महाकुंभ : राजनीति में धर्म और धर्म में राजनीति / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 05 फरवरी 2013
इमरान हाशमी और हुमा कुरैशी अपनी फिल्म 'एक थी डायन' के प्रचार के लिए कुंभ जाने की योजना बना रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी भी कुंभ में जा रहे हैं और शायद वहीं मोदी के प्रधानमंत्री पद के लिए दल की ओर से दावेदारी की घोषणा होगी। बाबा रामदेव का कहना है कि कुंभ के लिए एकत्रित साधु-संत तय करेंगे कि भारत का प्रधानमंत्री कौन हो। यह भी सुना जा रहा है कि सोनिया व राहुल गांधी भी वहां पहुंचने वाले हैं। यह कल्पना करना कठिन है कि अगर ये सभी लोग एक ही दिन गंगा के किनारे पहुंचे तो क्या होगा? क्या कभी कोई कल्पना कर सकता था कि 'एक थी डायन' नामक फिल्म का प्रचार कुंभ में होगा? प्रचार की ताकतें नए मंच ईजाद कर सकती हैं और हर मौजूद मंच का मनचाहा इस्तेमाल कर सकती हैं। मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए यह स्वर्ण अवसर हो सकता है।
भारत में विज्ञान और टेक्नोलॉजी चाहे जितने परिवर्तन प्रस्तुत कर ले, परंतु लोकप्रियता के रसायन से धर्म या उसका मनमाना संस्करण कभी हटाया नहीं जा सकता। हमारी पुरातन पौराणिकता की जड़ें सदियों पुरानी हैं और यह देश कभी भी पूरी तरह विज्ञानमय नहीं हो सकता। सच तो यह है कि पश्चिम के आधुनिक देशों में भी यही प्रवृत्ति मौजूद है और कई प्रकरणों में बाइबिल आज भी विज्ञान पर भारी पड़ती है। अंतर केवल इतना है कि वहां धार्मिक संगठन कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में नहीं ले पाते और देश हुड़दंग के हवाले नहीं किए गए हैं। वहां के कर्मचारियों की पहली निष्ठा अपना संस्थान और नियम हैं। हमारे यहां वर्दी के ऊपर पौराणिकता का ओवरकोट पहना जाता है और कोई बारिश, धूप या रोशनी इस जिरहबख्तर के पार नहीं जा पाती। यह भी एक भयावह संभावना है कि कभी सड़कों पर सिर्फ लोहे के जिरहबख्तर घूमते नजर आएं। दुकानदार जिरहबख्तर पहने है, खरीदार भी जिरहबख्तर पहने है। आज कई चोले ऐसे हैं, जिनके जिरहबख्तर में बदल जाने की कल्पना दिल दहलाने वाली है।
बहरहाल, यह तो ज्ञात है कि बिमल रॉय अपने जीवन के अंतिम दिनों में 'महाकुंभ' नामक पटकथा पर काम कर रहे थे। काश हमारे यहां उन पटकथाओं का प्रकाशन हो पाता, जिन पर किसी कारणवश फिल्में नहीं बनीं। हॉलीवुड में ग्राहम ग्रीन ने 'द थर्ड मैन' की पटकथा के बाद 'द टेंथ मैन' लिखी थी, जो किताब के रूप में प्रकाशित हुई।
हिंदुस्तानी सिनेमा में कुंभ मेले का इस्तेमाल अक्सर दो भाइयों के बिछुडऩे के लिए किया गया है। दरअसल महाकुंभ में मानवीय करुणा और आस्था की अनेक कहानियां निहित हैं, परंतु भारतीय फिल्म उद्योग के लेखकों ने कभी उसे खोजने का प्रयास नहीं किया। संसार में शायद ही कोई ऐसा धार्मिक अवसर हो, जिसमें इतनी संख्या में लोग आते हों। महाकुंभ की व्यवस्था में भी सरकारें घपले करती होंगी, ऐसी आशंका को निराधार नहीं मान सकते क्योंकि जैसे प्रचार और बाजार की ताकतें हर मंच का उपयोग करना जानती हैं, वैसे ही नेता-अफसर हर अवसर का उपयोग कर लेते हैं। धार्मिक उत्सवों पर धार्मिक स्थानों पर चढ़ावे का धन सत्ता-संघर्ष को जन्म देता है। धार्मिक स्थानों की अपनी राजनीति है और भारतीय राजनीति में धर्म हमेशा लोकप्रियता की खातिर इस्तेमाल किया जाता है।
