महागुरु / सुधा भार्गव
गर्मी का दिन था। सूरज अपने ताप पर था। ऐसे समय में एक लड़का पेड़ की छाया में बैठा ठंडी-ठंडी हवा खा कर मस्त था। केवल एक पाजामा पहने हुये था और धूप से बचाने के लिए सिर को तौलिये से ढक रखा था।
संयोग से वहाँ का राजा किसी काम से उधर ही आ निकला। लड़के को देख कर वह ठिठक गया। उसके पास एक टीन का डिब्बा था। उसमें से वह एक-एक मूंगफली निकालता, उसे छीलता। किसी में दो दाने निकलते, किसी में तीन। वह खुशी में आ कर उन्हें हथेली पर रख कर उछालता फिर उन्हें लपकता। हँसते हुए हाथ नचा-नचा कर कहता -
"चल मेरी मूंगफली
चल मेरे मुंह में
चबा-चबा कर खाऊँगा
भुर्ता तेरा बनाऊँगा
खाली पेट बुलाता तुझको
अपनी भूख मिटाऊँगा।"
लड़का एक बार में एक ही दाना खाता पर बहुत धीरे-धीरे। जब वह उसे निगल लेता तो दूसरा दाना उँगलियों के बीच दबा कर पहले गाता फिर उसे इतराते हुए जीभ पर रखता और चबाना शुरू करता।
"बालक तुम तो बड़े अजीब हो दाने खाने में इतना समय लगा रहे हो। इससे तो अच्छा है दो-तीन दाने एकसाथ मुँह में रख कर चबा डालो। गाना गाना ही है तो चबाते-चबाते भी गा सकते हो। खाने में कितना समय बर्बाद कर रहे हो।"
लड़के ने ऊपर से नीचे राजा को घूर कर देखा और बोला - "श्रीमान आप महलों में रहने वाले, मेरी बात समझ नहीं पाएँगे। आपने भूख नहीं देखी है। भूख की खातिर तो न जाने लोग क्या-क्या करते हैं, मैं तो केवल समय ही नष्ट कर रहा हूँ वह भी अपना।"
"तब भी आपको समझाने की कोशिश करता हूँ। मैं सुबह से भूखा हूँ। एक-एक करके दाने निकालने खाने और गाने में समय तो लगता है पर उतनी देर मुझे भूख नहीं लगती। गाना गा कर मैं अपने सब दुःख भूल जाता हूँ और भूल जाता हूँ कि मूंगफली खतम हो जाने के बाद क्या खाऊँगा। अब आप ही बताइए क्या मैं गलत करता हूँ।"
"तुम तो बहुत चतुर हो। तुमसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। बोलो, मेरे साथ चलोगे।"
"हा-हा! आप तो मजाक करते हैं, मैं खुली हवा में रहने वाला पंछी! महल तो मेरे लिए कैदखाना है, कैदखाना। चंद आराम के लिए मैं अपनी आजादी नहीं खो सकता।"
"जब इच्छा हो तब यहाँ चले आना, इसमें क्या मुश्किल है!"
"अच्छा, चलता हूँ, देखता हूँ, आपके साथ मेरा क्या भविष्य है?"
लड़का ठहरा बातूनी! एक बार इंजन चालू हुआ तो चालू! महल तक का रास्ता पार करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। सो पूछ बैठा - "आप मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं।"
"बिलकुल ठीक कहा!"
"इसका मतलब मैं आपका गुरू हुआ।"
"गुरू! गुरू नहीं... महागुरू। राजा ने हाथ जोड़ दिये।"
महल में पहुँचते ही राजा को लड़के के साथ दरबार में जाना पड़ा। आदत के अनुसार राजा सिंहासन पर बैठ गया। लड़का दो मिनट तो खड़ा रहा फिर तपाक से बोला - "वाह महाराज! यहाँ आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लिया। अपने गुरू को ही भूल गए।"
राजा बहुत शर्मिंदा हुआ। तुरंत अपने सिंहासन से उतर पड़ा। चिल्ला कर सेवक से कहा - "मेरे से भी ऊँचा सिंहासन जल्दी से ले कर आओ।"
पलक झपकते ही नौकर कुर्सी ले कर हाजिर हो गया।
"बैठिए बालगुरू।" राजा ने बड़ी शालीनता से कहा।
"बस महाराज! मैं चलता हूँ फिर आऊँगा। आज का पाठ पूरा हुआ। आपको मालूम हो गया कि गुरू का स्थान क्या होता है।"
बालगुरू चल दिया। राजा सोच रहा था - यह बालक छोटा होते हुये भी मुझसे बहुत बड़ा है। एक पल में ही इसने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया।