महाकवि जयशंकर प्रसाद / शिवपूजन सहाय

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बनारस चौक की कोतवाली के पीदे मस्जिद के सामने नरियरी बाजार में ‘प्रसाद’ जी की लगभग सवा सौ वर्ष की पुश्तैनी दूकान जर्दा-सुरती की है। उनके सामने के तख्ते पर सफेदा बिछवाकर वे प्रायः नित्य सन्ध्योपरान्त रात्रि में बैठते थे। उसी पर एक कोने में पानवाला भी अपनी चंगेली लिये बैठता था। उसके बीड़े और दूकान के जाफ रानी जर्दे का दौर लगभग दस-ग्यारह बजे रात तक चलता रहता था। हिन्दी-साहित्य के बड़े-बड़े धुरन्धर महारथी वहीं आकर उनसे काव्यशास्त्रा-विनोदेन समय-यापन करते थे। हिन्दी-संसार के सुप्रसिद्ध कलाविद् रायकृष्णदासजी, श्रीप्रेमचन्द, महाकवि रत्नाकर, प्राध्यापक लाला भगवानदीन, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि महानुभाव वहाँ प्रायः आसन ग्रहण करके साहित्य की शास्त्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और भाव-विनिमय करते थे। राय साहब प्राचीन भारतीय शिल्पकला और मूर्तिकला पर, लाला भगवानदीन शब्दों की व्युत्पत्ति और निरक्ति पर, रत्नाकरजी ब्रजभाषा-साहित्य की बारीकियों पर, आचार्य शुक्लजी संस्कृत-साहित्य की विविध प्रवृत्तियों पर तथा प्रेमचन्दजी कथा-साहित्य के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर जब बातें करने लगते थे तब ‘प्रसाद’ जी की सरस्वती का मुखर होना देखकर चकित रह जाना पड़ता था।

वैदिक ऋचाएं और उपनिषदों के लच्छेदार वाक्य तो उन्हें कण्ठस्थ थे ही, संस्कृत-महाकवियों ने किस शब्द का कहाँ किस अर्थ में कैसा चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया है, इसको भी वे सोदाहरण उपस्थित करते चलते थे। शालिहोत्रा और आयुर्वेद-शास्त्रों के महत्त्वपूर्ण प्रकरणों पर उनके प्रवचन सुनने से उनके विस्तृत ज्ञान पर आश्चर्य होता था। हाथी, घोड़ा, गाय आदि के लक्षणों की परख और उनके स्वामियों पर उनके शुभाशुभ लक्षणों के अनिवार्य प्रभाव का वर्णन उनसे सुनने पर एक अत्यन्त रोचक और विस्मयकारी प्रसंग उपस्थित हो जाता था। इसी प्रकार हीरा, मोती, मूंगा आदि रत्नों के गुण-दोषों के प्रभाव का वर्णन भी शास्त्रीय प्रमाणों के साथ करते थे। एतद्विषयक ग्रन्थों के मौखिक उद्धरण सुनकर उनकी स्मरण-शक्ति की प्रखरता पर बड़ा कुतूहल होता था।

‘प्रसाद’ जी हलवाई-वैश्य थे। अपने हाथों से बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बनाते थे। भोज आदि में यदि एक सौ अतिथियों को भोजन कराना है तो बादाम और पिस्ते की बर्फी बनवाने में कितना मेवा और मावा लगेगा, कितनी चीनी और केसर-इलायची पड़ेगी, इसका चिट्ठा भी तैयार करा देते थे और जबानी ही बोलकर लिखवाते थे। इसी तरह और-और मिठाइयों के सामान की मिकदार बतला देते थे। भोटानी सौदागर जब शिलाजीत, पहाड़ी शहद, कस्तूरी आदि बेचने आते थे तब उनकी चीजों की परीक्षा करने में अद्भुत कौशल का परिचय देते थे। भंग-बूटी तो स्वयं बहुत अच्छी बनाते और मित्रों को पिलाते थे। अपने घरेलू व्यवसाय के लिए जर्दा, किमाम, इत्र आदि भी अपनी देख-रेख में बनवाते थे। अधिकतर देशी रजवाड़े और जमींदार रईस ही उनके बंधे ग्राहक थे। किमाम और इत्र के तैयार होने पर छोटी-सी शीशी में अन्तरंगी मित्रों को प्रेमोपहार भी दिया करते थे। जाड़े में जो मुश्क अम्बर (कस्तूरी का इत्र) बनाते थे वह लिहाफ में लगने पर पूस-माघ के जाड़े में भी पसीना पैदा करके अपना कमाल दिखाता था। उत्तम श्रेणी का किमाम भी वैसा ही जौहर दिखाता था। बीड़े पर सींक से उसकी लकीर खींच देने से जाड़े की रात में भी ललाट पर पसीना आ जाता था और गरम पोशाक उतार देनी पड़ती थी। काष्ठोषधियों और जड़ी-बूटियों के गुणों को बखानते समय वैद्यक ग्रन्थों के श्लोक कहने लगते थे तो वैद्यराज ही प्रतीत होते थे।

