महाकुंभ / संतोष श्रीवास्तव
कड़कड़ातीठंड और चारों ओर छाई धुँध इलाहाबाद के मीलों फैले संगम तट पर संन्यासी अखाड़े के शाही जुलूसमें भारी संख्या में नागाओं को देखकर अचंभित और चमत्कृत थी प्रियदर्शिनी। लगता था मानो धरती के विलक्षण प्राणी हैं वे। ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था। इतने देश घूमी है वह पर ऐसा अद्भुत लोक पहले कहीं देखा ही नहीं।
"बाबाजी... ये कौन हैं?" उसने महंत जैसे दिखते त्रिपुंडधारी बाबा के पास जाकरपूछा।
महंत ने पलभर प्रियदर्शिनी के लंबे-लंबे सुनहले रेशमी बालों को, बड़ी-बड़ी नीली आँखों को और तीखे नाक नक्श वाले रूप को देखा। वह जींस पर जर्सी पहने थी और कानों पर ऊनी कनटोपा। गले में दूरबीन लटक रही थी और हाथों में कैमरा। देशी-विदेशी संस्कृति के मिले जुले रूप को देख महंत मुस्काए-
"येनागा हैं।"
"नागा।" प्रियदर्शिनी ने उसी तर्ज़ पर दोहराया।
"हाँ ये विदेह हैं। अपनी देह से परे जा चुके हैं। अपनी समस्त सांसारिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली है इन्होंने।" महंत ने हाथ में पकड़ी रुद्राक्ष की माला के दानों को आँखों से छुआया और गले में पहन लिया। प्रियदर्शिनी की निगाहें रुद्राक्ष के दानों पर टिक गईं। महंत ने माला के दानों को छुआ-" येरुद्राक्ष पंचमुखी हैं। पाँचों इंद्रियों के दमन का प्रतीक... शांति पाने का सहज मार्ग... आप भारतीय आध्यात्म को जानती हैं?
"हाँ... मैंने पढ़ा है... गीता, रामायण, भागवत... मैंने हिन्दी और संस्कृत भी सीखी है।" प्रियदर्शिनी के होठों से हिन्दी के वाक्य पहाड़ी झरने की तरह बह रहे थे।
"तब तो आप महर्षि विश्वामित्र को भी जानती होंगी? उनकी तपस्या को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने खंडित कर उनके अंदर कामेच्छा जगा दी थी। न वे बाख पाये इस इच्छा से, न इंद्रदेव लेकिन ये नागा साधु... इन्होंने अपनी कामेच्छा पर विजय पा ली है।"
प्रियदर्शिनी के मुँह से निकला- "ओह" और उसका मुँह खुला का खुला रह गया। मानो वह उन पुराणों के ऋषियों को साकार देख रही है बल्कि उससे भी अधिक सत्य... विलक्षण... अद्भुत... आह। इतनेवर्षोंसे अपने प्रेम के जिन स्याह पन्नों को उसने अपने मन के तलघर में डाल दिया था, वे सहसा फड़फड़ाने लगे। माइक ने उसे वासनापूर्ति का साधन समझ जिस नारकीय पंक में गले-गले डुबोया था, उसमें एक भी प्रेमकमल न था। उसका दिल पँखुड़ी-पँखुड़ी टूटा था। और वह शांति, सुकूनकीतलाश में जर्मनी से भारत आई थी।
