मसीहा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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दाढ़ी के बाल बेतरतीब। सिर पर ढीली-ढाली पगड़ी–बदरंग और चीकट। जिलेसिंह अपने इस हुलिए से भरी–भीड़ में पहचाना जा सकता था। दिन भर साइकिलों की मरम्मत करता रहता। राह चलते लोग भी उसे झल्ला कहकर ठिठोली करते। उत्तर में वह फिक् से हँस देता। खाड़कुओं द्वारा सरपंच दयाराम की हत्या के बाद से वह अचानक चुप हो गया है, लेकिन उसकी चुप्पी को कोई गम्भीरता से नहीं लेता।
रात के दस बजे. उसके पड़ोसी सतपाल के दरवाज़े पर दस्तक हुई.
सतपाल इसे झल्लेसिंह कहकर बुलाता था। जिलेसिंह पगड़ी सँभालते हुए बाहर आया। दो राइफलधारी सतपाल के दरवाज़े के सामने खड़े थे। जिलेसिंह ने टोका–" तुम यहाँ क्या कर रहे? यहाँ से जाओ.
"ओए खोत्ते दे पुत्तर, भग जा। नहीं तो पण्डत को मारणे वाली गोली तेरे भीतर उतार देणी है।" यह बात सुनकर सतपाल का तो खून ही सूख गया।
एक ने दरवाज़े पर लात मारी-"अबे दरवज्जा खोल।"
जिलेसिंह चीते जैसी फुर्ती से उसके सामने आ गया-"दरवज्जा नहीं खुलेगा।"
"लै मुर्गी दे बच्चे—।" दूसरे ने दनादन गोलियाँ बरसा दीं। एक भयानक चीख के साथ जिलेसिंह सतपाल के दरवाज़े के सामने ढेर हो गया हत्यारे स्कूटर पर बैठकर फरार हो गए.
सतपाल बाहर आया। उसकी आँखें विस्फारित रह गई–झल्ले——तू। "