भैरप्पा के उपन्यास 'अपनी-अपनी आस्थाओं के दायरे' में एक साधु महाकुंभ में सामूहिक भोज की व्यवस्था करता है और भुगतान के लिए अपने त्रिशूल का कैप खोलता है, जिसमें उसने इसी अवसर के लिए स्वर्ण मुद्राएं रखी थीं, परंतु अब उसमें पत्थर निकलते हैं। उसे याद आता है कि एक नि:संतान दंपती के आग्रह पर उसने यज्ञ किया था। पत्नी तो आस्थावान थी, परंतु पति को कोई विश्वास नहीं था। संभवत: उसी ने स्वर्ण मुद्राएं निकालकर पत्थर रखे। वह श्राप देता है कि यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त पुत्र कुछ वर्ष पश्चात महाकुंभ में आकर इस दावत का भुगतान करेगा और बाद में गंगा में समाधि लेगा।
बहरहाल, इस उपन्यास की यह छोटी-सी घटना हैऔर केंद्रीय विषय जन्म-जन्मांतर का प्रेम है तथा मुद्दा यह है कि अगले जन्म में मनुष्य नई काया का धर्म निभाएगा या विगत जन्म के रिश्ते से जुड़ा रहेगा। अगर हम श्राप और वरदान को हटा दें तो सारा पौराणिक साहित्य अपना प्लॉट खो देता है। यह संभव है कि उस जमाने में श्राप और वरदान कथा में मोड़ देने के लिए रचे गए हैं और उन कथाओं का नैतिक निचोड़ हमेशा आदर्श होता है। गोयाकि आदर्श की स्थापना के लिए कल्पना से घटनाएं गढ़ी गई हैं, परंतु लोगों ने कल्पना को यथार्थ मान लिया और कथाओं के नैतिक निचोड़ के आदर्श को कल्पना मान लिया। कथाओं का यही स्वरूप राजनीति में आ गया है और चुनावी जीत को दैवीय आशीर्वाद और पराजय को श्राप माना जा रहा है। गणतंत्र व्यवस्था में देश निर्माण में सत्ता पक्ष और सृजनशील विपक्ष की समान भूमिका होती है।
चुनावी समुद्र-मंथन से निकले अमृत और विष दोनों का महत्व है, क्योंकि मंथन का यही दायित्व है। गरल को गले में धारण करके भी अमृत को उससे मिल जाने के खतरे से बचाया जा सकता है। आमतौर पर गणतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक विचारधारा के दम पर चुने गए व्यक्तियों के द्वारा सरकार बनाए जाने की प्रक्रिया है, परंतु भारत अपनी बनावट के कारण राजनीतिक सिद्धांत के आधार पर कोई यकीन पैदा नहीं करता।
सारा खेल भावना आधारित है और तर्कसंगत नहीं है। जैसे हम अपनी पौराणिक कथाओं के काल्पनिक घटनाक्रम, जिसे श्राप और वरदान अवधारणा द्वारा रचा गया है, को सत्य मानकर उसके नैतिक आदर्श को कल्पना मानते रहे हैं, वैसे ही राजनीति को भी हमने एक पौराणिकता का स्वरूप दे दिया है और उसके समुद्र-मंथन के यथार्थ को अनदेखा करके उसके सत्तारूपी अमृत और विरोध में बैठने के गरल को सत्य मान लिया है। इस सारे झमेले में देश का अवाम समुद्र की तरह सिर्फ मथा जाता है, परंतु उसका अमृत पर अधिकार नहीं है और वह उस गरल को गले में धारण करने के लिए अभिशप्त है।