सर्दीली हवा ने प्रियदर्शिनी के गाल नाक ठंडे कर दिए थे। ऊनी टोपे से कुछ ज़िद्दी लटें कान के पास उड़ रही थीं। सामनेगंगाका ठंडा-बर्फीला पानी ओर छोर फैला था जिसमें संन्यासी अखाड़े के नंग धड़ंग नागा साधु ईश्वर के नाम को बुदबुदाते हुए डुबकियाँ ले रहे थे। प्रियदर्शिनीसिहर उठी। कुंभनगरकीपवित्र फ़िज़ा में महात्माओं के श्लोक गूँज रहे थे। एक भव्य दृश्य... अखाड़ों का ऐसा जुलूस जैसा एक ज़माने में राजा महाराजाओं का निकलता था। इस जुलूस की भव्य शोभा यात्रा में शामिल नागाओं और महात्माओं की एक झलक पाने को लोग घंटों से प्रतीक्षारत थे। करोड़ों की भीड़, देश विदेश के इतने यात्री ... मॉरीशस, फीज़ी, हॉलैंड, सूरीनाम आदि देशों में फैले हज़ारों लाखों अप्रवासी भारतीयों के लिए यह महाकुंभ मानो, उन्हें अतीत में विचरण करा रहा था। इसी भारत से उनके पूर्वज सौ डेढ़ सौ साल पहले इन देशों में मजदूरी के लिए ले जाये गये थे। ब्रिटिश सरकार के गिरमिटिया इनअनजानवीरान द्वीपों पर लंबी समुद्र यात्रा और शारीरिक यंत्रणा के बाद लाये गये थे जिसे अपने श्रम से सींचकर उन्होंने हरा भरा बनाया था। फिर उन्हें वहीँ बस जाना पड़ा था। उन्होंने भारतीय धर्म, संस्कृति और आध्यात्म की जो नींव रखी उनकी संतानें आज भी उसका पालन कर रही हैं। प्रियदर्शिनी की माँ भारतीय हैं और पिता जर्मन। वह अपने बेहद व्यस्त माता पिता की अकेली संतान है। उसके देश में किसी भी नदी का ऐसा कोई संगम नहीं है जहाँनियत समय, तिथि पर मौसम के तेवर को नज़र अंदाज़ कर डुबकी लगे जाती हो। वहाँ कोई नागा साधु नहीं जिसने कामेच्छा पर विजय पा ली हो बल्किउनके लिए एक दूसरे में लिप्त होने का शर्तिया साधन कामवासना ही है।
विदेशी सैलानियों के अलग तंबू थे। इनतंबुओं में मॉरीशस से आई सुचेता, हॉलैंड से दीपा और सूरीनाम से आई विशाखा थी।
"अब तो आप सब अपने-अपने देश की नागरिक हैं, भारत आपके लिए विदेश ही हुआ न?" प्रियदर्शिनी सुचेता के साथ उसके तंबू में चाय के लिए आमंत्रित थी।
"क्यों, भारत विदेश क्यों? हम मॉरीशस में रहते ज़रूर हैं पर हैं तो भारत के ही। कभी मॉरीशस आओ मैडम आपको लगेगा आप भारत में ही हैं। वहाँ गंगा तालाब को परी तालाबकहते हैं। किंवदंतीहै कि इस तालाब की टेकरी पर रात को परियाँ आकर बैठती हैं। गंगा तालाब ज्वालामुखीके फटने से प्रगट हुआ है। हमारे पूर्वजों द्वारा लाया इसी इलाहाबाद का गंगा जल उस पर छिड़ककर उस तालाब का नाम गंगा माँ की स्मृति में गंगा तालाब रखा गया। शिवरात्रिके दिन गंगातालाब से काँवरों में जल भरकर मॉरीशस के शिव मंदिरों में अभिषेक के लिए ले जाया जाता है। तालाब के किनारे तेरहवेंज्योतिर्लिंगका विशाल शिव मंदिर है। द्वार के नंदी पर अँगूठे और उँगली से गोल घेरा बनाओ तो उस नन्हे से गोल से भी विशाल शिवलिंग के दर्शन होते हैं।"
"चमत्कार... और उससे भी बढ़कर अद्भुत यह कि हज़ारों मील दूर रहते हुए और डेढ़ सौ वर्षों से छूटे अपने देश के प्रति आपकी ऐसी आस्था सुचेता।"
सर्द हवाओं संग कहीं दूर बजते ट्रांजिस्टर के गीत बिल्कुल नज़दीक लग रहे थे... "गंगा मइया तोहे पियरीचढ़ईबूँ... सैंया से कर दे मिलनवा..."
