महाकवि मुहफट / रवीन्द्र प्रभात
कौन कहता है, कि अब नहीं रही लखनवी नफ़ासत। अवध से भले ही चली गयी है नवाबों की नवाबी, मगर यहाँ के ज़र्रे - ज़र्रे में वही हाजिर- जवाबी, वही अदब, वही नजाकत, वही तमद्दुन, वही जुस्तजू, वही तहजीब.....सब कुछ तो वही है जनाब, सिर्फ देखने का नजरिया बदल गया है। लोग कहते हैं कि एक नवाब हुये थे अवध में, नाम था वाजिद अली शाह। अँग्रेज़ों ने महल को चारों तरफ से घेर लिया। नवाब साहब के पास वक़्त था कि वह बच कर निकल सकते थे, ठहरे नवाब, कोई जूता पहनाने वाला नही था, सो वो गिरफ्तार हो गए।
भाई नवाबी तो चली गयी, लेकिन नहीं गया इस शहर के मिज़ाज से नवाबी शायरी का जुनून। शाम ढलते ही सुनाई देने लगेगी आवाज़ – अमा यार, अर्ज़ किया है, क्या खूब कहा जनाब, वाह -वाह, क्या बात है, इरशाद....... आदि-आदि।सभी नवाबी शायर एक से बढ़ कर एक, कोई किसी से कम नहीं, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां शुभानाल्लाह, उसी प्रकार जैसेराजस्थान में एक कहावत है, कि अंधों बाँटे रेबडी लाड़े पाडो खाए।
ऐसे ही एक नवाबी शायर हमारे भी मोहल्ले में हैं, नाम है मुंहफट लखनवी। कुछ लोग महाकवि दिलफेंक तो कुछ लोग हंसमुख भाई कह कर पुकारते हैं। बहुत बड़े शायर, ऐसे शायर जिनकी अमूमन हर बसंत पंचमी को एक किताब उनके खुद के कर कमलों से ज़रूर प्रकाशित होती है। उसके कवि, आलोचक, प्रकाशक, विमोचक वे खुद होते हैं। कभी रेडियो, टेलीविज़न पर शायरी नहीं की और ना कभी अखबारों में भेजने का दुस्साहस ही किया। कहते हैं मुंहफट साहब - जनाब, ऐसा करने से एक बड़े शायर की तौहीन होती है। हम छोटे-मोटे शायर थोड़े ही हैं, जो मग्ज़ीन में छपने जाएँ।
हमारे मुंहफट साहब की उम्र होगी तकरीबन साठ साल, मगर जवानी वही कि जिसे देखकर मचल जाये युवतियों का मन सावन में अचानक। आप माने या न माने, मगर यह सौ फ़ीसदी सच है जनाब कि हमारे मोहल्ले कि शान हैं मुंहफट साहब, कुछ लोग कहते है इस शहर की नायाब चीजों में से एक हैं हमारे महाकवि। इस मोहल्ले में आकर जिसने भी महाकवि के दर्शन नहीं किये, उनकी नवरस के रसास्वादन नहीं किये तो समझो जीवन सफल नही हुआ।
मैं भी नया-नया आया था लखनऊ शहर में, मेरे एक पड़ोसी मित्र ने बताया कि एक बहुत बड़े शायर रहते हैं मोहल्ले में। मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि चलो किसी सन्डे को कर आते हैं दर्शन महाकवि के। सो एक दिन डरते-डरते मैं पहुंचा महाकवि के घर, दरवाजा खटखटाया तो हमारे सामने सफ़ेद पायजामा और सफ़ेद कुरता में एक जिन की मानिंद प्रकट हुये महाकवि, पान कुछ मुँह में तो कुछ कुरते के ऊपर, सफेदी के ऊपर पान का पिक कुछ इस तरह फैला था कि जैसे चांदी कि थाली में गोबर। पान गालों में दबाये थूक के चिन्टें उड़ाते हुये उन्होने कहा - जी आप पड़ोस में नए-नए आये हैं? मैंने कहा जी, मैंने आपके बारे में सब कुछ पता कर लिया है आप भी लिखने-पढने के शौकीन हैं। मैंने कहा जी। फिर क्या था शुरू हो गए महाकवि, कहा- अम्मा यार आईये - आईये, शर्माईये मत, अपना ही घर है तशरीफ़ रखिये। जी शुक्रिया, कह कर मैं बैठ गया .फिर वे लखनवी अंदाज़ में फरमाये, कहिये कैसे आना हुआ? मैंने कहा कि मैं अपनी पत्रिका के लिए आपका इंटरव्यू लेने आया हूँ। यह सब उपरवाले की महर्वानी है, आज पहली वार हीरे की क़दर जौहरी ने जानी है, यह तो हमारी खुशकिस्मती है जनाब, फरमायें......! जी आपका नाम मुंहफट क्यों पड़ा?