बनारस के पुराने रईसों, पण्डितों, नर्तकों, लावनीबाजों, गुण्डों, गायिकाओं और फक्कड़ों की बाहुत-सी अद्भुत कहानियां सुनाया करते थे, जो मनोरंजक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी होती थीं और जिनसे पता चलता था कि उस अतीत युग के गुणी और कलावन्त कितने उदार तथा निष्ठावान होते थे। रईसों की गरीबनिवाजी, पण्डितों का स्वाभिमान, नर्तकों की नृत्य-निपुणता, लावनीबाजों की रचना-चातुरी, गुण्डों का निर्बलों की सहायता में सहयोग, गायिकाओं का मर्यादा-पालन और फक्कड़ों की गरीबपरवरी उनसे सुनकर उस युग का दृश्य मनश्चक्षुओं के सामने आ जाता था। मासिक ‘हंस’ का जो ‘काशी-अंक’ निकला था उसमें उनके लिखवाये हुए कई ऐसे लेख छपे थे। उनके अभिन्न मित्रों में भारत कला-भवन के जन्मदाता श्रीरायकृष्ण दासजी के पास भी पुराने संस्मरणों का खजाना था, परन्तु राय साहब से लेकर उसे साहित्य-भण्डार में संचित करनेवाला कोई नहीं।

मैं जब ‘हिमालय’ का सम्पादक था तब मैंने राय साहब से ‘प्रसाद’ जी के सम्बन्ध में संस्मरणात्मक लेखमाला लिखवाई थी, पर सम्पादन-कार्य से मेरे विरत होने के बाद यह लेखमाला अधूरी रह गई। ‘प्रसाद’-सम्बन्धी संस्मरण लिखने के एकमात्र अधिकारी राय साहब ही थे। हिन्दी-संसार को उनसे यह साहित्यिक धरोहर ले लेनी चाहिए थी।

‘प्रसाद’ जी अपनी जवानी में कुश्ती भी लड़ चुके थे। उनका कसरती शरीर बड़ा गठीला था। उन्होंने मल्ल-विद्या का भी अध्ययन किया था। पहलवानों के अजीब किस्से तो सुनाते ही थे, दांव-पेंच के बहुतेरे नाम भी उन्हें याद थे। कई व्यापार-क्षेत्रों के दलालों की बोली में कैसे-कैसे विचित्रा अर्थबोधक शब्दश् हैं और उनका रूप कितनी सावधानी से गढ़ा गया है, यह भी वह बतलाते थे। सुनारों और मल्लाहों की बोली के रहस्य भी वे जानते थे। खेद है कि उस समय उनकी बातचीत का महत्त्व ध्यान में नहीं आया। विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन की दिनचर्या लिखते चलने का काम साहित्य की समृद्धि के लिए किया जाना चाहिए। यदि ‘प्रसाद’ जी की बातें उस समय टांक ली गई गई होतीं तो आज वे साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति समझी जातीं। किन्तु उनके जीवनकाल मे ही उनका उत्कर्ष बहुतों को असह्य हो गया था। उनकी रचनाओं की कटु-से-कटु आलोचना होती रही, पर उन्होंने कभी उस पर ध्यान न दिया। वे स्वान्तःसुखाय लिखते थे, अर्थ या यश की कामना से नहीं।

इस निर्मम संसार ने जीते-जी न प्रेमचन्द को परखा, न ‘प्रसाद’ को और न ‘निराला’ को ही। जब ये संसार ने जीते-जी न प्रेमचन्द को परखा, न ‘प्रसाद’ को और न ‘निराला’ को ही। जब ये संसार से चले गये तब इनके गुणगान के साथ यह भी अनुभूत होने लगा कि साहित्य-क्षेत्र में ये अमोघ मेधाशक्ति लेकर आये थे। ‘प्रसाद’ जी की जो अवज्ञा और उपेक्षा हुई वह किसी से छिपी नहीं है। पर हिन्दी को ‘प्रसाद’ जी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि के रूप में जो निधि दे गये उसका मूल्यांकन करके आज गौरव का अनुभव किया जा रहा है। जगत् की यही परम्परागत रीति जान पड़ती है कि वह युग की विभूति को उसके विलीन हो जाने के बाद ही पहचानता है।

