महंगाई की दौड़ में शामिल आलू / जयप्रकाश चौकसे

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महंगाई की दौड़ में शामिल आलू
प्रकाशन तिथि : 20 दिसम्बर 2019


महंगाई की दौड़ में प्याज का पीछा करते हुए आलू प्रथम स्थान पर पहुंचने के लिए जी-जान से लगा है। दालों में भी बेचैनी है और दौड़ में शामिल हो गई हैं। व्यवस्था व्यापारियों द्वारा दिए गए चुनावी चंदे का शुकराना अदा कर रही हैं। यह क्या कम है कि शुकराना अदा करने के नाम पर ही सही व्यवस्था में हरकत दिखाई पड़ रही है। वरन् उसे मृत देह के समान स्पंदनहीन मान लिया जाता।

शांताराम की सर्वकालिक महान फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' में कैदियों को सुधारने की कथा है। कैदी अपने परिश्रम से उगाई सब्जियां बेचने शहर की मंडी में आते हैं। उनकी सब्जियां ताजी और सस्ती हैं। लोभी व्यापारी सन्न रह जाते हैं। अगले दिन व्यापारी वर्ग किराए के गुंडों से मेहनतकश कैदियों को पिटवा देता है। अहिंसा की शपथ से बंधे कैदी अपनी हड्डियां तुड़वाकर वापस आ जाते हैं। कैदियों का खेत उजाड़ने के लिए एक पागल सांड खेत में छोड़ दिया जाता है और नायक उसे काबू में लाने के प्रयास में गंभीर रूप से घायल हो जाता है। पागल सांड भी हिंसा का प्रतीक है और अहिंसा का भक्त उसे काबू में लाता हुआ घायल हो जाता है। अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है। आज भी महात्मा गांधी प्रासंगिक हैं। उनके द्वारा बताए गए हड़ताल के रास्ते पर छात्र निकल पड़े हैं।

एक दौर था जब सब्जी वाला धनिया मुफ्त में देता था। आज धनिए की कीमत चुकानी पड़ रही है। हालात कुछ ऐसे हो रहे हैं कि मुफ्त में सलाह भी नहीं मिलेगी। आज फिल्मकार आई एस जौहर जीवित होते तो वे अपनी फिल्म में 'सलाह की दुकान' का दृश्य रखते। दो सलाह की कीमत अदा करने पर तीसरी सलाह मुफ्त में दी जाती और हास्य सुपर सितारे जॉनी वॉकर उसकी दुकान पर जाकर कहते कि पहले मुफ्त वाली तीसरी सलाह दे दें।

फिल्म उद्योग में कामगारों के अनेक संगठन हैं। सितारा सचिवों का भी संगठन है। सारे संगठनों के दो-दो प्रतिनिधि एक महासंगठन में भेजे जाते हैं। अब सलीम खान इस महासंगठन के मार्गदर्शक बने हैं और शायद वे महंगाई से जूझते वर्ग को रास्ता दिखाएं और राहत प्रदान करें।

कुछ फिल्मों में इस तरह के दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं कि किसी जलसे में शरीक सितारों के कार ड्राइवर मिल-बैठकर अपने अनुभव सुनाते हैं। उनका एक साथी दावत से शराब की कुछ बोतलें ले आता है। सितारों के परिवार को अपने कमाऊ लाड़ले की जो बातें नहीं मालूम, वे जानकारियां इन ड्राइवरों के पास होती हैं। महानगर की बहुमंजिलों के अाहाते में सब्जी और फल बेचने आने वाला व्यक्ति धनाढ्य महिलाओं को सामान बेचता है। अपना काम पूरा करके सिर पर टोकरा उठाए वह व्यक्ति कंपाउंड से बाहर निकलता है। कुछ दूरी पर खड़ी अपनी मर्सिडीज कार में बैठता है। कार में ही कपड़े बदलता है। उसने अपने धनाढ्य ग्राहकों से खूब धन कमाया है। गरीब होने का स्वांग उसके लिए आवश्यक है।

इरफान खान अभिनीत फिल्म 'इंग्लिश मीडियम' में एक अमीर दंपति गरीबों की बस्ती में जा बसते हैं। उन्हें साधनहीन वर्ग के कोटे से अपने बच्चे का दाखिला कराना है। एक दृश्य में जांच करने वाला अधिकारी आता है। वह उनके कमरे में 300 रुपए के पिज्जा का खाली डिब्बा देखता है। इरफान का एक साथी कहता है कि इनका अभी-अभी दिवाला निकला है। यह नए-नए गरीब हैं। उनके पक्ष में बोलने वाला व्यक्ति कहता है कि वह स्वयं खानदानी गरीब है, उसकी सात पुश्तें भी गरीब थीं। गरीबी हमारे यहां शाश्वत है। गरीबी हटाने के प्रयास का ढोंग करते हुए नेता चुनाव जीतते हैं। व्यापारी अमीर होता जाता है। कुछ राजनीतिक विद्वानों का मत है कि गरीबी मिटाने का श्रेष्ठ साधन गरीबों को ही मिटा देना है। यह प्रयास भी सदियों से जारी है, परंतु गरीब बड़ा मजबूत और ढीठ है। वह अपनी जमीन छोड़ता ही नहीं।