बात दरअसल यह है जनाब, कि जब मैं पैदा हुआ तो मेरी फटी हुई आवाज़ मेरे वालिद साहब को अच्छी लगती थी। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो शेरो शायरी करने लगा, हमारे मुँह में कोई बात रूकती ही नहीं थी सो लोग मुझे मुंहफट कह कर पुकारने लगे।
आपने हर विषय पर पुस्तकें लिखी हैं कैसे किया यह सब?
दिमाग से।
वो तो सभी करते हैं, आपने कुछ अलग हट कर नहीं किया क्या?
किया न, चार किताबों को मिलाकर एक किताब बना लिया और छपवा लिया, है न दिमाग का काम? इसका मतलब यही हुआ कि आपकी शायरी में मौलिकता नहीं है?
आज तक किसी ने पकड़ा क्या?
शायद नहीं।
तो फिर मौलिक है, चक्कर खा गए न पत्रकार साहब?
अभी आपकी कौन सी किताब आने वाली है?
जवाँ मर्दी के नुसख़े।
यह तो साहित्यिक किताब नहीं लगती?
लगेगी भी कैसे? मेरी आत्मकथा है जनाब।
मगर आपकी जवां मर्दी दिखती नहीं है?
सठिया गए हैं क्या पत्रकार साहब? कौन कहता है कि मैं जवां मर्द नहीं हूँ? अरे साहब हमारे उम्र पर मत जाइये, शरीर का मोटापा अपनी जगह है और मर्दानगी अपनी जगह, जब दिल हो जवान तो ससुरी उम्र का बीच में क्या काम?
इस उम्र में आपको कोई बीमारी तो नहीं? यानी सर्दी, खांसी, मलेरिया, कुछ भी?
नहीं मुझे कोई वीमारी नही, सिवाए एक दो के, वह भी जानलेवा।
क्या कह रहे हैं मुंहफट साहब जानलेवा?
हाँ जनाब, कभी-कभी दौरा पड़ता है मुझे।
दौरा पड़ता है, यह क्या कह रहे हैं आप?
चौंक गए न जनाब? ऐसा- वैसा दौरा नहीं, कविता सुनाने का दौरा। जब मुझ पर शायरी करने का जुनून सवार होता तो किसी भी ऐरे- गैरे, नत्थू- खैरे को पकड़ लेता हूँ और शुरू हो जाता हूँ, मगर जनाब, मानना पड़ेगा हमारी ईमानदारी को, मैं मुफ्त में किसी को भी कविता नहीं सुनाता, पूरा मुआवजा देता हूँ।
तब तो आपकी बख्शीश में मिले सारे रुपये उसे किसी डॉक्टर को देने पड़ जाते होंगे, बेचारा।ऐसा दौरा कब पड़ता है आपको? आपने जब उकसा ही दिया तो अब मुझे दौरे का एहसास हो रहा सुनिये अर्ज़ किया है....
अरे बाप रे, हमने आपका बहुत समय ले लिया है, अब मुझे इजाजत दीजिए।
ऐसे कैसे चले जायेंगे आप कविता सुने बगैर..... सिर्फ एक शेर सुन लीजिये जनाब, जवानी के दिनों की है। फिर हम लोग नाश्ते पर चलते हैं, उसके बाद दो - चार और सुन लीजियेगा, यदि मेरी शायरी अछि लगी तो दो - चार और.......फिर लंच, फिर डीनर.... मैंने कहा - केवल नाश्ता आज, जब पहचान बन गयी तो आना - जाना लगा रहेगा.....लंच फिर कभी...... जैसे -तैसे माने महाकवि....मगर उनकी दो -चार नवरस की कवितायेँ सुननी ही पडी, एक -एक पल बहुत भारी पड़ रहा था....... अब मरता क्या नहीं करता, ये आफत मैंने मोल ली थी, सो जबतक महाकवि सन्तुष्ट न हुये सुनता रहा, गनीमत है कि वह नौबत नही आयी की अस्पताल जाना पडे। भाई मेरे, जैसे- तैसे पीछा छूटा महाकवि से, चार साल हो गए कभी उनके घर की ओर नहीं झाँका, भगवान बचाए ऐसे महाकवियों से, भाई यह लखनऊ है यहाँ बहुत मिलेंगी आपको ऐसी अदबी शाख्शियतें...... यानी अल्लाह महरवान तो गदहा पहलवान.....!