आसमान तारों से खचाखच भरा था औरदीपा, सुचेता, विशाखा का दिल धार्मिक आस्था से। प्रियदर्शिनी अपने दिल को टटोलने लगी... अकेलापन उसने सारी उम्र झेला है... माता पिता की नज़दीकी को तरसती माइक के प्यार प्रदर्शन में ख़ुद को धन्य समझने लगी थी। क्या जानती थी कि भारतीय आध्यात्म पर अपनी थीसिस लिखते-लिखते वह माइक की हर वाजिब, ग़ैरवाजिब बातों को मानती जायेगी। माइक ने सिर्फ़ देह का साथ निभाया जबकि प्रियदर्शिनी दिल दे बैठी उसे और फिर धोखे के जाल में फँसती पिछले दो सालों से मछली की तरह तड़प रही है। इसीलिए तो आई है यहाँ ताकि थीसिस के लिए अनुभवों को जुटा ले पर वह उस संताप से मुक्त क्यों नहीं हो पा रही है? जबकि संगम तट पर तिल रखने को भी जगहनहींहै। रात गहरा रही थी लेकिन संगम तट का नज़ारा ऐसा था मानो रात ने आने से इंकार कर दिया हो। भक्ति, संगीत और साधना का संगम संजोए बहुरंगी रोशनी से नहाए तंबू... खुले रेतीले तट... जलते अलाव एक दूसरी ही दुनिया की सैर करा रहे थे।
"आज हमारे साथ डिनर लोगीप्रियदर्शिनी।" इतनी देर से साथ-साथ रहकर सभी आपसी आत्मीयता से भर उठे थे। प्रियदर्शिनीहै भी बहुत मोहब्बती तभी तो माइक जैसे चालाक व्यक्ति के चंगुल में आसानी से फँस गई थी। डिनर का इंतज़ाम भी सुचेता के ही तंबू में किया गया। सब गोल घेरा बनाकर बैठ गये। पत्तलों के ढेर से सबने अपने-अपने लिए दोने पत्तलें चुन लीं। प्रियदर्शिनी आश्चर्य से पत्तल को उलट पुलट कर देखने लगी। सुचेता ने पत्तल पर पानी छिड़ककर नेपकिन सेपोछा-"ये पत्तलें पलाशके पत्तों को जोड़कर बनाई गई हैं। पलाश होली के त्यौहार के समय फूलता है। चटख़ लाल रंग के काली डंडीवालेपलाश के फूल जब खिलते हैं तब इसके पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं रहता। हर शाख़ फूलों से लदी, जैसे जंगल में आग लग गई हो।" पत्तलों पर गरम-गरम सुनहली सिंकी पूरियाँ, आलू मटर की भुनी हुई सब्जी, आम का अचार और दोने में खीर परोसी गई। बर्लिन में ऐसा खाना ममा ने प्रियदर्शिनीके जन्मदिन पर बनाया था। उसे ममा की बेहद याद आई। ममा ने उसकी हर ज़रूरतों को, हरइच्छाओं को पिता बनकर भी पूरा किया था क्योंकि उसके पिता घर में कोई रूचि नहीं लेते थे। उसे तो ये भी याद नहीं कि उसने उन्हें ममा के साथ डिनर याब्रेकफास्टलेतेकभी देखा हो। लंच में तो तीनों अपने-अपने काम से बाहर रहते हैं। वे कभी सप्ताहांत में बाहर भी नहीं गये जबकि उसकी ममा बहुत हँसमुख, ज़िंदादिल और मस्तमौला स्वभाव की हैं। माइक के संग दोस्ती को लेकर उन्होंने ज़रूर एतराज किया था लेकिन प्रियदर्शिनी ने इसे तवज्जो नहीं दी थी... उसे यक़ीन था कि एक दिन ममा को वह माइक के लिए ज़रूर मना लेगी।
प्रियदर्शिनीकुछ विदेशी छायाकारों के संग संगम के शाही स्नान का नज़ारा विडियो शूट कर रही थी। गंगा की लहरों पर सिर ही सिर दिखाई देते थे या फिर उथले पानी में कमर-कमर तक डूबे नागा साधु जो जूलूस की शक्ल में हाथी, घोड़ों, रथों, पालकियों सहित पधारे थे। अचानक एक नागा साधु अपना त्रिशूल लेकर उस जापानी छायाकार के ऊपर झपटा जो सुबह से उसके साथ ही है। वह बचाने को दौड़ी। तभी और भी कईलोगों ने उनका त्रिशूल पकड़ लिया-"बाबा क्षमाकरें।" नागा लाल-लाल आँखों से घूरने लगा-"हमने मना किया न, किहमारी फोटो मत लो... धर्म-कर्म में रूकावट डालते हो?" जापानी थर-थर काँप रहा था। लोगों की क्षमा प्रार्थना से वह नागा लौट तो गया गंगा की ओर लेकिन क्रोध से उसके नथुने फड़कने लगे