशक ने भारतीय मसाला फिल्म प्रभाव को स्वीकार किया है। इतना ही नहीं संजय लीला भंसाली की 'देवदास' में रंग आैर नृत्य की आरजी देखकर उन्हें पेरिस एक ऑपेरा के निर्देशन के लिए निमंत्रित भी किया था। परंतु वहां उन्होंने यूरोप के दर्शक की रुचि के आधार पर अपनी शैली में मिलावट की तो प्रयाेग असफल रहा। हमारे सर्जक जाने क्यों अपनी विशुद्ध भारतीयता छोड़कर विदेशियों को खुश करना चाहते हैं। यही बात हमारे अंग्रेजी में उपन्यास रचने वालों के साथ होती है परंतु अमितव घोष अपनी इतिहास दृष्टि आैर निष्ठा पर कायम है। इन मसाला फिल्मों की भीतरी बुनावट की प्रेरणा भारतीय दर्शकों के सामूहिक अवचेतन के अनुरूप की जाती है। इन मसाला फिल्मों का नायक नैतिकता के खूंटे से बंधा प्राणी है जैसे जानवर को खूंटे से बांधते हैं आैर वह रस्सी की लंबाई तक घूमने के लिए स्वतंत्र है। निदा फाजली का ख्याल है कि मनुष्य भी इसी तरह व्यवस्था के खूंटे में बंधा है, 'जंजीरों की लंबाई तक तेरा सारा सैर सपाटा है'। प्राय: सुपरमैन नायक फिल्मों में भी नैतिकता का खूंटा है, सुपरमैन सत्य प्रेम के लिए लड़ता है। अमेरिकन सुपरमैन कभी-कभी अनैतिक भी हुआ है जो निक्सन के वाटरगेट काल खंड का नतीजा है।

बहरहाल बोनी कपूर की पहली बार निर्देशित कर रहे अमित शर्मा की अर्जुन कपूर-सोनाक्षी अभिनीत तेवर विशुद्ध मसाला फिल्म है आैर यह उन विरल मसाला फिल्मों में एक है जिसमें अनेक दृश्य लगभग कविता की तरह सार्थक आैर सुंदर है। प्राय: मसाला फिल्में भाषा की तरह ग्रामर, गद्य आैर पद्य की तरह होती है परंतु मसाले का ग्रामर उसके पद पर भारी पड़ने लगता है। 'तेवर' में अमित शर्मा ने कविता पक्ष पर यथेष्ठ ध्यान दिया है आैर सिनेमाई लिरिसिज्म के अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। मसलन दोनों के डर से भाग रहे हैं आैर पार्श्व में अत्यंत मधुर गीत 'जोगिया' बज रहा आैर लुका-छुप्पी के दृश्यों में नायिका की आंखों में इस अजनबी सूरमा के प्रति प्यार जाग रहा है आैर वह मन ही मन अमेरिका जाने का विचार छोड़ रही है गोयाकि इस प्रेम में देश का प्रेम भी शामिल है। वह गुंडागर्दी के भय से अमेरिका जाना चाहती थी प्रेम के प्रकाश में उस भय का हव्वा भी मिट गया। आज समाज में अदृश्य भय की सर्वव्यापी चादर फैली है। गांधीजी का पहला की सर्वव्यापी चादर फैली है। गांधीजी का पहला संदेश ही था कि भय से मुक्त होने पर स्वतंत्रता मिलेगी।

तेवर की सबसे बड़ी भावना की विजय भी इसी नैतिकता के खूंटे से बंधी है। पुलिस अफसर पिता अपने पुत्र की आवारागर्दी से दु:खी रहता है परंतु क्लाइमैक्स में जब वह जान लेता है कि इस प्रकरण में उसका पुत्र उसी नैतिकता के खूंटे से बंधा है जिससे वह स्वयं बंधा है, उसकी वर्दी की जंजीर उसे भ्रष्ट मंत्री को मारने नहीं देती परंतु अब उसका आवारा पुत्र सत्य आैर प्रेम के लिए लड़ रहा है तो वह आश्वस्त होकर कहता है शाम तक लौट आना। पुलिस अफसर राज बब्बर की आंखों में सत्य की राह पर चलने वाले पुत्र के लिए आशीर्वाद पढ़ा जा सकता है। इस तरह के रिश्ते आैर उनके द्वन्द की भारतीय मसाला फिल्मों की रीढ़ है आैर यही सब सामूहिक अवचेतन में भी है। दर्शक इस कदर अफसाना प्रेमी है कि फिल्मों में नायक के अन्याय से लड़ने आैर जीतने को अपनी व्यक्तिगत विजय मानकर यथार्थ के खलनायकों के खिलाफ लड़ता ही नहीं है। वह सिनेमाई भाव विरेचन से इतना संतुष्ट है कि यथार्थ में उसे अपने खलनायक के सांभा बनने का भी अहसास नहीं होता। प्रीतिश नंदी ने लिखा था कि सातवें दशक में अमिताभ बच्चन की आक्रोश छवि का विकल्प अब अरनव हो गया है गोयाकि बड़े परदे से छोटे परदे पर सिमट आया है, हमारा आक्रोश।

बहरहाल 'तेवर' में अर्जुन कपूर अपनी सतह से ऊपर उठ कर खान बिरादरी के किले में सेंध मारते हैं तो सोनाक्षी सिन्हा अब उस सतह की आेर अग्रसर हैं जहां नरगिस आैर नूतन खड़े हैं परंतु उन दोनों को जो निर्देशक मिले इस बेचारी को कहां से नसीब होंगे। राजबब्बर आैर मनोज के साथ हर कलाकार ने यहां तक कि नायक के सांभआें ने भी विश्वसनीय अभिनय किया है। साजिद-वाजिद को मध्यांतर के बाद के तीनों गानों के लिए सलाम। पहले दो गानों में रिदम तथा सलमानिया संगीत है तो मध्यांतर के बाद के गीत तो राजकपूर को भी खुश कर देते