‘प्रसाद’ जी कभी किसी कवि-सम्मेलन में नहीं जाते थे। मित्र-गोष्ठी में सस्वर कविता-पाठ करते थे। गंगा में बजड़े पर मित्र-मण्डली को बड़ी उमंग से गाकर अनेक कविताएं सुनाते थे, पर सार्वजनिक सभाओं में कभी नहीं। गोरखपुर में अखिल भारतीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का अधिवेशन ‘प्रताप’-सम्पादक श्रीगणेशशंकर विद्यार्थी के सभापतित्व में हुआ था। वहाँ के कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए ‘प्रसाद’ जी के पास तार आया। तार में सभापति विद्यार्थीजी और राजर्षिक टण्डनजी के नाम अंकित थे। उसे पाते ही अन्यमनस्कता से उसको अलग रखकर बातें करने लगे। उनके परम स्नेहभाजन और हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार पण्डित विनोदशंकर व्यास वहीं बैठे थे। व्यासजी ने उनसे बड़ा आग्रह किया कि स्वीकृति-सूचना भेजकर अवश्य गोरखपुर चलिए, हम लोग साथ चलेंगे। पर वे हँसकर टाल गये। किन्तु काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा के कोशोत्सव-स्मारक के अवसर पर जीवन में केवल एक बार ही उनको सार्वजनिक समारोह में कविता-गान करना पड़ा था। हिन्दी शब्द-सागर के सम्पादकों का सम्मान करने का जो आयोजन हुआ था और उसके साथ जो कवि-सम्मेलन हुआ उसके अध्यक्ष थे प्रसादजी के साहित्य-गुरु महामहोपाध्याय देवीप्रसाद शुक्ल कविचक्रवर्ती। आचार्य श्यामसुन्दरजी के आग्रह पर भी जब ‘प्रसाद’ जी कविता-पाठ करने को तैयार न हुए तब उनके गुरु के अध्यक्ष-पद से आदेशानुसार उन्हें कविता-गान करना पड़ा। उनके ललित-मधुर कण्ठ-स्वर से सारी सभा मन्त्रामुग्ध हो रही। अपनी कविता गाते समय वे स्वयं भी भाव-विभोर हो जाते थे।

उस समय काशी में हिन्दी-साहित्य के धुरन्धर महारथियों का बड़ा अच्छा जमघट था। सबके साथ उनका सद्भावपूर्ण सम्बन्ध था। एक बार प्रेमचन्दजी ने अपने ‘हंस’ में उनके ऐतिहासिक नाटकों पर सम्पादकीय मत प्रकट करते हुए लिख दिया था कि ‘प्रसाद’ जी प्राचीन इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ा करते हैं। किन्तु जिस समय यह मत प्रकाशित हुआ उस समय भी प्रेमचन्दजी सदा की भांति ‘प्रसाद’ जी के साथ बैठकर निर्विकार चित्त से साहित्यिक संलाप करते रहे। दोनों महारथियों में कभी किसी प्रकार का मनोमालिन्य अथवा वैमनस्य नहीं हुआ। उनकी तीव्र आलोचना करनेवाले सज्जन भी उनके पास पहुंचकर यथोचित आदर-मान ही पाते थे। किसी के प्रति उनके मन में कोई रागद्वेष न था। उनकी अभ्यर्थना करने के लिए कई संस्थाओं से अनुरोध होते रह गये, पर वे सम्मानित होने के लिए कभी कहीं काशी से बाहर नहीं गये। एकान्त भाव से साहित्य-समाराधन में संलग्न रहकर ही सारा जीवन बिता दिया।

‘प्रसाद’ जी छायावाद और रहस्यवाद के युग में उत्पन्न हुए थे। खड़ीबोली हिन्दी में ही कविता करते थे। किन्तु प्राचीन ब्रजभाषा-काव्य के भी मर्मज्ञ थे। पुरानी कविताएं काफी कण्ठस्थ थीं। ब्रजभाषा-साहित्य के बड़े अनुरागी और प्रशंसक थे। काशी में होली के बाद ‘बुढ़वा मंगल’ का महोत्सव गंगा की मध्य धरा में हुआ करता था। चैत की चटकीली चांदनी में प्रशस्त बजड़ों पर सजीले शामियानों में नृत्य-गान का दर्शनीय आयोजन होता था। उन सुसज्जित बजड़ों के चारों ओर दर्शकों और श्रोताओं की नौकाएं रातभर डटी रहती थीं। ‘प्रसाद’ जी की नाव पर उनके साहित्यिक बन्धु भी संगीत का आनन्द लूटते थे। काशी की सुप्रसिद्ध गायिकाएं सूर और तुलसी के विनय-पद जब गाने लगती थीं, ‘प्रसाद’ जी भाव-विह्वल हो उठते थे। एक दिन काशी-नरेश के बजड़े पर विद्याधरी ने जब सूर का एक पद ‘अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल’ गाया तब ‘प्रसाद’ जी के सजल नेत्रों से अनवरत अश्रुधारा प्रवाहित हो चली।

उनके घर पर दरवाले के सामने ही जो शिव-मन्दिर है उसमें फाल्गुनी महाशिवरात्रि को महोत्सव हुआ करता था। उनके परिवार की यह पुरानी परम्परा थी। उसमें अधिकतर साहित्य-सेवियों का ही समागम होता था। उस गान-वाद्य के समारोह मेें भी काशी की कोई सर्वश्रेष्ठ गायिका केवल शास्त्राीय संगीत सुनाने आती थी। नृत्य नहीं होता था, पर गेय पद शुद्ध साहित्यिक आनन्द देनेवाले ही होते थे। बड़े शान्त भाव से और बड़ी शिष्टता के साथ वह उत्सव सम्पन्न होता था। इसी प्रकार अपने वंश की मर्यादा का निर्वाह वे प्रत्येक पर्व पर करते थे। श्रावणी-पूर्णिमा (रक्षाबन्धन) के दिन चांदी ओर ताम्बे के सब तरह के बड़े-छोटे सिक्कों की राशि अपने आगे लेकर बैठते थे। अधिकांश ब्राह्मणों की दक्षिणा बंधी-बंधाई थी, जिन्हें पूर्ववत् अपना अंश मिल जाता था। होली, दीवाली, दशहरा सब त्योहारों में उनके परिवार की पुरानी प्रथा का पालन विधिवत् होता था। उनका घराना काशी में बहुत प्रतिष्ठित माना जाता रहा और उससे लाभान्वित होनेवाले लोग उसे दरबार की संज्ञा देते थे। ‘प्रसाद’ जी को देखते ही अनेक काशी-निवासी ‘हर-हर महादेव’ मात्र कहकर उन्हें करबद्ध प्रणाम करते थे। यह प्रतिष्ठा बनारस में केवल काशी-नरेश को ही प्राप्त है। किन्तु बड़े राग-रंगवाले धनी घराने में पैदा होकर भी अपने निष्कलंक चरित्र के प्रभाव से ही वह इस प्रतिष्ठा के आजीवन अधिकारी बने रहे।

‘प्रसाद’ जी संस्कृत-साहित्य के स्वाध्याय के अतिरिक्त अँगरेजी-साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों का भी अनुशीलन करते रहते थे। नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में उनके जो शोध-प्रधान ऐतिहासिक निबन्ध प्रकाशित हुए थे उन्हें पढ़कर स्वनामधन्य इतिहासज्ञ विद्वान डॉक्टर काशीप्रसाद जायसवाल ने श्रीरायकृष्णदास के घर पर उनका हार्दिक अभिनन्दन किया था।

‘प्रसाद’ जी महान् साहित्यकार के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ थे। उनकी स्मृति-शक्ति विलक्षण थी। उनमें स्वजातीय गुण भी पर्याप्त मात्रा में था। वे अनेक कलाओं के मर्मज्ञ थे। काशी की विशेषताओं के भी विशेषज्ञ थे। विभिन्न व्यवसायों की पारिभाषिक शब्दावली का भण्डार उनके पास भरपूर था। वैदिक वाङ्मय और प्राचीन इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। संस्कृत-साहित्य के प्रमुख अंगों का अध्ययन-मनन करने में तो वे निरन्तर तत्पर रहते ही थे, कई भारतीय शास्त्रों में भी उनकी बड़ी गहन गति थी। अपने पैतृक व्यापार में वे पूरे दक्ष थे। विद्याव्यसनी ऐसे थे कि जब सारा संसार निद्रा-निमग्न हो जाता था तब उनको स्वाध्याय में तन्मय होने का अवकाश मिलता था।