थे। जापानी युवक कुछ ही घंटों में अपने मोहक स्वभाव के कारण उसका दोस्त बन गया था। प्रियदर्शिनी की तरह वह भी आश्चर्य चकित था कुंभनगर के, अलौकिकपरिवेश से। करोड़ों की भीड़ ने दोनों को ही आश्चर्य में डाल दिया था। कड़ाके की सर्दी को अँगूठा दिखाते श्रद्धालुओं के लिए गंगा का पवित्र जल मानो गरम पानी का कुंड बन गया था। आख़िरक्यों ये सब मौनी अमावस्या के दिन डुबकी लगाने को बेताबहैं। क्या कोई वैज्ञानिक तर्क है इसका? सरस्वती नदी इतने वर्ष पहले गायब हो गई कि भूगर्भवैज्ञानिकोंको उसके मार्ग की खोज करने के जीवाश्मऔर सेटेलाइट इमेजरी का अध्ययन करना पड़ा। न ही उसका विलोप होना इतना निकट है कि उसके अस्तित्व को तलाशा जा सके। लेकिनऋचाओं में देवलोक की इन तीनों नदियों केस्वर्गिक संगम का महिमा गान मौजूद है। गंगा अपनी सुनहली लहरों के रूप में, यमुना काली लहरों के रूप में और सरस्वती धवल क्षीण धार सहित जब एक दूसरे के आलिंगन में समाती हैं-तो मानो स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। यहविश्वास ईसा से तीन हज़ार साल पहले से मौजूद है। कोई उत्तर नहींहैप्रियदर्शिनी के पास इस महान आस्था का। माइकल जैक्सन और मेडोना के शो में लाइट और साउंड के आधुनिक उपकरण सजाकर भी कभीइतनीभीड़ नहीं बटोर पाये प्रायोजक... गाँव, देहात से सिर पर गठरी रखे लोग उमड़े पड़ रहे हैं... हर वर्ग का आदमी बस एक बार गंगा में डुबकीलगाने की इच्छा से चला आ रहा है। दो-दो तीन-तीन महीने के शिशुओं तक को सर्द पानी में डुबकियाँ लगवा रहे हैं ये लोग।
सब कुछ सुन रखा था प्रियदर्शिनी ने... बताती थी ममा कि भारत धर्म और आस्था का प्रतीक है। प्रियदर्शिनी की थीसिस का एक चैप्टर तो ममा के बताये धार्मिक किस्सों कहानियों का ही है। फिर भी ममा ठगी गई थी उनके ही देशवासी नीरज कुमार से। बाक़ायदा शादी कर, विदेश के सपने दिखाता नीरजकुमार लंदन आते ही अजनबी बन गया था। ममासे छै: महीने बाद ही उसने तलाक़ लेकर उन्हें अजनबी देश में अकेला छोड़ दिया था। ममा के लिए जीवन गुज़ारना और ज़िंदा रहने के लिए धनकमाना चुनौती बन गया था। कई बार भारत लौटने का प्रयत्न किया उन्होंने पर हर बार ये सोचकर वेरुक गईं कि लौटकर क्या हासिल कर लेंगी वे? अपने छोटे भाई बहनों के लिए, उनके भविष्य के लिए क्या वे काँटानहीं बन जायेंगी? क्या अपने असफ़ल दाम्पत्य से वे माँ-बाप को आँसू और रुसवाईयाँ नहीं देंगी? ममा ने अपने ग़मों का प्याला चुपचाप ही पी लिया और चेहरेपर ख़ुशी का मुखौटा चढ़ाकर वे होटल में रिसेप्शनिस्ट हो गईं। वहीं उनकी मुलाक़ात डैड से हुई। डैड कॉलेज में प्रोफेसर हैं... शांत, गंभीर और किताबों में डूबे रहने वाले। वे बहुत कम सामाजिक कामों में हिस्सा ले पाते... सोशल तो बिल्कुल भी नहीं हैं... घर में उनकी मौजूदगी उनकी लाइब्रेरी में ही रहती है और ममा कॉफी के प्याले दिनभरवहाँ पहुँचाती रहती हैं। किंतु वे खुश हैं डैड से शादी करके... उनके हरे भरे कुंज में बने खूबसूरत बंगले से और कुंज की दीवार से टिकी उनकी साईकल से... शानदार गाड़ी है फिर भी वे साईकल से कॉलेज जाते हैं... अब तो ममा भी साईकल से ही ऑफ़िस जाती हैं। अब ममा भी स्कूल में पढ़ाती हैं।
"कहाँसे आये हो?" अधलेटे चिलम फूँकते नागा साधु ने प्रियदर्शिनी और जापानी से पूछा-
"मैडम जर्मनी से आई हैं, प्रियदर्शिनी नाम है इनका।" जापानी ने हिन्दी में कहा तो प्रियदर्शिनी ताज्जुब से जापानी को देखने लगी। वह खिलखिलाकर हँस दिया... "सरप्राइज न?"
