मसिजीवी / सुकेश साहनी
"तो तुमने क्या फैसला किया?"
"पिता जी, मैं पत्रिका के दफ्तर में ही नौकरी करना चाहता हूँ।"
"फिर हमारे इस कारोबार का क्या होगा?"
"इसे आपने बहुत ही अच्छी तरह सँभाला हुआ है," वह झिझकते हुए बोला, "मदद के लिए किसी को नौकरी पर रख लीजिए."
"वाह बेटा!" वे गुस्से में बोले, "उस दो टके की नौकरी के लिए तुम्हें हमारा दिल दुखाते शर्म नहीं आती?"
"पिता जी," उसने कहा, " आपने पढ़ा-लिखाकर मुझे इस काबिल बना दिया है कि अपने देश और समाज के लिए कुछ कर सकूँ, मेरे काम की सर्वत्र चर्चा है। आपको तो खुश होना चाहिए! '
"मैंने इन कलम घिसने वालों को सदा भूखों मरते देखा है। तुम्हारा वह मुंशी लेखक प्रेमचन्द...सुना है अंतिम दिनों में उसे खाने के भी लाले पड़े थे," वे चिढ़कर बोले, "अपने बूते पर जितना तुम कमाते हो, उतना तो हम अपने एक नौकर को दे देते हैं। ऐसे काम का क्या फायदा? मैंने तुम्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ी भारी गलती की!"
"किसी बड़े मकसद के लिए कष्ट तो उठाना ही पड़ता है।"
"तुम्हारा तो दिमाग़ फिर गया है," तुम्हें इस तरह समझाना बेकार है। "
वह दुखी मन से बाहर आ गया। वह जानता था कि उसके साफ-साफ मना कर देने के बावजूद पिता जी चुप नहीं बैठेंगे। वे उसके रास्ते में जितनी रुकावटें खड़ी कर सकेंगे, करेंगे ताकि वह उनका पुश्तैनी लेन-देन का कारोबार सँभाल ले। एक बार पहले भी उनके कारण उसे बहुत प्रतिष्ठित पत्रिका की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
वह अहाते में खड़े बूढ़े बरगद के नीचे बैठ गया। बचपन की अनेक यादें उसकी आँखों के आगे तैरने लगीं। इसी वट की शीतल छाया में हँसते-खेलते उसका बचपन कैसे बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। उसे नहीं याद पिता जी ने कभी उसकी पढ़ाई-लिखाई में ज़रा भी रुचि ली हो।
कोठी के पुराने लठैत लखन की पत्नी वट की पूजा कर रही है। घर के दूसरे नौकर-चाकर भी पिता जी की दबंगई से सहमे रहते हैं।
उसकी नजर वट से लटकती जड़ों पर स्थिर हो गई, जो अपनी ही छाया में बने मजबूत चबूतरे को नुकसान पहुँचा रही थीं।