"चिलम पियोगी? लो, एक सुट्टा मारो और हमारे पैर दबाओ।"
प्रियदर्शिनी ने साधु की ही चिलम से सुट्टा मारा। पैर छूने और पैर दबाने की यह परंपरा जब वहयहाँ आई तभी से देख रही है। उसे अटपटा नहीं लगा। वह साधु के पैर दबाने लगी। काले... आबनूस से चमकते पैर... शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं। प्रियदर्शिनी के कोमल हाथों के स्पर्श से माइक बेकाबू हो उठता था और उसे दबोच लेता था... वही स्पर्श साधु में कोई उत्तेजना न जगा सका। सचमुच ये विदेह हैं, इन्हें देह का ज्ञान नहीं।
साधु उठकर बैठ गया। पीठ पर बिखरी जटाओं को समेटकर सिर पर बाँधते हुए बोला-"लो पीठ भी मल दो।" मौका देखकर जापानी ने कहा-"बाबा, मैडम के साथ अपना एक फोटो खींच लेने दीजिए न?"
साधु ने अलमस्त हो आसमान की ओर निगाहें उठाईं-"खींच लो, खींच लो। यह शरीर तो मिट्टी ही है। तुम्हारा कैमरा हमारी आत्मा की फोटो तो खींच नहीं सकता और आत्मा का उद्धार होता है इच्छाओं के त्यागसे..."
गंगा के नहाए से कौन नर तर गये।
मीनहू न तरी जाको जल ही में वास है। ।
प्रियदर्शिनी भावविह्वल हो साधु के चरणों पर गिर पड़ी।
मन ही मन कहने लगी-"मुझे शांति चाहिए बाबा।"
साधु ने उसके सिर पर हाथ फेरा-"उठो, अपनी इच्छाओं का त्याग करो पहले।"
उसे ममा की याद सताने लगी। उसे डैड भी बहुत याद आये। एक बार चुपके से उसने ममा की डायरी पढ़ ली थी और उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई थी... तब से वह न चैन से सो पा रही है न दिन गुज़ार पा रही है। जिस माइक को उसने तहेदिल से चाहा है अब उसके अवगुण उसेकोंचते रहते हैं... काश वह नहीं जान पाती कि डैड उसके असली डैड नहीं हैं। वह नीरज कुमार की बेटी है जिसके अंकुरित होते ही नीरज कुमार ने ममा को त्याग दिया था। ममा ने बताया था कि किस तरह विदेश के आकर्षण में उसके नाना नानी और परिवार वालों ने बिना सोचे समझे ममा को नीरज कुमार के संग ब्याह दिया था। ममा तब एम.ए. की पढ़ाई कर रही थी। लंदन के आकर्षक प्रस्ताव में सभी की रज़ामंदी थी। शादी के तीन माह बाद ममा भी इम्तहान देकर लंदन आ गई। शादी की खुमारी अभी उतरी भी नहीं थी कि वक़्त ने बता दिया कि ये शादी मात्र एक छलावा थी... विदेश में पैर जमा लेने की पुख्ता साज़िश। भविष्य का भटकाव सामने था लेकिन मातृत्व का मीठा एहसास मन को बार-बार इस ओर खींच लेता कि उसे बच्चे को जन्म देना है। उसके दुर्भाग्य में बच्चे का क्या दोष? जिस होटल में ममा रिसेप्शनिस्ट थी वहींजर्मनी से इंग्लैंड की सैर करने आये सैलानियों का दल रुका था। डैडउन्हीं में से एक थे।
"क्या आप मुझे शॉपिंग करने में मदद करेंगी?" उनके पूछने पर ममा तैयार तो हो गई लेकिन दो दिन बाद... तब उनकी छुट्टी थी। ग्राहकोंको संतुष्ट करने का पाठ रिसेप्शन का जॉबलेते समय मैनेजमेंट की ओर से उन्हें पढ़ा दिया गया था। शॉपिंगके बाद कॉफी पीते हुए ममा ने डैड के पूछने पर सब कुछ बता दिया था। थोड़ी देर की खामोशीके बाद उन्होंने पूछा-"क्या आप लंदन छोड़ने को तैयार हैं?"
"नहीं, मैं भारत लौटनानहीं चाहती। मेरे माता पिता मुझ पर जो गुज़री है उसे सह नहीं पायेंगे। मेरी दो छोटी बहनें हैं उनका भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा।"
"बहुत अच्छी सोच है आपकी लेकिन मैं इंडिया लौटने कीबात नहीं कर रहा हूँ अपने साथ बर्लिन ले जाने की बात कर रहा हूँ।" ममा चौंक पड़ी थीं-"बर्लिन? ... इतनी जल्दी आपने मेरे बारे में इतना कुछ कैसेसोच लिया?" डैड मुस्कुरा कर रह गये। रात के ग्यारह बजे डैड का फ़ोन आया-"किसी की तरफ़ आकर्षित होने या प्यार होने में क्या बरसों लगते हैं?"
"ममा के पास जवाब नहीं था। टूटीनौका और तूफ़ानी लहरें सोच, समझ पाने का मौका ही कहाँ देती हैं।"
प्रियदर्शिनी का जन्म बर्लिन में हुआ। नर्सिंग होम में पालने में लेटी प्यारी-सी बच्ची को डैड ने गोद मेंउठाना चाहा था। ममा मुस्कुराकर रह गई थीं-"दुनियामें शायद यह पहला वाकया है जब एक गर्भवती औरत के सामने कोई प्रेम का प्रस्ताव रखे।"
"क्योंकि जब मेरी बहन मेरी माँ के गर्भ में थी तब सीढ़ियों से गिर जाने की वज़ह से उनकी मृत्यु हो गई थी। उनकीआँखों में वही कामना थी जो मैंने तुम्हारी आँखों में देखी।" तुम्हें अपनाकर मैंने माँ के प्रति अपने प्रेम का सबूत दिया है। है न? "
ममा की आँखें छलक आई थीं।
"आज हमारी यहाँ आख़िरी रात है... चलो मिलकर सेलिब्रेट करते हैं।" सुचेता प्रियदर्शिनी और उसके नये जापानी दोस्त को दावत दे रही थी। सुचेता के तंबू में उसके पति सुरेंद्र पहले से मौजूद थे। थोड़ी देर में विशाखा और दीपा भी आ गईं। सब कल अपने-अपने देश लौट जायेंगी।
जापानीवृंदावन घूमने चला जायेगा। सुरेंद्र ने सबके लिए रम का एक-एक पैग बनाया।
"मैं नहीं पियूँगी। ये धार्मिक जगह है। यहाँ इसका निषेध है।"
"यह तो ठंड से बचने की दवा है... देखो, साधु लोग कैसे भांग, चिलम में डूबे रहते हैं।" कहते हुए सुरेंद्र ने सबके हाथ में गिलास थमा दिए। चीयर्स कहते हुए आपस में गिलास टकराये-"भविष्य में हम फिर मिलें इस कामनाके साथ।"
सुबह चाय नाश्ते से निपटकर सभी ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। मथुरा तक जापानी भी साथ हो लिया। संगम की रेत पर अकेली खड़ी रह गई प्रियदर्शिनी।
तड़के सुबह प्रियदर्शिनी की आँख खुल गई। आज उसे भी दिल्ली लौटना है... कल उसकी बर्लिन वापिसी की टिकट है। तंबू के गेट से बाहर झाँकते ही वह विस्मित रह गई। त्रिवेणी की लहरों पर हज़ारों की तादाद में पक्षी पंख फड़फड़ाकर विचरण कर रहे थे। कोहरे की चादर ज़मीन आसमान एक किये थी लेकिन कुंभनगर की रोशनियों ने कोहरे की धुँधलाहट कम कर दी थी। प्रियदर्शिनी त्रिवेणी की ओर अपना कैमरा लेकर तेज़ी से चल दी। मेलार्ड और सुर्खाब पक्षियों के झुंड उसके कैमरे में क़ैद होते चले गये। आज उसे गंगा में नीरज कुमार और माइक का तर्पण भी करना है। मिटा देना है अपनी ज़िंदग़ी से उन्हें। सुना है गंगा में तर्पण के बाद मनुष्यदुबारा नहीं लौटता धरती पर... उसे भी नहीं चाहिएइन दोनों की वापिसी। उसने सुरक्षित स्थान पर अपना शोल्डर बैग रखा और त्रिवेणी के जल में नाक पकड़कर डुबकी लगाई। पानी कमर-कमर तक था और सामने उगता सूरज ... उसनेअंजली में जल भरा...! 'हे प्रभु मेरे जन्मदाता के पापों को क्षमा करना, माइक के पापों को क्षमा करना...' यह कैसी प्रार्थना? ये बोल उसके होठों से क्यों फूटे? क्या यही आध्यात्म का गूढ़ रहस्य है? वह तो तर्पण करने आई थी और? ... उसके बालों से चेहरे पर टपकती जल की बूँदें अपने संग उसकी अश्रु बूँदें भी ले चली।